पुलिस की भर्ती में शारीरिक सौष्ठव और दम-खम एक अनिवार्य कसौटी रहती है। भर्ती के बाद प्रशिक्षण में शारीरिक चुस्ती, अपराधी की पहचान और उसकी धर-पकड़ आदि के कौशल सिखाए जाते हैं। पर इसी के साथ-साथ पुलिस के प्रशिक्षण में सामाजिक आयाम, खासकर जेंडर संवेदनशीलता को भी शामिल किया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की चांदखुरी पुलिस एकेडमी, जो राजधानी रायपुर से मुश्किल से पच्चीस किलोमीटर दूर स्थित है, पिछले दिनों गलत कारणों से सुर्खियों में रही, जब तक वहां के इंचार्ज पुलिस अधिकारी के नारीद्रोही आचरण का खुलासा नहीं हुआ। मालूम हो कि डीएसपी रैंक का उपरोक्त अफसर वहां प्रशिक्षण हासिल कर रही बत्तीस महिला पुलिस अधिकारियों से उनके मासिक धर्म के बारे में बात करता था। वह आरोप लगाता था कि वे मासिक धर्म के बहाने होने वाली पीड़ा का बहाना बना कर छुटटी करती हैं या परेड में आनाकानी करती हैं।
इस सिलसिले का भंडाफोड़ अचानक हुआ जब राज्य महिला आयोग की टीम वहां अपनी रुटीन मुलाकात के लिए पहुंची और महिला पुलिस अधिकारियों ने आपबीती सुनाई। आनन-फानन में आरोपी पुलिस अफसर का तबादला कर दिया गया है। यह सोचने की बात है कि तबादला कोई सजा न होने के बावजूद ऐसा क्यों किया गया, जबकि कार्यस्थल पर यौन प्रताड़ना के कानून के तहत उपरोक्त अधिकारी दंड का पात्र था।
पुलिस बल में महिला कांस्टेबलों या अन्य अधिकारियों को जो झेलना पड़ता है, उसकी यह महज ताजा बानगी है। कुछ समय पहले कोल्हापुर, महाराष्ट्र के पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में प्रशिक्षण के दौरान यौन उत्पीड़न की एक बड़ी घटना का पता चला। प्रशिक्षण अवधि के दौरान ग्यारह प्रशिक्षु महिला कांस्टेबलों के गर्भवती हो जाने के बाद मामले की जांच के आदेश दिए गए तथा ट्रेनिंग इन्स्ट्रक्टर की गिरफ्तारी की गई। बताया गया कि ट्रेनिंग के दौरान पुलिस के बड़े अधिकारी भी महिला प्रशिक्षुओं के यौन उत्पीड़न में शामिल रहे हैं। उन्हीं दिनों हरियाणा के करनाल के पुलिस प्रशिक्षण केंद्र में ही महिला प्रशिक्षुओं परयौन अत्याचार की खबर आई थी, मगर बाद में इस मामले को रफा-दफा कर दिया गया था।
ध्यान देने वाली बात यह है कि जितनी महिलाओं का यौन उत्पीड़न हुआ होगा, वे सभी गर्भवती नहीं हुई होंगी यानी घटना की शिकार सिर्फ वही ग्यारह युवतियां नहीं रही होंगी जिनके मेडिकल टेस्ट में गर्भवती होने की पुष्टि हुई है। अन्य हो सकता है कि अपनी ‘इज्जत’ बचाने के चक्कर में या किसी तरह ट्रेनिंग पूरी कर हाथ में नौकरी आ जाए इसलिए अपना मुंह न खोलें, लेकिन घटना की गंभीरता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसी ही एक और खबर राजस्थान के जोधपुर से आई थी, जब पता चला कि महिला प्रशिक्षु कांस्टेबलों को उन्हीं के विभाग के पुलिस अधिकारियों ने अपनी हवस का शिकार बना डाला। आम अपराधी की तरह ही वे हॉस्टल में घुस कर लड़कियों को दूसरे हॉस्टल ले गए जहां कोई दूसरा पुलिस अधिकारी मौजूद नहीं था और वहां उन्होंने घटना को अंजाम दिया। पीड़ितों ने थाने में लिखित शिकायत दर्ज कराई है। उन्होंने अपनीशिकायत में यह भी लिखा है कि उन्हीं पुलिस अधिकारियों के खिलाफ यौन अत्याचार की शिकायत पहले भी लिखाई गई थी, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, इसीलिए बेखौफ होकर उन्होंने दुबारा ऐसी घटना को अंजाम दिया। यह भी गौर करने लायक है कि पुलिस विभाग में महिला पुलिस अधिकारी उपलब्ध होने के बावजूद ऐसे पुरुष अधिकारियों को हॉस्टल इंचार्ज बनाया गया। जोधपुर के डीजीपी ने घटना की जांच के आदेश दिए हैं। (डेक्कन हेराल्ड, 29 अप्रैल 2012)
मामला सिर्फ जोधपुर या राजस्थान या छत्तीसगढ़ पुलिस का नहीं है बल्कि ऐसी छिटपुट घटनाओं की खबर देश के अलग-अलग हिस्सों से आती रहती है कि कैसे पुलिस मौका पाकर अपराधी ‘मर्द’ की भूमिका में आ जाती है।
यदि मान लें कि मीडिया में खबर बन जाने के कारण तथा ठोस सबूत के कारण चाहे जोधपुर की महिला प्रशिक्षुओं का मामला हो या कोल्हापुर का मामला हो, कुछ कार्रवाई हो भी जाती है, लेकिन इसके बावजूद अहम मुद्दा यह है कि पुलिस विभाग का वातावरण कब बदलेगा जिसमें धौंस जमाना, दादागीरी तथा मर्दानगी दिखाई जाती है। इस नौकरी में श्रेणीबद्धता इतनी अधिक है कि अपने से ऊंचे ओहदे वाले कर्मचारी या अधिकारी का हर गुनाह और हर निर्देश कबूल कर लेना होता है, वरना अनुशासनहीनता का मेमो लेटर मिल जाता है। थानों का वातावरण पहले से ही ऐसा बना दिया जाता है कि पीड़ित का हौसला पहले से ही पस्त हो जाए। माना तो यह जाता है कि इससे अपराधी डरें, पर अपराधी स्वयं थाने नहीं जाता बल्कि पीड़ित न्याय के लिए वहां जाता है इसलिए माहौल को सहज और सुलभ बनाना चाहिए। लैंगिक भेदभाव तथा पुरुष प्रधानता को कई तरह से देखा जा सकता है, मसलन पुलिस वाले यौनिक गाली-गलौज और अभद्र भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं।
कुछ साल पहले मुंबई में जेंडर पर आयोजित एक कार्यशाला के दौरान, जिसमें महिला पुलिसकर्मी व उनकी वरिष्ठ महिला अधिकारी भी शामिल थीं, महिलाओं ने अपने अनुभवों को साझा किया था और बताया था कि किस तरह थानों का समूचा वातावरण ‘मर्दानगी’ भरा रहता है जिसकी वजह से उनके सहज काम में बाधा आती है। कई महिला पुलिसकर्मियों ने यह भी बताया था कि कुछ पुरुष तो उनके सामने ही अपनी ड्रेस बदलने लगते हैं, जिससे वे बेहद असहज महसूस करती हैं। पुरुषप्रधान वातावरण बने रहने का एक कारण यह भी है कि पुलिस विभाग में महिलाकर्मियों की संख्या काफी कम है। अगर दिल्ली की बात करें तो सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक दिल्ली पुलिस की 71,631 की कुल संख्या में महिला पुलिस मात्र 5,069 यानी सात प्रतिशत है। सैंतीस आला पदों पर एक भी महिला नहीं है। और तैंतीस डीसीपी में तीन सिर्फ महिला डीसीपी हैं। इसी तरह हर स्तर के पदों पर भारी अंतर मौजूद है, सिर्फ चतुर्थ श्रेणी में तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति है। यानी वहां महिलाओं की उपस्थिति 18.66 प्रतिशत है। केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय पहले ही राज्य सरकारों को लिख चुका है कि महिला पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ाई जाए। मंत्रालय नेइसकीवजह बताते हुए कहा था कि महिलाओं व बच्चों के खिलाफ बढ़ते अपराधों तथा आपराधिक घटनाओं में महिलाओं की भागीदारी के कारण ऐसा करना जरूरी है। राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने भी नवंबर, 1980 में ही सिफारिश की थी कि हर पुलिस स्टेशन पर महिलाकर्मियों की संख्या दस प्रतिशत की जानी चाहिए। हाल में भारत सरकार की रिपोर्ट में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि हरियाणा में महिला पुलिसकर्मियों की संख्या कम हो रही है तथा विभाग में भर्ती के लिए प्रेरित करने की खातिर कोई उपाय भी नहीं किया जा रहा है। यहां कुल पुलिसकर्मी 41,683 हैं जिनमें महिलाएं 1,691 हैं।
पुलिस विभाग में महिलाओं की जो नियुक्तियां होती हैं उनके पीछे की एक मजबूरी यह होती है कि महिला अपराधियों की धरपकड़ में या उनसे पूछताछ के लिए कानूनन महिला पुलिस का साथ में होना जरूरी होता है। लिहाजा, हर थाने में कुछ महिला सिपाही भी रखनी होती हैं। इस विवशता से आगे जाकर, महिलाओं को नियुक्तियों में बराबर का अवसर मिले यह सोच कहीं से भी नहीं होती है। कुल मिला कर देखें तो पुलिस विभाग के अंदर लैंगिक गैर-बराबरी तथा यौन हिंसा का मसला गंभीर है। औरत अपनी शिकायत तथा न्याय की अपेक्षा लेकर पुलिस थाने तक पहुंचने का साहस ही कैसे कर सकती है जब पता हो कि स्वयं थाने के पुरुष उत्पीड़क और हिंसक हैं। कई अध्ययनों में यह बात सामने आ चुकी है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामलों में कार्रवाई और सजा की दर कम होने की एक प्रमुख वजह महिला पुलिसकर्मियों की कमी है। ऐसे मामलों में महिलाएं ही पीड़ित होती हैं, फिर बहुत-से मामले यौनहिंसा व यौन उत्पीड़न के होते हैं। अगर पीड़ितों का साबका महिला पुलिसकर्मियों से हो, तो वे अपनी व्यथा-कथा ज्यादा बेझिझक होकर बता सकती हैं और ऐसे मामलों की जांच के तर्कसंगत परिणति तक पहुंचने की ज्यादा उम्मीद की जा सकती है। इसलिए इस मसले पर तत्काल विचार किए जाने की जरूरत है।
समाधान की बात करें तो महिला पुलिस अधिकारियों तथा महिला पुलिसकर्मियों की भर्ती तो अधिक से अधिक होनी ही चाहिए, क्योंकि एक तो इससे पुलिस महकमे के भीतर का पुरुष वर्चस्व टूटेगा तथा मर्दवादी वातावरण खत्म होगा। दूसरे, महिलाओं को यह अधिकार भी है कि उन्हें हर क्षेत्र में बराबर का अवसर मिले। इसलिए उपाय तो अपराधी को लक्षित करके, उसे सजा दिला कर तथा उसकी आपराधिक मानसिकता को दूर करके ही निकलेगा। ऐसी मानसिकता वाले व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में रहेंगे तो वे अपने लिए शिकार तलाशते रहेंगे और समाज में महिलाएं मौजूद हैं तो कोई न कोई हाथ लग ही जाएगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि पुलिस विभाग के एजेंडा में यह मसला मौजूद है या नहीं। देखना यह है कि सभी कर्मचारियों में जेंडर संवेदनशीलता पैदा करना तथा औरत के प्रति उनका नजरिया ठीक हो इसके लिए क्या कोई नीतिगत स्तर की योजना है या नहीं? पुलिस की भर्ती में शारीरिक सौष्ठव और दम-खम एक अनिवार्य कसौटी रहती है। भर्ती के बाद प्रशिक्षण में शारीरिक चुस्ती, अपराधी की पहचान औरउसकी धर-पकड़ आदि के कौशल सिखाए जाते हैं। पर इसी के साथ-साथ पुलिस के प्रशिक्षण में सामाजिक आयाम, खासकर जेंडर संवेदनशीलता को भी शामिल किया जाना चाहिए।