सात दिन के भीतर दवा का रिएक्शन हुआ तो मिलेगा मुआवजा

भोपाल, मो. फैजान खान। ड्रग ट्रायल के 7 दिन के भीतर दवा का दुष्प्रभाव (रिएक्शन) सामने आया तो संबंधित कंपनी को मरीज को मुआवजा देना होगा। यह प्रावधान इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च(आईसीएमआर) द्वारा क्लीनिकल ट्रायल के लिए तैयार किए गए एथिक्स गाइडलाइन 2016 के मसौद में किया गया है। इस ड्राफ्ट पर 15 सितम्बर तक आईसीएमआर ने सुझाव और आपत्तियां मांगी हैं। उधर, इस प्रावधान का विरोध भी शुरू हो गया है।

‘नेशनल एथिकल गाइडलाइन फॉर बायोमेडिकल एंड हेल्थ रिसर्च इन्वाल्विंग ह्यूमन पार्टीसिपेशन 2016’ नाम से जारी किए गए इस ड्राफ्ट में कहा गया है कि रिसर्च करने वाले इन्वेस्टीगेटर की जिम्मेदारी रहेगी कि वह रिसर्च समाप्त होने के 7 दिन के अंदर अगर किसी मरीज पर दुष्प्रभाव सामने आते हैं, तो उनकी जानकारी एथिकल कमेटी को दे। रिसर्च में शामिल व्यक्ति की मौत होने पर 24 घंटे के अंदर कमेटी को जानकारी दी जाएगी। ट्रायल के कारण दुस्प्रभाव पाए जाने पर कमेटी मुआवजे की राशि तय करेगी।

विरोध… सिर्फ सात दिन की बाध्यता क्यों

सुप्रीम कोर्ट में क्लीनिक ट्रायल के खिलाफ याचिका लगाने वाले स्वास्थ्य अधिकार मंच के प्रतिनिधि अमूल्य निधि का कहना है कि आईसीएमआर की नई गाइडलाइन में मरीजों के हितों की रक्षा करने के बजाय उनके अधिकार सीमित किए जा रहे हैं। आखिर इंवेस्टीगेटर पर सिर्फ 7 दिन के अंदर होने वाले दुष्प्रभाव की जानकारी देना ही क्यों अनिवार्य किया गया है।

अगर 7 दिन के बाद मरीज पर ट्रायल की गई दवा या वैक्सीन के दुष्प्रभाव सामने आते हैं,तो पीड़ित मुआवजे से वंचित हो जाएगा। अमूल्य निधि ने बताया कि वह इस मामले में अपनी आपत्ति दर्ज कराएंगे। जरूरत पड़ने पर सुप्रीम कोर्ट को भी इस मामले से अवगत कराया जाएगा।

यह हैं मुख्य प्रावधान

जोखिम बताएं- अगर रिसर्च में महिला शामिल है, तो उसे बताएं कि ट्रायल का असर प्रेग्नेंसी पर पड़ सकता है।

फायदा- इस प्रकार की रिसर्च से प्रेग्नेंसी के दौरान एचआईवी इंफेक्शन बच्चों में जाने को रोकने की कारगर दवाईयां बन सकती हैं।

असर- रिसर्च के दौरान महिलाओं को जोखिम कम होगा।

समलैंगिकों का प्रतिनिधित्व- समलैंगिकों से जुड़े मामलों पर रिसर्च के दौरान एथिकल कमेटी में समलैंगिक समुदाय से एक प्रतिनिधि को शामिल करना जरूरी।

फायदा- समलैंगिक समुदाय में विश्वास बढ़ेगा,जिससे उनसे जुड़ी बीमारियों पर रिसर्च हो सकेगी।

असर- एचआईवी और अन्य सैक्सुअल ट्रांसमीटिड डिसीज की दवाईयां बन सकेंगी।

माता-पिता की सहमति जरूरी- बच्चों पर ट्रायल के दौरान माता-पिता की लिखित अनुमति लेना अनिवार्य होगा।

फायदा- ट्रायल में बच्चों का शोषण रूकेगा।

असर- बच्चों की बीमारियों की नई दवाईयां आ सकेंगी।

समुदाय की भागीदारी-क्लीनिकल और ड्रग ट्रायल में कम्यूनिटी की भागीदारी तय की गई है।

फायदा- आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय को रिसर्च में शामिल करना आसान होगा।

असर- व्यक्तिगत अधिकार दब जाएंगे। इसका विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

रिसर्च कराने वाले संस्थान से नहीं होगा अध्यक्ष- क्लीनिक ट्रायल की मंजूरी एथिक्स कमेटी से ली जाएगी। एथिक्स कमेटी में 7 से 15 सदस्य होंगे। इसका अध्यक्ष उस संस्थान से नहीं होगा,जिससंस्थान में क्लीनिक रिसर्च की जाना है।

फायदा- हितों का टकराव नहीं होगा। कमेटी ईमानदारी से काम करेगी।

असर- एथिकल कमेटी ज्यादा प्रभावशील ढंग से काम कर पाएगी।

सहमति की होगी वीडियो रिकार्डिंग

गाइडलाइन ड्राफ्ट के अनुसार क्लीनिक ट्रायल में शामिल किए जाने वाले व्यक्ति से लिखित सहमति ली जाएगी। सहमति देते समय उसकी वीडिया रिकार्डिंग की जाएगी। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट भी सहमति को रिकार्ड करने के आदेश दे चुका है।

2006 में भी आई थी गाइडलाइन

आईसीएमआर ने इससे पहले 2006 में एथिक्स गाइडलाइन ड्राफ्ट जारी किया था। उसके बाद 10 साल तक यह ड्राफ्ट ही रहा। इस दौरान भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल और इंदौर के मेडिकल कालेज में अनैतिक ढंग से ड्रग ट्रायल होती रहीं। इसमें सैंकड़ों लोगों को दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ा। कई लोगों को अपनी जान गंवाना पड़ी।

 

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