हमने बदल डाली है यह धरती- मार्टिन रीस

यह धरती साढ़े चार अरब साल पुरानी है और अगर इसकी शुरुआत से किसी दूसरे ग्रह के वासी इसे देख रहे होंगे, तो उन्हें क्या दिखाई देगा? शुरुआती वर्षों में बदलाव क्रमिक ढंग से हुआ। महाद्वीप खिसके, बर्फ की परत कमजोर हुई, प्रजातियां बनीं, विकसित हुईं और कुछ सदा के लिए लुप्त हो गईं। पर असली बदलाव पिछले कुछ साल में हुआ।

और अब भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि यह बदलाव इतना स्पष्ट और स्थायी है कि अब हमें धरती का वर्गीकरण इसी के हिसाब से करना चाहिए। 11 हजार साल पहले, जब हिम युग खत्म हुआ, तो मानव सभ्यता विकसित होनी शुरू हुई। इस काल को हम होलोसीन कहते हैं। माना जा रहा है कि अब वह युग खत्म हो गया है। हम मानव निर्मित जिस युग में जा चुके हैं, वह है एंथ्रोपोसीन। किसी के लिए भी इस बदलाव को देख पाना मुश्किल नहीं है।
पिछले कुछ हजार साल में हरियाली का पैटर्न तेजी से बदला है।

खासकर मानव द्वारा शुरू की गई कृषि से। यही नहीं, हमने ऐसे बदलाव भी किए हैं, जो भू-वैज्ञानिक रिकॉर्ड में दर्ज होंगे। खास तौर से कंक्रीट व धातुओं से हुए निर्माण। पालतू पशु अब जंगली पशुओं की आबादी से ज्यादा हो गए हैं। वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड ज्यादा बढ़ गई है। प्लूटोनियम व दूसरे अप्राकृतिक पदार्थ भी काफी दिखने लगे हैं। दूसरे ग्रह के वासी अगर हमें देख रहे होंगे, तो उनकी नजर उन रॉकेटों पर भी होगी, जो हमारे वायुमंडल से हमेशा के लिए बाहर चले जाते हैं। कुछ धरती की कक्षा के चक्कर काट रहे हैं, तो कुछ चंद्रमा व मंगल जैसे ग्रहों की यात्रा कर रहे हैं।

यह बदलाव क्या कहता है? हमें उम्मीद बांधनी चाहिए या चिंतित होना चाहिए? हैरत की बात यह है कि हम पूरे विश्वास के साथ कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते, जबकि हमारे पूर्वज कर लिया करते थे। वे आश्वस्त थे कि वे जिस माहौल में रहते हैं, उनके बच्चे भी उसी माहौल में रहेंगे। पर तकनीकी बदलाव इतनी तेजी से हो रहे हैं कि हम कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकते। सिवाय इसके कि इस सदी के मध्य तक दुनिया में भीड़ काफी बढ़ जाएगी। आबादी नौ अरब तक पहुंच जाएगी। विशेषज्ञ मानते हैं कि बढ़ते शहरीकरण के कारण लागोस, साओ पाउलो और दिल्ली जैसे कई शहर बनेंगे। जाहिर है, इसका दबाव पर्यावरण पर पड़ेगा।

अगर ग्लोबल वार्मिंग अपने चरम पर पहुंची, तो धु्रवों की बर्फ पिघलेगी और समुद्र का स्तर बढ़ेगा। इससे कई प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी। अनुमान है कि एक करोड़ प्रजातियों में से 20 लाख सदा के लिए चली जाएंगी। एक आशावादी विकल्प भी है। मानव समाज इस खतरे से निपट सकता है। वह विकास का ऐसा दौर शुरू कर सकता है, जो हमें स्थायी भविष्य दे। ऐसे बदलाव का असर इस धरती से आगे पूरे ब्रह्मांड पर असर डाल सकते हैं। इस मायने में 21वीं सदी बहुत विशेष भी है।
साभार: द गार्जियन
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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