आखिर यह विधेयक है क्या? वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) वास्तव में माल व सेवाओं के उत्पादन, विक्रय व खपत पर लगने वाला एक व्यापक अप्रत्यक्ष कर होगा, जो केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले करों की जगह लेगा। माना जा रहा है कि देश में अप्रत्यक्ष कराधान में सुधार की दिशा में यह एक अहम कदम है। अब देशभर में विभिन्न् तरह के केंद्रीय व राज्यस्तरीय करों की जगह जीएसटी के रूप में एक एकीकृत कर अस्तित्व में आ जाएगा। उम्मीद है कि इस एकरूपता से कर संबंधी विषमताएं व बीच के कई अवरोध खत्म हो जाएंगे जिससे कुछ राज्य निवेश आकर्षित करने के लिहाज से अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी बन सकेंगे। इससे एक प्रांत से दूसरे प्रांत में माल की आवाजाही भी सुगम बनेगी और उनके बीच कीमतों का अंतर भी खत्म होगा।
इस तरह जीएसटी एक समरूप राष्ट्रीय बाजार का निर्माण करेगा। कई लोग इसे देश को एक सूत्र में जोड़ने के रूप में भी देखते हैं। हालांकि यह अवधारणा थोड़ी अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती है, क्योंकि यहां अमेरिका जैसी अर्थव्यवस्थाएं भी हैं, जो अति-विशिष्टतावादी राज्य कानूनों के जरिए बंटी हुई हैं और फिर भी अलग-अलग रूप से आगे बढ़ते हुए समृद्ध हो रही हैं।
वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कर प्रणाली वस्तुओं या सेवाओं के उत्पादन से जुड़े उत्पादकों का जीवन आसान बना देगी। जीएसटी हिसाब-किताब की पुस्तकों से जुड़े व्यर्थ के जटिल रिकॉर्ड को भी खत्म कर देगा। कर की सरलता से इसका प्रशासन व अनुपालन भी आसान होगा। इससे ज्यादातर मध्यवर्ती कर खत्म हो जाएंगे और कर अपवंचन को छुपाने के लिए लेखा-पुस्तिकाओं में जो हेरफेर करना पड़ता है, उससे भी बचाव होगा। इस तरह सही मायनों में जीएसटी एक सुधारात्मक कदम साबित होगा। उम्मीद है कि बार-बार के करों से मुक्ति मिलने से उपभोक्ताओं को भी सहूलियत होगी। हालांकि कुछ उपभोक्ताओं की राय जुदा भी हो सकती है, चूंकि किसी चीज के खरीदने पर उनके लिए ब्रिकी-कर से बचने की गुंजाइश भी काफी हद तक घट जाएगी।
बहरहाल, इसके जो भी नफे-नुकसान हों, लेकिन भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक के साथ-साथ इस बिल पर मोदी सरकार द्वारा जोर देने से साफ है कि वह सुधारों के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ना चाहती है। हम ना भूलें कि भाजपा ने जीएसटी को अपने विधेयक की तरह अपनाया, जबकि वह इसका सालों तक विरोध करते हुए अपनी पार्टी द्वारा शासित राज्यों के विशेष हितों व अधिकारों के लिए लड़ती रही है। वह वर्ष 2007 से पिछली सरकारों के प्रयासों को रोकती रही और यह साफ था कि कांग्रेस भी जैसे को तैसा की नीति अपनाते हुए उसकी राहमें इसीलिए बाधक बनती रही ताकि वह यह साबित कर सके कि एनडीए सरकार सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं।
बहरहाल, जब भी किसी नई नीति को बहुत जरूरी बताते हुए लाने की बातहोती है तो समझा यही जाता है कि मानो यह कोई जादू की छड़ी हो, जिससे हमारी कई समस्याएं दूर हो जाएंगी। ज्यादातर मौकों पर ऐसा इसलिए भी जताया जाता है क्योंकि इसके जरिए दूसरे लोग किसी ऐसे इंजन की ताक में रहते हैं, जिसके पीछे वे भी अपने डिब्बे जोड़ सकें। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तो कैप्टन अमरिंदर सिंह (जो उस वक्त पंजाब से नए-नए चुनकर संसद में आए थे ) ने भारत में पेप्सी कोला की एंट्री के लिए लॉबिंग की। तर्क यह था कि यहां पेप्सी की बॉटलिंग होने से हजारों लोगों को रोजगार मिलेगा और जबर्दस्त कर राजस्व भी आएगा। अमरिंदर ने आगे तर्क दिया कि पेप्सी कंपनी का यह वादा कि वह अपने पित्जा आउटलेट्स में टोमेटो केचप सप्लाई की खातिर संसाधन पंजाब से जुटाएगी, जिससे इस आतंकवाद से ग्रस्त राज्य में टमाटर व मिर्च की खेती को काफी बढ़ावा मिलेगा और यहां पर खाद्य उत्पादन व प्रसंस्करण की नई तकनीकें भी आएंगी।
पेप्सी आई और इसके बाद कोक कंपनी ने भी यहां आमद दर्ज कराई, जिनके उत्पादों के विज्ञापन के जरिए अमिताभ,आमिर, शाहरुख, सचिन और धोनी जैसे सितारों ने तो खूब धन कमाया लेकिन पंजाब के किसानों की उम्मीदें धरी की धरी रह गईं। इसके बाद केएफसी और मैक्डोनल्ड आए। फिर आगे चलकर बीमा, रिटेल व रीयल एस्टेट जैसे सेक्टरों में विदेशी निवेश आया। इसके बाद अमेरिका से असैन्य परमाणु करार भी हुआ। हालांकि इन सबसे कोई बहुत बड़ा बदलाव नजर नहीं आया।
असैन्य परमाणु विधेयक पारित जरूर हुआ, लेकिन तकरीबन एक दशक बाद भी निवेश के रूप में एक पैसा भी नहीं आया। लेकिन इससे कोई आसमान नहीं टूट पड़ा और हमने विद्युत की मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर काफी हद तक पाट लिया है। दरअसल एक विशाल युवा देश का आगे बढ़ना किसी बड़ी नदी के तीव्र प्रवाह की तरह है, जो अवरोधों के ऊपर से निकल जाती है या फिर इन्हें अपने साथ बहा ले जाती है। भारत अपनी रफ्तार से आगे बढ़ता है। यह रफ्तार बढ़ रही है और बढ़ती रहेगी, राजनेताओं के बावजूद। भारत की सबसे अनूठी बात यह है कि यहां चीन जैसे मुल्कों से इतर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से चीजें संचालित होती हैं।
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)