बहरहाल, इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज विदेश में फंसे भारतीयों के लिए सोशल मीडिया के जरिए संकट मोचक साबित हुई हैं, जिसे सरकार और विपक्ष समेत देश का अवाम भी स्वीकार करता है। उन्होंने बीते 9 जून को जूडिथ डिसूजा की सकुशल भारत वापसी कराई, जिसे अफगानिस्तान में अगवा कर लिया गया था। नाईजीरिया में अपहृत साई श्रीनिवास और अनीश शर्मा को भारतीय दूतावास की मदद से सकुशल छुड़ा लिया गया। दक्षिण सूडान में गृहयुद्ध के हालात के बीच फंसे भारतीयों को ‘ऑपरेशन संकटमोचन"के तहत दो विमानों से एयरलिफ्ट कर सकुशल वतन वापस लाया गया। इससे पहले यमन में फंसे भारतीयों व इराक में फंसी नर्सों की सकुशल भारत वापसी कराई गई थी। अब सऊदी अरब में फंसे भारतीयों को निकालने की कार्रवाई लगभग शुरू हो गई है। इस स्थिति में सरकार और विदेश मंत्री की सक्रियता और संवेदना पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। लेकिन सऊदी अरब में जिस प्रकार के हालात बन रहे थे, उनका आकलन शायद सही से नहीं हो पाया, जिससे वहां रह रहे भारतीयों को समय रहते सचेत किया जा सकता था। नतीजा यह हुआ कि वे सऊदी अरब की गिरती आर्थिक स्थिति के जाल में उलझते चले गए और अब वे स्पांसरों, एजेंटों और कंपनियों के बंधक बनकर सऊदी अरब में भूखों मरने के लिए विवश हैं।
दरअसल, सऊदी अरब में फंसे प्रवासी कामगारों के लिए सबसे ज्यादा दिक्कत काफला प्रणाली ने पैदा की। इसमें यह व्यवस्था है कि प्रवासियों को किसी व्यक्ति द्वारा स्पांसर किया जाता है। इस स्थिति में प्रवासी मजदूर का पासपोर्ट, यहां तक कि वेतन भी उस प्रायोजक (कफील) के पास जमा रहता है। फलत: मजदूरस्पांसर करने वाले व्यक्ति को छोड़ नहीं पाता। इसका फायदा उठाते हुए कफील मजदूर को जाने नहीं देता। इसी व्यवस्था के तहत भारतीय मजदूर वहां निर्माण, सप्लाई चेन, कारपेंटर, पेंटर, रसोइया, धोबी, खेतों में मजदूरी या फिर कुछ टेक्निकल कार्यों में लगे हुए हैं। इस प्रकार से नियोजित मजदूरों की स्थिति अधिक खराब है, बाकी जो बड़ी कंपनियों में सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर, सिविल व मैकेनिकल इंजीनियर जैसे पदों पर कार्यरत हैं, उनकी स्थिति कुछ बेहतर है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सऊदी अरब, बहरीन, कुवैत, कतर, यूएई और ओमान जैसे खाड़ी देशों में तकरीबन 60 लाख भारतीय काम करते हैं।
दरअसल, ये स्थितियां सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था में आई गिरावट का नतीजा हैं। ऐसी सूचनाएं हैं कि वहां अधिकतर भारतीय जिन कंपनियों में कार्यरत हैं, उनकी वित्तीय हालत बिगड़ने के कारण कर्मचारियों को पिछले छह-आठ महीने से वेतन नहीं मिला है। वेतन न मिलने और वीजा समेत दूसरे कागज नियोक्ता या कफील के पास जमा होने के कारण ये भारतीय नागरिक स्वदेश भी नहीं लौट पा रहे। ध्यान रहे कि सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था तेल पर आधारित है और उसके राजस्व में करीब 70 से 80 प्रतिशत हिस्सेदारी तेल की रहती है। लेकिन पिछले कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की गिरती कीमतों ने सऊदी अर्थव्यवस्था को जबर्दस्त झटका दिया है। इसका असर निर्माण कंपनियों, रियल एस्टेट और सप्लाई चेन कारोबार पर पड़ा। स्वाभाविक है कि ये कंपनियां दबाव में आईं और अल-लादेन जैसी कंपनियों ने 50-50 हजार कर्मचारियों तक की छंटनी कर डाली। चूंकि इन कंपनियों की किसी न किसी रूप में कनेक्टिविटी छोटी कंपनियों से रहती है, इसलिए असर नीचे तक भी पहुंचा। हालांकि कुछ समय पूर्व ही सऊदी अरब के डिप्टी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने सऊदी ‘विजन 2030" जारी किया है, जिसके तहत इस किंगडम देश की अर्थव्यवस्था को तेल अर्थव्यवस्था से विनिर्माण अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने का विजन पेश किया गया है, ताकि देश की तेल पर निर्भरता कम हो सके। ब्लूप्रिंट के मुताबिक सऊदी अरब अपनी सबसे बड़ी तेल कंपनी अरामको के 5 फीसदी शेयर बेचकर पैसे जुटाएगा, साथ ही गैर-तेल राजस्व जुटाने पर ध्यान देगा। इसके साथ ही सऊदी अरब ने दुनिया के सबसे बड़े सॉवरिन वेल्थ फंड की स्थापना करने का भी निर्णय लिया है। यह निर्णय सरकारी संपत्तियों को होल्ड करने के लिए लिया गया है। किंतु इन सुधारों का असर काफी देर से दिख पाएगा और इसका लाभ प्रवासी मजदूरों को हासिल भी हो पाएगा, इसकी गारंटी नहीं है।
बहरहाल, सऊदी अरब में उपजे इस संकट के लिए उसकी नीतियां भी काफी हद तक दोषी हैं। सऊदी अरब जिस तरह से इस्लामी देशों के बीच मिलिट्री एलायंस का प्रयास कर रहा है और दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक बनने की ओर बढ़ रहा है, उससे खाड़ी देशों में नई शंकाओं एवं संघर्ष की स्थितियां बन रही हैं। ये हालात आने वाले समय में खाड़ी देशों की आर्थिक-राजनीतिक स्थिति के लिए अनुकूल नहीं होंगे। जाहिर है, इससे प्रवासी मजदूरों की स्थितियां और बदतर होंगी। हालांकि मजदूरों की समस्या केवल इन्हीं देशों में नहीं, बल्कि उनके अपने देशकेएजेंटों की संदिग्ध कार्यप्रणाली में भी निहित है, जो इनसे मोटी रकम लेकर, बड़े स्वप्न दिखाकर खाड़ी देशों में भेजते हैं। लेकिन वहां पहुंचने पर स्थितियां कुछ और होती हैं। ये कफील के बंधक बनने को विवश होते हैं। सरकार को इस स्तर पर भी कोई पहल करनी चाहिए।
(लेखक विदेशी मामलों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)