ओड़िशा के जाजपुर जिले के एक छोटे-से आदिवासी बहुल गांव में इस साल मार्च से जून के बीच कुपोषण से बारह बच्चों की मौत हो गई। पौने तीन सौ की आबादी वाले इस गांव में पांच से बारह साल के तिरासी बच्चों में एक तिहाई से ज्यादा का कुपोषित होना एक बड़े खतरे की तरफ संकेत करता है। यह तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है। असल स्थिति क्या है, इसका अंदाजा पिछले साल वैश्विक स्तर पर किए गए अध्ययन में भारतीय संदर्भ में दी गई जानकारी से लगाया जा सकता है। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 19 करोड़ 46 लाख लोग कुपोषित हैं। वजह भले ही ज्यादा आबादी हो, लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषित लोगों का देश होने का तमगा तो भारत के नाम लग ही गया है।
दुनिया के हर चार कुपोषित लोगों में एक भारतीय है। 1990-92 में चीन कुपोषित लोगों की संख्या के मामले में दुनिया में पहले नंबर पर था। तब वहां 28 करोड़ 90 लाख जनसंख्या कुपोषित थी; जो कि अब घट कर 13 करोड़ 38 लाख रह गई है। इस अरसे में भारत में 1 करोड़ 55 लाख आबादी को ही कुपोषण से मुक्ति मिल पाई। जबकि 1990-90 की तुलना में 2015 में दुनिया भर में कुपोषित लोगों की संख्या में 21 करोड़ 60 लाख की कमी आई। 1990-92 में दुनिया में सौ करोड़ से ज्यादा लोग कुपोषित थे। अब उनकी संख्या 79 करोड़ 50 लाख है। यानी दुनिया में हर नौ में से एक व्यक्ति आज भी कुपोषित है।
संयुक्त राष्ट्र की ‘स्टेट आॅफ फूड सिक्यूरिटी इन द वर्ल्ड-2015′ शीर्षक रिपोर्ट के मुताबिक भारत दो मोर्चों पर पूरी तरह नाकाम रहा है। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य तो वह पा ही नहीं सका, 1996 में विश्व खाद्य सम्मेलन में किए गए संकल्पों को भी पूरा नहीं कर पाया। तब सम्मेलन में शामिल देशों ने 2015 तक कुपोषित आबादी को आधा करने की प्रतिबद्धता जताई थी। रिपोर्ट में जिन 172 देशों में स्थिति का जायजा लिया गया उनमें से उनतीस ने ही संकल्प पूरा किया। इन उनतीस देशों में पड़ोसी नेपाल और बांग्लादेश भी हैं। बांग्लादेश ने राष्ट्रीय खाद्य नीति के जरिए सहस्राब्दी विकास लक्ष्य पा लिया। नेपाल ने तो लक्ष्य भी पाया और आधी से ज्यादा कुपोषित आबादी को कुपोषण से मुक्त भी कराया। उसका अगला लक्ष्य कुपोषित लोगों की संख्या को पांच फीसद से नीचे लाने का है। जबकि भारत में कुपोषित लोगों की संख्या कुल आबादी में पंद्रह फीसद से ज्यादा है।
विकासशील देशों में 1990 में 99 करोड़ 10 लाख लोग कुपोषित थे। यह उन देशों की कुल आबादी के 23.3 फीसद के बराबर था। अब इनकी संख्या 78 करोड़ है और आबादी में उनका अनुपात 12.9 फीसद रह गया है। रिपोर्ट का मानना है कि आज भी दुनिया में करीब अस्सी करोड़ लोगों को भरपेट खाना नसीब नहीं है। पर पिछले पच्चीस सालों में इस खाई को पाटने में अच्छी सफलता मिली है। बहत्तर देशों ने अपने यहां कुपोषित लोगों की संख्या आधी करने का सहस्राब्दी विकास लक्ष्य पा लिया है। विकासशील देश लक्ष्य से मामूली पीछे रह गए हैं। लेकिन भारतमें सुधार की धीमी गति का असर दक्षिण एशिया की स्थिति पर पड़ा है। 1990 में इस क्षेत्र में 29 करोड़ 10 लाख लोग कुपोषित थे। पिछले पच्चीस वर्षों में इसमें सिर्फ एक करोड़ की कमी आ पाई।
बहरहाल, भारत की बात करें तो कुपोषण के मोर्चे पर अपेक्षित सफलता न मिल पाने का सबसे बड़ा कारण है कि सालों से रुपए-पैसे से गरीबी-अमीरी नापने का तमाशा चल रहा है। गरीबी हटाने और सबको भोजन उपलब्ध कराने के मुद््दों पर राजनीति तो खूब होती रही है और सरकारी आंकड़ों में गरीब भी कम होते रहे हैं, लेकिन असलियत क्या है इसका खुलासा भी संयुक्त राष्ट्र की सहस्राब्दी वैश्विक रिपोर्ट से हो जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के बेहद गरीब एक सौ बीस करोड़ लोगों में से सबसे ज्यादा 32.9 फीसद यानी करीब एक तिहाई भारत में हैं। 2012 में पांच साल की उम्र तक पहुंचने से पहले भारत में चौदह लाख बच्चों की मौत हो गई। यह संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है और इसकी एक बड़ी वजह कुपोषण है। दक्षिण एशिया में 1990 में गरीबों की संख्या 51 फीसद थी जो दो दशक में घट तक तीस फीसद पर आ गई।
भारत में गरीबी उन्मूलन की रफ्तार काफी धीमी रही है। 1994 में 49.4 फीसद गरीब 2005 में 42 फीसद पर और 2010 में 32.7 फीसद पर ही आ पाए। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि रोजाना एक डॉलर से कम कमाने वाले गरीब सबसे ज्यादा भारत में हैं। योजना आयोग का 2012 में आकलन था कि 2004-05 में देश में 37.2 फीसद गरीब थे जो 2009-10 में 7.3 फीसद घट कर 29.8 फीसद रह गए। योजना आयोग की मानें तो पांच साल में करीब पांच करोड़ गरीबों की गरीबी कम हो गई। 2004-05 में देश में 40 करोड़ 70 लाख गरीब थे, जो 2009-10 में 35 करोड़ 50 लाख रह गए। उस आलोच्य अवधि में तो योजना आयोग ने गांवों तक में गरीबी घटने का दावा किया।
आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2004-05 में गांवों में 41.8 फीसद लोग गरीब थे जो पांच साल बाद आठ फीसद घट कर 33.8 फीसद रह गए। शहरों में गरीबों की संख्या इसी दौरान 4.8 फीसद घट कर कुल शहरी आबादी की 20.9 फीसद रह गई। हालांकि असलियत यह है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की दशा सुधरने के बजाय बिगड़ी ही है। अकेले बिहार और उत्तर प्रदेश में 12 करोड़ 80 लाख गरीब हैं जो देश के कुल गरीबों का एक तिहाई और दुनिया के गरीबों का दसवां हिस्सा है।
यूपीए सरकार के दोनों कार्यकाल में आंकड़ों के बल पर बार-बार यह दावा किया गया कि कुपोषण घट रहा है। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही रही। 2012 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की 66वीं अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया कि दो तिहाई लोग पोषण के सामान्य मानक से कम खुराक ले पा रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह सीधे-सीधे तेजी से बढ़ रही गरीबी की वजह से भुखमरी और कुपोषण का संकेत है। पोषण का आधार तय होता है लिए गए भोजन में कैलोरी की मात्रा से।2004-2005से 2009-2010 के बीच, यानी योजना आयोग ने जिस दौरान गरीबों की संख्या कम होने का दावा किया, ग्रामीण इलाकों में प्रतिव्यक्ति कैलोरी की दैनिक खपत 2047 से घट कर 2020 और शहरी इलाकों में 2020 से घट कर 1946 रह गई।
एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिव्यक्ति प्रोटीन की खपत भी कम होती जा रही है। 1993-94 में ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिव्यक्ति 60.2 ग्राम दैनिक थी जो 2009-2010 में घट कर 55 ग्राम रह गई। शहरी इलाकों में प्रोटीन की दैनिक खपत प्रतिव्यक्ति 1993-94 में 57.2 ग्राम थी जो 2009-2010 में 53.5 ग्राम रह गई। कनाडा के गैरसरकारी संगठन ‘माइक्रो न्यूट्रिएट इनीशिएटिव’ के अध्यक्ष एमटी वेंकटेश मन्नार ने ‘मातृत्व और बाल कुपोषण’ पर 2014 में जारी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कम वजन के बच्चों और कुपोषित आबादी का चालीस फीसद से ज्यादा हिस्सा भारत में है। बच्चों में बाधित विकास, कम वजन और खून की कमी के मामले सबसे ज्यादा हैं। यूपीए सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में आपाधापी में अध्यादेश के जरिए खाद्य सुरक्षा बिल लाकर अपनी पीठ जरूर थपथपाई थी लेकिन एक तरह से उसने स्वीकार कर लिया था कि देश की 67 फीसद आबादी की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह पेट भरने के लिए बाजार से अनाज खरीद सके।
रजिस्ट्रार जनरल आॅफ इंडिया के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में 1998 में जो औसत उम्र थी उसमें 2008 में पुरुषों के मामले में चार से छह साल और महिलाओं के मामले में तीन साल की वृद्धि हुई। भारत समेत छह विकासशील देशों में किए गए अध्ययन का निचोड़ यह निकला कि पचास साल से ज्यादा उम्र के 87.9 फीसद पुरुषों व 93.5 फीसद महिलाओं को पर्याप्त पोषक आहार नहीं मिलता जो उनकी शारीरिक व्याधियां बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण है। हर चार में से एक यानी पच्चीस फीसद बुजुर्ग अवसाद के शिकार हैं।
योजना आयोग के आंकड़े ही बताते हैं कि हर तीन में से एक बुजुर्ग आर्थराइटिस का शिकार है और हर पांचवां बुजुर्ग सुनने की क्षमता खो चुका है। ग्रामीण इलाकों में हर तीन में से एक और शहरी इलाकों में हर दो में से एक बुजुर्ग उच्च रक्तचाप का शिकार है। करीब आधों की आंखों की रोशनी खराब है। दस में से एक बुजुर्ग किसी न किसी हादसे की वजह से फ्रैक्चर का शिकार हो चुका है। साठ साल से ज्यादा उम्र के चालीस फीसद लोगों को अनिद्रा की शिकायत रहती है। गांवों में ऐसे दस फीसद और शहरों में चालीस फीसद लोग डायबिटीज के शिकार हैं। तीस फीसद से ज्यादा आंतों की बीमारियों से ग्रस्त हैं। कुपोषण का खतरा बुजुर्गों के सामने भी मुंह बाए खड़ा है। विकसित देशों में ही नहीं, भारत में भी औसत आयु बढ़ रही है। इसी के साथ एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है कि बढ़ती उम्र के साथ उभरने वाली समस्याओं का समाधान कैसे होगा?