समय के साथ बदले कानून– कृष्णप्रताप सिंह

आपको याद होगा, 2012 में राजधानी दिल्ली के वसंत विहार इलाके में घटित निर्भया कांड के बाद तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने बलात्कारियों को सजा दिलाने वाले कानून को सख्त बनाया था। लेकिन दुर्भाग्य से इस कानून के लागू होने के बावजूद न बलात्कार घटे हैं, न पीड़िताओं की नियति बदली है। आंकड़े बता रहे हैं कि देश की राजधानी दिल्ली में हर रोज छह की औसत से बलात्कार हो रहे हैं। शाहबाद इलाके की चार साल की एक मासूम बच्ची 28 साल के नराधम की शिकार होकर अस्पताल में मौत से लड़ रही है, जबकि इससे पूर्व रविवार को राजधानी की ही चौदह साल की वह युवती दम तोड़ चुकी है, जिसे उससे गैंगरेप करने वालों ने जूस में मिलाकर एसिड पिला दिया था। इन मामलों की संसद तक में गूंज के बावजूद पीड़िताओं की कराहों की अनसुनी का सरकारी खेल और उससे जुड़ी राजनीति जस की तस है।

बलात्कार के दंशों को जीवन भर सहने को अभिशप्त पीड़िताओं की तकलीफों को समग्रता में समझना हो तो उस पीड़िता के मामले पर भी गौर करना चाहिए, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने दुष्कर्मी पूर्व मंगेतर की करतूत के फलस्वरूप चौबीस हफ्तों से उसके पेट में पल रहे भ्रूण को गिराने की इजाजत दे दी। मेडिकल बोर्ड की जांच के मुताबिक इस भ्रूण के पलते रहने से पीड़िता की जान को खतरा था। इसलिए उसने न्यायालय से याचना की थी कि 1971 के मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिग्नेंसी एक्ट की धारा 3(दो)बी को रद‍्द कर दिया जाये, जो किसी भी हालत में बीस हफ्तों से ज्यादा का गर्भ गिराने से रोकती है। उसका तर्क था कि उक्त धारा बदलते वक्त के साथ अतार्किक, कठोर और जीवन व समानता के अधिकार के विरुद्ध हो चली है और संविधान के अनुच्छेद 14 व 21 का उल्लंघन भी करती है।

न्यायालय पीड़िता की यह मांग स्वीकार कर इस धारा को रद्द कर देता तो उसे स्वतः गर्भपात की इजाजत मिल जाती। लेकिन न्यायालय ने ऐसा न करके बीच का रास्ता चुन लिया। सम्बन्धित कानून की परस्पर विरोधी धाराओं तीन व पांच और पीड़िता के जीवन के खतरे के मद्देनजर अपवादस्वरूप गर्भपात की छूट दे दी और कह दिया कि धारा तीन की संवैधानिक वैधता पर वह खंडपीठ अलग विचार करती रहेगी, जो पहले से ही एक ऐसी याचिका पर विचार कर रही है।

भले ही यह छूट अपवाद स्वरूप हो और इसे नियम न माना जाये, चूंकि सर्वोच्च न्यायालय पहले कई मामलों में वयस्क व अवयस्क पीड़िताओं को लम्बी अवधि के गर्भ गिराने की अनुमति देने से इनकार कर चुका है, इसलिए पीड़िता के संदर्भ में इसे राहत के तौर पर ही देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह छूट गत वर्ष 31 जुलाई के अपने उस फैसले के आलोक में दी है, जिससे अहमदाबाद की पीड़िता को 25 सप्ताह के गर्भ से निजात मिली थी।

लेकिन दूसरे पहलू पर जायें तो सवाल उठता है कि इक्कीसवीं सदी के सोलहवें साल में भी बलात्कारी पुरुष व पितृसत्ता दोनों से त्रस्त किसी स्त्री का अपने शरीर पर इतना भी कानूनी अधिकार नहीं कि उसकीजान पर आ बने तो वह अपने भीतर पल रहे भ्रूण से छुटकारा पाने के स्वैच्छिक उपाय कर सके? इसके लिए भी उसे देश की सबसे बड़ी अदालत तक जाकर कानूनी लड़ाई में उलझना और तमाम सामाजिक, धार्मिक व पारिवारिक नैतिकताओं का एकतरफा बोझ उठाना पड़ता है। उन पुरानी नैतिकताओं का भी, जिन्हें गर्भपात की कानूनी मान्यता तक गवारा नहीं। मामले की सुनवाई के दौरान एटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने जिस तरह पीड़िता को छूट के पक्ष में दलीलें देते हुए कहा कि ‘बाकी चीजें बाद में तय की जाती रहेंगी’, उससे लगता नहीं कि केन्द्र सरकार को भी पीड़िताओं की यह बेचारगी खत्म करने की कोई जल्दी है। इस तथ्य के बावजूद कि देश में गर्भवतियों की मौत का तीसरा बड़ा कारण ऐसे असुरक्षित गर्भपात हैं जो इजाजत न मिलने पर चोरी-छुपे अप्रशिक्षित हाथों से कराये जाते हैं। इतना ही नहीं, 2008 में मुम्बई हाईकोर्ट ने एक पीड़िता के 24 हफ्ते के गर्भ के समापन की इजाजत नहीं दी और कुछ ही दिनों बाद उसका गर्भपात हो गया तो सम्बन्धित कानून की विसंगतियों की चर्चा हुई।

क्या ही अच्छा होता कि जब मनमोहन सिंह सरकार बलात्कार के खिलाफ कानून कड़ा कर रही थी, तभी बलात्कार के फलस्वरूप आये गर्भ के समापन की बाबत पीड़िता को वांछित कानूनी सुरक्षा के प्रावधानों से लैस कर देती। लेकिन हमारी सरकारें आग लगने पर ही कुएं खोदती हैं और सो भी ठीक से नहीं खोदतीं। क्या आश्चर्य कि नरेन्द्र मोदी सरकार भी उसी राह पर चल निकली है। वह अनेक पुराने कानूनों को खत्म करने की पक्षधर तो है लेकिन 1971 के गर्भपात कानून को समकालीन जरूरतों के मुताबिक बनाने की जरूरत की ओर उसका ध्यान नहीं जा रहा।

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