हाल के वर्षों तक बाढ़ को ग्रामीण समस्या के रूप में ही देखा जाता था और हमेशा बाढ़ से ग्रस्त रहने वाले इलाकों के लोगों, जो मुख्यत: किसान होते थे, की मान्यता थी कि बाढ़ आती है और चली जाती है। ऐसा विरले ही होता कि कभी ढाई दिन से ज्यादा टिकी हो। लेकिन हमारे बाढ़-नियंत्रण के प्रयासों ने अब गांवों की कौन कहे, शहरी क्षेत्रों को भी अपने में समेट लिया है और ये ढाई दिन की बाढ़ ढाई हफ्तों, बल्कि कहीं-कहीं तो ढाई महीने की भी हो गई है।
पानी आता है, मगर जाता नहीं है। पानी की निकासी के मुहानों का या तो दम घुट गया है या फिर वे बंद हो चुके हैं। इससे इतना तो जरूर लगता है कि बाढ़-नियंत्रण के क्षेत्र में कुछ न कुछ गड़बड़ी जरूर हुई है, भले ही हमारे इंजीनियरों ने अब बाढ़-नियंत्रण का नाम बदलकर बाढ़-प्रबंधन कर दिया हो, लेकिन काम और उसके ढर्रे में शायद ही कोई बदलाव हुआ हो।
इस साल उत्तराखंड से लेकर उत्तर प्रदेश होते हुए बिहार और पश्चिम बंगाल के कई हिस्सों व असम में बाढ़ से जो तबाही मची है, वह किसी से छिपी नहीं है। उत्तराखंड में तो बाढ़ का ‘उठौना’ लग गया है। बिहार में बाढ़ का जो कहर इस माह के प्रारंभ में महानंदा घाटी में पूर्णिया से शुरू हुआ था, वह अब पश्चिमी व मध्य बिहार में पहुंच चुका है, जहां गंगा, घाघरा, सोन और गंडक आदि नदियों ने तबाही मचा रखा है। उत्तराखंड में अभी हाल के वर्षों तक बाढ़ की गाहे-ब-गाहे ही चर्चा होती थी, लेकिन अब इस पर्वतीय प्रदेश में यह हर साल का किस्सा बन गई है। यही हाल कश्मीर का है।
इसके कारणों में जाने पर आसान सा जवाब ‘जलवायु परिवर्तन’ सामने आ जाता है। सच यह है कि देश का कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र, जो कि साल 1952 में 250 लाख हेक्टेयर था, अब बढ़कर 498.15 लाख हेक्टेयर हो गया है, यानी दोगुना से ज्यादा। यह गणना 2011 में तत्कालीन योजना आयोग में बाढ़-नियंत्रण के कार्यकारी समूह ने पंचवर्षीय योजना का प्रारूप बनाते हुए की थी। यह जानकारी अपने आप में परेशानी पैदा करने वाली है, क्योंकि इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि बाढ़-नियंत्रण के क्षेत्र में किया गया निवेश फायदे की जगह नुकसान पहुंचा रहा है। जाहिर है, पिछले कई दशकों में किए गए कामों और उनके नतीजों से कोई सबक नहीं लिया गया। इस विरोधाभास की किसी को तो चिंता होनी चाहिए।
देश में पहले राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की स्थापना 39 साल पहले साल 1976 में जयसुख लाल हाथी की अध्यक्षता में हुई थी, जिसका उद्देश्य ‘बाढ़ का वैज्ञानिक प्रबंधन और बाढ़ जनित कष्टों के निवारण’ पर राय देना व उन्हें कम करने के उपाय सुझाना था। इस आयोग ने साल 1980 में अपनी रिपोर्ट दी थी, जिसमें 207 सिफारिशें की गई थीं, जिनमें से 25 सिफारिशों को केंद्र सरकार ने 1990 के दशक के मध्य में स्वीकार कर लिया था। यह तो पता नहीं कि इन सिफारिशों और उनके क्रियान्वयन का अंतत: क्या हुआ, मगर इस रिपोर्ट पर नजर दौड़ाने से लगताहै कि बाढ़ से हुए नुकसान के अध्ययन के अनुसार देश में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और ओडिशा अग्रणी थे और इनमें उत्तर प्रदेश व बिहार का स्थान सबसे ऊपर था। तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों का बाढ़ के संदर्भ में इस रिपोर्ट में बस जिक्र भर हुआ। आंध्र प्रदेश का छठा स्थान शायद इसलिए था कि 1977 और 1979 में रिपोर्ट तैयार करने के दौरान वहां बहुत भयंकर तूफान के कारण व्यापक क्षति हुई थी।
अब हालात एकदम बदल गए हैं। आजकल बाढ़ महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, और मध्य प्रदेश आदि राज्यों में सुर्खियां बटोरती है और वह दक्षिण-पश्चिम मुखी हो गई है। पुराने समय के सर्वाधिक बाढ़ग्रस्त बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य पीछे धकेल दिए गए हैं। बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में साल 2007 के बाद इस साल बाढ़ आई है और उसकी तबाही जारी है। कुछ लोग साल 2008 में कुसहा में बांध टूटने के कारण कोसी की बाढ़ का स्मरण इस संदर्भ में करते हैं, मगर वह तकनीकी अक्षमता की वजह से आने वाली बाढ़ थी और उसका नदी में अधिक प्रवाह या स्थानीय वर्षा के साथ खास लेना-देना नहीं था।
बाढ़ के कारणों पर नजर डाली जाए, तो अत्यधिक पानी की आमद और उसके साथ आने वाली गाद की चर्चा इंजीनियर लोग करते हैं और कहते हैं कि समस्या बाढ़ के पानी की उतनी नहीं है, जितनी उसके साथ आने वाली गाद की है। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर हमने नदियों के किनारे ज्यादातर तटबंध ही बनाए हैं, जिससे नदी की पेंदी के ऊपर उठने, जल जमाव और तटबंधों के टूटने से होने वाली परेशानियों ने हालात बदतर किए हैं। इसके साथ-साथ निकासी के रास्तों का दिनोंदिन संकरा होना, सड़कों, रेल लाइनों के अवैज्ञानिक निर्माण और शहरी क्षेत्रों में जल-निकासी की अनदेखी ने समस्या को बढ़ाया है।
ऐसा नहीं है कि जल संसाधन विभाग इन बातों से अनभिज्ञ है, बल्कि अपनी हर रिपोर्ट में वह इसकी चर्चा भी करता है। लेकिन इसे दुरुस्त करने के नाम पर खामोशी अख्तियार कर लेता है। साल 2007 की बाढ़ में बिहार में 34 जगहों पर नदियों के तटबंध टूटे थे, जबकि राष्ट्रीय व राज्य मार्ग 54 स्थानों पर और जिले व गांवों की सड़कें 829 जगहों पर टूटी थीं। साफ है, कम से कम इतने स्थानों पर नदी यह इशारा कर रही थी कि उसे वहां से पानी निकालने की जगह चाहिए। हमने क्या किया? उन सारी जगहों को और भी मजबूती से बांध दिया। जाहिर है, बाढ़ के पानी की निकासी को बेहतर बनाने की जरूरत है।
बदली परिस्थितियों में क्या हम एक नए बाढ़/ ड्रेनेज कमीशन की स्थापना के बारे में सोच सकते हैं, जो बाढ़ के साथ-साथ पानी की निकासी की व्यवस्था का अध्ययन कर उससे निपटने के उपाय सुझाए? जरूरत इस बात की भी है कि अब गाद को समस्या मानने से हटकर उसको उपयोगी बनाने की दिशा में प्रयास किए जाएं, जिसकी ओर साल 1982 में चंद्र किशोर पाठक समिति ने भी इशारा किया था। अब ऐसा लगता है कि इसका सही समय आ गया है। 40 साल मेंआएपरिवर्तन इसकी ओर जरूर इशारा कर करते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)