कड़वा सच यह है कि सत्तर वर्षों की स्वतंत्रता के बाद अगर भारत की सबसे बड़ी विफलता रही है तो मानव संसाधन विकास के क्षेत्र में। इसका मुख्य कारण यही है कि हमारे शासकों ने अपने लिए आम सेवाओं का स्तर एक रखा है और आम भारतीयों के लिए दूसरा। राजनेताओं और आला अधिकारियों के बच्चों के लिए बढ़िया से बढ़िया स्कूल हैं और आम नागरिकों के लिए इतने रद्दी कि गरीब से गरीब लोग कोशिश करते हैं अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने की।
हमारे शासकों के बच्चे बीमार पड़ते हैं तो उनके लिए एक स्तर की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं और आम भारतीयों के लिए ये सेवाएं इतनी बेकार हैं कि अनुमान लगाया जाता है कि अस्सी फीसद भारतवासी प्राइवेट में इलाज करवाने पर मजबूर हैं। पिछले बीस वर्षों में प्राइवेट स्कूल और अस्पताल भारत में इतने अच्छे बन गए हैं कि हमारे शासक भी इनका इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जब बेटा या बेटी को कॉलेज भेजने का समय आता है, तो आला विदेशी विश्वविद्यालों में भेजने के लिए मालूम नहीं कहां से इनके पास पैसे आ जाते हैं। सो, भारत के विश्वविद्यालों में दशकों से कोई परिवर्तन नहीं आया है।
मुझे विश्वास है कि नरेंद्र मोदी को 2014 में पूर्ण बहुमत इस देश के मतदाताओं ने इस उम्मीद से दिया कि परिवर्तन और विकास इन आम सेवाओं में वे अवश्य लाएंगे। यह मैं इस आधार पर कहती हूं कि उस चुनाव अभियान के दौरान मैं जहां भी गई, मुझे ऐसे लोग मिले, जिन्होंने कहा कि वे तंग आ चुके थे ऐसी आम सेवाओं से, जो न होने के बराबर थीं। गांव में जब जाती थी तो मुझे सरकारी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र दिखाते थे लोग, जिनमें न अध्यापक थे न डॉक्टर। इनके बगल में अक्सर होते हैं प्राइवेट स्कूल और अस्पताल, जो छोटे भी हों, पर पढ़ाई और इलाज उपलब्ध तो करा देते हैं।
नरेंद्र मोदीसे बहुत उम्मीदें थीं कि इन आम सेवाओं में कम से कम उन राज्यों में परिवर्तन दिखने लगेगा, जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। पर ऐसा अभी तक नहीं हुआ है और इसको मोदी की सबसे बड़ी नाकामी मान सकते हैं हम, क्योंकि इन बुनियादी चीजों में जब तक फर्क नहीं आता, तब तक कहीं और भी नहीं आ सकता है। ओलंपिक में भाग लेने जिन खिलाड़ियों को हमने भेजा इस बार, उनमें कई ऐसे हैं, जो देहातों और छोटे शहरों में रहते हैं, जहां पीने का साफ पानी भी मुश्किल से मिलता है। जिन स्कूलों में इन्होंने पढ़ाई की है, वे इतने छोटे हैं कि वहां खेल का मैदान भी नहीं है, तो क्यों बुरा लगता है हमें जब ये ऐसे लोगों से हार कर आते हैं, जिनके देशों में ऐसी चीजों का कोई अभाव नहीं होता?
ओलंपिक में जो देश सबसे आगे रहते हैं पदक लेने में, वे या तो विकसित पश्चिमी देश होते हैं, जहां हर तरह की सुविधाएं मिलती हैं खिलाड़ियों को या चीन और रूस जैसे मार्क्सवादी देश, जहां जीतना वहां के शासक इज्जत का सवाल बना लेते हैं। छोटी उम्र में ही उन बच्चों का प्रशिक्षण शुरू हो जाता है, जिनमें हुनर किसी खेल में दिखता है। इन देशों में तो कई बार इन बच्चों को उनके माता-पिता से छीन कर किसी सरकारी संस्था में रखा जाता है, ताकि उनके प्रशिक्षण में किसी किस्म की बाधा न आ सके। इधर हमारा भारतवर्ष है, जो कहीं बीच में लटका रह गया है। इस बार ओलंपिक में हमने खिलाड़ियों की बड़ी जमात भेजी थी, वरना ऐसे भी साल रहे हैं जहां अधिकारी ज्यादा और खिलाड़ी कम जाया करते थे।
इस गलत प्रथा को तो रोक दिया गया है, लेकिन अभी तक मोदी सरकार की तरफ से मानव संसाधन विकास के क्षेत्र में कोई ठोस पहल नहीं नजर आई है। प्रधानमंत्री शायद अभी तक समझे नहीं हैं कि इस क्षेत्र में परिवर्तन जब तक नहीं आएगा किसी और क्षेत्र में परिवर्तन लाना असंभव है। विदेशों में वे कई बार कह चुके हैं गर्व से कि भारत की आधी आबादी नौजवानों की है और यही हमारा सबसे बड़ा भंडार है। बूढ़ी होती दुनिया में यह वास्तव में एक अनमोल देन है, लेकिन जब तक इस देश के नौजवानों को हम बेहतरीन शिक्षा और प्रशिक्षण देने के काबिल नहीं होंगे तब तक हमारा यह भंडार किसी के काम नहीं आ सकेगा। सो, प्रधानमंत्रीजी इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा जरूरत है परिवर्तन और विकास की।