अर्थव्यवस्था और भ्रष्टाचार का घुन– अरविन्द कुमार सिंह

दुनिया के अनेक देशों की तुलना में भारत भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में पिछड़ रहा है। यह स्थिति तब है जब यहां भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के लिए कानूनों से लैस तमाम एजेंसियां हैं और नागरिक समाज आंदोलित है। वैसे तो भ्रष्टाचार ने पूरी दुनिया को गिरफ्त में ले रखा है, लेकिन अगर भारत की बात करें तो जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां भ्रष्टाचार का बोलबाला न हो। पहले भ्रष्टाचार के लिए परमिट-लाइसेंस राज को दोष दिया जाता था। इसलिए कि व्यापारियों और उद्योगपतियों को परमिट-लाइसेंस हासिल करने के लिए सरकारी तंत्र को घूस देनी पड़ती थी। मगर जब से देश में वैश्वीकरण, उदारीकरण, बाजारीकरण और विनियमन की नीतियां बनी हैं, तब से भ्रष्टाचार की आंधी चल पड़ी है और भ्रष्टाचार व्यवस्था का अंग बन चुका है। राजनीति, अर्थव्यवस्था और प्रशासन समेत सभी क्षेत्र भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं। बोफर्स घोटाला, सांसद खरीद कांड, तांसी भूमि घोटाला, चारा घोटाला, पेट्रोल पंप आबंटन घोटाला, हवाला कांड, विधायक खरीद कांड, टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला और कोयला खदान आबंटन घोटाला भ्रष्टाचार का ही नतीजा हैं।
आज देश के कई शीर्ष नेताओं पर आय से अधिक संपत्ति रखने का मामला अदालतों में चल रहा है। कई नौकरशाह भ्रष्टाचार के आरोप में सलाखों के पीछे हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के एक अध्ययन के मुताबिक सरकार द्वारा जनता को दी जाने वाली ग्यारह बुनियादी सुविधाओं- शिक्षा, स्वास्थ, न्यायपालिका और पुलिस वगैरह में भ्रष्टाचार को अगर मौद्रिक मूल्यों में आंका जाए तो यह करीब 21,068 करोड़ रुपए बैठता है। 2013 में अर्न्स्ट ऐंड यंग के एक अध्ययन में कहा गया था कि भ्रष्टाचार को लेकर सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर, रियल एस्टेट, मेटल ऐंड माइनिंग, एयरोस्पेस ऐंड डिफेंस, पावर और यूटिलिटी शामिल हैं। इन क्षेत्रों में कई ऐसे अंग हैं, जो भ्रष्टाचार बढ़ाने में सहायक साबित होते हैं, जैसे बिचैलियों का व्यापक इस्तेमाल, बड़े ठेके और दलाली आदि।

प्रोफेसर विवेक देबरॉय और लावीश भंडारी ने अपनी पुस्तक ‘करप्शन इन इंडिया’ में उद्घाटित किया है कि हर साल भारत में सरकारी अधिकारियों द्वारा 921 अरब रुपए का हेर-फेर किया जाता है। यह देश की जीडीपी का तकरीबन 1.26 फीसद है। पुस्तक में यह भी दावा किया है कि सर्वाधिक रिश्वत यातायात विभाग, रियल एस्टेट, और सरकार द्वारा मुहैया कराई जाने वाली सेवाओं में दी जाती है। 2011 में केपीएमजी का एक अध्ययन बताता है कि देश का रियल एस्टेट, टेलीकॉम और सरकार संचालित सामाजिक विकास योजनाएं सहित तीन सर्वाधिक भ्रष्ट क्षेत्र हैं। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार एक असाध्य बीमारी का रूप ले चुका है और जीवन का कोई भी क्षेत्र उसकी जद से बाहर नहीं है।

भ्रष्टाचार की वजह से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंच रहा है, जो देश के विकास में एक बड़ी बाधा है। भ्रष्टाचार के कारण ही देश में कालेधन की एक समांतर अर्थव्यवस्था खड़ी हो चुकी है, जो कुल विदेशी कर्ज से तेरह गुना अधिक है। एक आंकड़े के मुताबिक हर साल भारत में पैंतीस लाख करोड़ रुपए की ब्लैक इकॉनामी तैयार होती है और उसका दस फीसद यानी तीन लाख करोड़ रुपए सालाना विदेशों में जाता है। दिलचस्प है कि कालाधन खपानेके मामले में केवल स्विस बैंक गुनहगार नहीं है। इस खेल में भारत के घरेलू बैंक भी पीछे नहीं हैं। पिछले साल खुलासा हुआ कि भारतीय रिजर्व बैंक की कड़ी निगरानी के बाद भी देश के सरकारी और निजी बैंक गैर-कानूनी तरीके से धन का लेन-देन कर रहे हैं। एक निजी पोर्टल ने बैंकों में मनी लांड्रिग होने का खुलासा किया। संबंधित मामले की जांच फाइनेंशियल इंटेलिजेंस यूनिट (एफआइयू) को सौंपी गई। इन बैंकों पर भारतीय रिजर्व बैंक ने जुर्माना भी किया। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले चार वर्षों में सरकारी और निजी बैंकों के खिलाफ मनी लांड्रिंग के 957 मामले दर्ज हुए।
यह स्थिति तब है जब 2010 के बाद भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों में चलने वाले मनी लांड्रिग के खेल पर रोक लगाने के लिए कठोर नियम बनाए हैं। उचित होगा कि रिजर्व बैंक मनी लांड्रिग में लिप्त बैंकों के जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे, ताकि इस किस्म के भयावह भ्रष्टाचार को रोका जा सके। पिछले साल ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि भारत में भ्रष्टाचार कम होने के बजाय बढ़ा है। भ्रष्टाचार के कारण ही गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी बढ़ी है। बेरोजगारी के मामले में भी हमारी स्थिति शर्मनाक है। देश की वर्तमान बेरोजगारी दर 10-7 फीसद के आसपास है। अगर भ्रष्टाचार का मुंह इसी तरह खुला रहा, तो 2020 तक बेरोजगारी की दर तीस फीसद का आंकड़ा पार कर जाएगी।

कभी सेना, मीडिया, न्यायपालिका और खुफिया जैसे संस्थान बेहद बेदाग समझे जाते थे, वे भी आज भ्रष्टाचार के घेरे में हैं।विडंबना है कि भ्रष्टाचार कम होने के बजाय लगातार बढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण भ्रष्टाचार निरोधक कानून का ईमानदारी से पालन न होना, भ्रष्टाचार से संबंधित मुकदमों की सुनवाई में देरी और भ्रष्टाचारियों को कड़ी सजा न मिलना है। साथ ही भ्रष्टाचार की एकांगी और अधकचरी व्याख्या भी इसके लिए जिम्मेदार है। देश का इतिहास यही बताता है कि भ्रष्टाचार राजनीतिक तूफान खड़ा करने का एक अहम जरिया तो बना, लेकिन उसकी परिणति भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिगुल फूंकने वालों को सत्ता तक पहुंचाने तक ही सीमित रही। भ्रष्टाचार को कभी जीवन के व्यापक संदर्भों से जोड़ कर नहीं देखा गया और न ही उस पर सार्थक बहस चलाने की जरूरत महसूस की गई। उल्टे भ्रष्टाचार की परिभाषा को एक सीमित दायरे में बांध दिया गया। आज भी उसी परिभाषा से भ्रष्टाचार को देखने का प्रयास हो रहा है। नतीजतन, इस सीमित व्याख्या ने भ्रष्टाचार को खूब फलने-फूलने का मौका दिया है।
आमतौर पर देश में यह धारणा बन चुकी है कि घूस लेना, कमीशन खाना और अवैध तरीके से धन इकट्ठा करना ही एकमात्र भ्रष्टाचार है। मगर यह व्याख्या संकुचित है। भ्रष्टाचार को व्यापक नजरिए से देखने की जरूरत है। उचित होगा कि भ्रष्टाचार पर रोकथाम के लिए भ्रष्टाचार की तार्किक व्याख्या हो और उसे व्यक्ति के नैतिक आचरण से जोड़ा जाए। पिछले साल इंस्टीस्ट्यूट आॅफ डिफेंस ऐंड स्टडीज एनालिसिस (आईडीएसए) की रिपोर्ट में कुछ ऐसा ही कहा गया। रिपोर्ट में ऐसे कृत्यों को भ्रष्टाचार माना गया, जो व्यक्ति के आचरण से जुड़े हैं। मसलन, सामाजिक, आर्थिक, राष्ट्रीय और नैतिक उत्तरदायित्वोंकेप्रति उदासीनता और उसके उल्लंघन को भी भ्रष्टाचार माना गया है। कहा गया है कि अगर आप बिना बताए अपने काम से गैर-हाजिर रहते हैं या कम ऊर्जा के साथ काम करते हैं, तो यह भी भ्रष्टाचार है।

सरकारी सेवाओं में कार्यरत अधिकारियों और कर्मचारियों की कार्यसंस्कृति को लेकर सवाल उठते रहे हैं। अक्सर उन पर जवाबदेही, टालू रवैया, कार्य की उपेक्षा जैसे आरोप लगते हैं। यही नहीं, स्कूल-कॉलेजों में शिक्षकों का अनुपस्थित रहना भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। पिछले साल विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि निजी फायदे के लिए सार्वजनिक कार्यालय और पद का दुरुपयोग भ्रष्टाचार की परिधि में आता है। भ्रष्टाचार का कैंसर सिर्फ सरकारी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है, निजी क्षेत्र भी इसकी चपेट में हैं। पूंजीपतियों द्वारा अपने मातहत कर्मचारियों का शोषण, उनकी जायज मांगों की उपेक्षा, टैक्स में चोरी और नियमों के विपरीत जाकर स्वार्थ के लिए काम करना एक किस्म से भ्रष्टाचार ही है। लेकिन विडंबना है कि ऐसे कृत्यों को भ्रष्टाचार नहीं माना जाता। अब समय आ गया है कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए ठोस पहल हो।

सरकार भ्रष्टाचार निवारण कानून 1988 को और सख्त बना कर भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठा सकती है। इस कानून के तहत अभी तक भ्रष्टाचारियों के लिए सिर्फ सात साल की सजा का प्रावधान है, भले ही उन्होंने हजारों करोड़ का घोटाला क्यों न किया हो। उचित होगा कि सजा का निर्धारण भ्रष्टाचार से बनाई गई संपत्ति के मूल्य के हिसाब से हो। करचोरों पर सिर्फ जुर्माना नहीं, बल्कि उन्हें जेल भेजने का भी प्रावधान होना चाहिए। इसके अलावा जनता के कार्यों को पूरा करने और शिकायतों पर कार्रवाई के लिए समय-सीमा निर्धारित होनी चाहिए। इससे लोकसेवकों की जवाबदेही-जिम्मेदारी तय होगी और वे कार्यों में हीला-हवाली नहीं करेंगे। सभी लोकसेवक अपनी संपत्ति की हर वर्ष घोषणा करें, इसके लिए भी सरकार को कानून बनाना चाहिए। भ्रष्टाचार करने वालों पर कठोर दंड का प्रावधान लागू हो और उनकी काली कमाई भी जब्त होनी चाहिए।

अगर सरकार विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों का कालाधन लाने में सफल रहती है, तो इससे भ्रष्टाचारी डरेंगे और भ्रष्टाचार पर अंकुश भी लगेगा। यह अच्छी बात है कि सरकार इस दिशा में अग्रसर है। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि जांच एजेंसियां अपना काम स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से करें। उनके काम में किसी तरह का हस्तक्षेप भ्रष्ट लोगों को बच निकलने का मौका देता है। सरकार को बेनामी संपदा हस्तांतरण रोकने के लिए भी स्पष्ट कानून बनाना चाहिए। राजनीतिक भ्रष्टाचार रोकने के लिए चुनाव सुधार की विशेष आवश्यकता है। जन प्रतिनिधित्व कानून में प्रावधान जोड़ा जाना चाहिए कि अगर किसी अपराधी के विरुद्ध चार्जशीट तैयार हो जाती है, तो उसे न तो चुनाव लड़ने का हक हो और न ही उसे सरकार में कोई पद दिया जाए। विधि आयोग ने चुनाव सुधार संबंधी अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक स्वायत्त संस्था का गठन भी जरूरी है, जो सरकार से पूर्णतया स्वतंत्र हो।

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