यहां सवाल यह उठता है कि ‘प्रदर्शन’ में किन बातों को शामिल किया जाएगा। क्या किसी दूरदराज के कॉलेज और महानगर में स्थित कॉलेज के लिए ‘प्रदर्शन’ के मानदंड एक ही होंगे? इस आधार पर तो सरकार देश के अधिकतर कॉलेजों को बंद कर देगी या ‘अपनी मौत मरने’ के लिए छोड़ देगी। चौथी रणनीति यह है कि नए उच्च शैक्षिक संस्थान नहीं खोले जाएंगे। दस्तावेज कहता है कि क्योंकि नए संस्थानों को खोलने में सरकार को भारी मात्रा में निवेश करना पड़ता है, इसलिए सरकार की प्राथमिकता होगी कि वह वर्तमान में चल रहे संस्थानों की क्षमता को बढ़ाए, न कि नए संस्थान खोलने में संसाधन लगाए। यदि सरकार नए संस्थान नहीं खोलेगी तो शिक्षा के लिए उठ रही मांग किस तरह पूरी होगी? स्पष्ट है कि इस मांग को पूरा करने के लिए शिक्षा को बाजार के हवाले किया जाएगा। शिक्षा का बाजारीकरण करना इस दस्तावेज का एक मुख्य स्वर है।
इस दस्तावेज में ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इसमें संविधान में दर्ज किन्हीं प्रावधानों का जिक्र तो है, लेकिन भारत में शिक्षा की पुनर्रचना करने के परिप्रेक्ष्य में संविधान को संदर्भ बिंदु नहीं बनाया गया है। इस दस्तावेज की एक राजनैतिक लाइन यह है कि इसमें समानता के बजाय समरसता पर बल दिया गया है। सवाल यह है कि संविधान में समानता पर बल है तो फिर दस्तावेज समरसता पर बल क्यों दे रहा है। अगर सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक यथास्थिति को बनाए रखना है तो समरसता का विचार महत्त्वपूर्ण हो जाता है। लेकिन यदि तमाम तरह के उत्पीड़नकारी सामाजिक ढांचों को मिटाना है तो समानता का विचार महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
क्या यह संभव है कि वर्ण व्यवस्था रहे और समरसता आ जाए? क्या यह संभव है कि आर्थिक संसाधनों पर कुछ लोगों का अलोकतांत्रिक नियंत्रण हो और समरसता आ जाए? क्या यह संभवहैकि पितृसत्तात्मक ढांचे बने रहें और समरसता आ जाए? यह एक खामखयाली तो हो सकती है, लेकिन तार्किक विचार नहीं हो सकता। सरकार समरसता पर जोर देकर विद्यार्थियों को किस तरह के कल के लिए तैयार कर रही है? क्या ऐसे कल के लिए, जहां वे जुल्मों का प्रतिकार करने का हौसला रखने के बजाय उनके साथ समरस होकर जीना सीख लें?
दस्तावेज में कहा गया है कि बाल मजदूरों और स्कूल छोड़ चुके बच्चे-बच्चियों की शिक्षा के लिए मुक्त विद्यालय की सुविधा का विस्तार किया जाएगा। इसका अर्थ यह है कि मुक्त विद्यालय की परिधि में प्राथमिक शिक्षा को भी शामिल किया जाएगा। अर्थात बच्चों और बच्चियों के स्कूल छोड़ने के कारणों का पता लगा कर उन्हें दूर नहीं किया जाएगा बल्कि उनके लिए मुक्त विद्यालय जैसी दोयम दर्जे की व्यवस्था करके स्कूल छोड़ने के कारणों को बना रहने दिया जाएगा। ऐसा करना बाजारवादी ‘कॉस्ट-इफेक्टिवनेस’ की संस्कृति के साथ मेल खाता है।
इस प्रकार यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति निर्माण के दस्तावेज के बजाय उस अंतरराष्ट्रीय पूंजी के उद््देश्यों की पूर्ति का दस्तावेज है जिसे सामूहिकता की भावना से प्रेरित संघर्षरत, शिक्षित नागरिक नहीं बल्कि मशीनी स्तर पर प्रशिक्षित, अर्ध-प्रशिक्षित, सस्ते श्रमिक चाहिए। इस पूरी कवायद में ‘गौरवमयी संस्कृति’ की दुहाई एक सहायक विचार की तरह काम करती है। क्योंकि इनसे देश के इतिहास से उपजे व वर्तमान में भी स्थित वर्ण-आधारित, वर्गीय व लैंेिगक असमानता और शोषण के प्रश्नों को दबाने का काम लिया जाएगा।
यह कोई हैरानी की बात नहीं कि इस दस्तावेज में समान स्कूल व्यवस्था तो दूर, पिछले साल आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले का जिक्र भी नहीं है जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार को यह आदेश दिया गया था कि न्यायाधीश व मंत्री से लेकर अधिकारी व कर्मचारी तक सरकार से किसी भी तरह का वेतन/मानदेय प्राप्त करने वाले सभी लोगों के बच्चे प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढेंÞ। दस्तावेज नवउदारवाद की जरूरतों के अनुरूप शिक्षा को बाजार में बिकने वाले ‘माल’ की संकल्पना के खिलाफ कोई योजना तो क्या चिंता तक व्यक्त नहीं करता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजार के विस्तार के लिए शिक्षा को पूंजी के एक नए फैलाव के साधन के तौर पर देखता है।
आज एक ओर देश के तमाम हिस्सों में सरकारी स्कूल-व्यवस्था व सार्वजनिक उच्च शिक्षा संस्थानों को शिक्षा के बाजार को खड़़ा करने के लिए सुनियोजित ढंग से बदहाली व बंदी के रास्ते पर धकेला जा रहा है, वहीं दूसरी ओर, निजी संस्थानों के संदर्भ में पहुंच, समानता, गुणवत्ता और सामाजिक न्याय को लेकर जनसामान्य का अनुभव घोर असंतोष व हताशा पैदा कर रहा है। बाजार के मूल चरित्र तथा विश्व-धरातल के ऐतिहासिक अनुभवों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थाओं से यह उम्मीद रखना कि वे मानवीय व संवैधानिक मूल्यों को साधने में सहायक होंगी, एक भ्रम पालना होगा। अफसोस है कि यह दस्तावेज इसी गलतफहमी से न सिर्फ स्वयं ग्रसित है बल्कि जनसामान्य में भी यही नासमझी प्रेषित कर रहा है।