विकास की धुंधलाती उम्मीद, विकास व परिवर्तन अभी भी सपना– तवलीन सिंह

ठीक दो हफ्ते बाद नरेंद्र मोदी लाल किले की प्राचीर से अपना तीसरा भाषण देंगे। इस ऐतिहासिक प्राचीर से जब उन्होंने पहला भाषण दिया था 2014 में, तो उनके शासनकाल की शुरुआत का समय था और यह कहना गलत न होगा कि परिवर्तन और विकास के सपने पर हर भारतीय को विश्वास था। कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों को छोड़ कर हम सबको यकीन था कि मोदी भारत को बदल कर दिखाएंगे। उस पंद्रह अगस्त को उन्होंने अपने भाषण में साफ इशारा किया कि उनको पूरा ध्यान है उन सामाजिक, राजनीतिक विफलताओं का, जो कांग्रेस पार्टी से उनको विरासत में मिली थी। उस भाषण में उन्होंने जिक्र किया उन चीजों का, जो गांधीजी के बाद हमारे किसी भी राजनेता ने नहीं किया है। याद दिलाया कि भारत को स्वच्छता की कितनी जरूरत है। साठ फीसद भारतीय आज भी खुले में शौच करते हैं, जिससे फैलती हैं ऐसी बीमारियों, जो खासतौर पर हमारे बच्चों पर असर करती हैं। भारत के लाखों बच्चे ऐसे हैं, जिनका कद छोटा रह जाता है इन बीमारियों के कारण। याद दिलाया कि भारत की बेटियों का कितना बुरा हाल है।

प्रधानमंत्री का यह भाषण इतना शक्तिशाली था कि देश में एक नई ऊर्जा फैल गई थी और स्वच्छ भारत अभियान में आम नागरिक लाखों की तादाद में जुड़ गए थे। बेटी बचाओ आंदोलन में भी ऐसे लोग हिस्सा लेने लगे, जिन्होंने हमेशा बेटी को सिर्फ एक बोझ के रूप में देखा था। इस ऊर्जा का अगर सही इस्तेमाल हुआ होता तो मुमकिन है कि आज भारत की शक्ल बदलने लगी होती। अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि इन महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का काम प्रधानमंत्री ने उन आला अधिकारियों के हाथों सौंपा, जिनको परिवर्तन शब्द से सख्त नफरत है।

सो, बिलकुल वैसे जैसे उन्होंने दशकों से राजनेताओं के अच्छे से अच्छे इरादे नाकाम किए हैं, वैसा ही हाल किया इन्होंने स्वच्छ भारत अभियान और बेटी बचाओ आंदोलन का। कागजों पर बहुत कुछ हुआ है, लेकिन जमीन पर तकरीबन कुछ भी नहीं। कहने को तो लाखों शौचालय बन गए हैं, बनारस के घाट साफ हो गए हैं, और होते भी हैं साफ जब प्रधानमंत्री अपने चुनाव क्षेत्र का दौरा करते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि कागजी हैं ये कार्यक्रम।

शौचालय जहां बने हैं उनकी सफाई कोई नहीं करता, सो खुले में शौच करने पर मजबूर हैं लोग। कहने को तो बेटी बचाओ आंदोलन टीवी के इश्तिहारों में छाया हुआ है, और ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े-बड़े पोस्टर लग गए हैं, जो महिलाओं को याद दिलाते हैं कि उनका सम्मान कितना हो चुका है। प्रधानमंत्री की तस्वीर के साथ ये शब्द लिखे होते हैं: महिलाओं को मिला सम्मान। पर यथार्थ क्या है, हम परख सकते हैं बलात्कार के आंकड़ों को पढ़ कर। सामाजिक परिवर्तन आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं अगर प्रधानमंत्री अपने मुख्यमंत्रियों, सांसदों और विधायकों को यह काम सौंप दें। राजनेता वह कर सकते हैं, जो अधिकारियों के वश की बात ही नहीं है।

तथाकथित गुजरात मॉडल में उन्होंने स्थानीय अधिकारियों के हाथों में इसी तरह के कार्यक्रम दिए थे और उन्होंने उनको कामयाब करके भी दिखाया, लेकिन शायद मोदीजानते नहीं थे कि लटयंस दिल्ली के आला अधिकारी कितने चतुर होते हैं परिवर्तन को रोकने में। या शायद उनकी गलती यह थी कि उन्होंने परिवर्तन लाने की कोशिश में उन्हीं अधिकारियों पर भरोसा किया, जिन्होंने दशकों से परिवर्तन को रोकने का काम किया था। मसलन, उन्होंने 15 अगस्त, 2014 को ऐलान किया योजना आयोग को समाप्त करने का।

इस घोषणा से इशारा यह गया कि पुराने सोवियत संघ किस्म की पांच वर्षीय योजनाएं अब इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दी जाएंगी। समस्या यह है कि नए नीति आयोग में वही अधिकारी हैं आज भी, जो परिवर्तन के सबसे बड़े दुश्मन हैं, सो जिस रफ्तार से बदलाव आना चाहिए था, नहीं आया है अभी तक। कम से कम इतना तो हम देखना चाहते थे कि मोदी सरकार उन आम सेवाओं से हाथ खींच ले, जिनमें साबित कर चुके हैं बाबू लोग कि न सेवा उपलब्ध कर सकते हैं और न मुनाफा। एअर इंडिया और अशोक होटल तो कम से कम बिक गए होते अभी तक। खबर है दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में कि नीति आयोग ने घाटे वाली सरकारी कंपनियों की एक फेहरिस्त तैयार की है, लेकिन इस पर अमल के आसार नहीं दिख रहे हैं अभी तक।

सो, इस बार जब प्रधानमंत्री लाल किले से हिसाब देंगे देशवासियों को अपने कार्यकाल का, उपलब्धियां कम ही गिना पाएंगे। विकास और तरक्की हुई है किसी की तो उन आला अधिकारियों की, जो केंद्र सरकार में मुलाजिम हैं। अगले साल से सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हो जाएंगी और ये अधिकारी दुगने से ज्यादा कमाने लगेंगे। अफवाहें हैं कि उन्हीं अधिकारियों के वेतन बढ़ेंगे, जिनका काम अच्छा होगा, लेकिन अभी तक यह सिर्फ अफवाह है। असली परिवर्तन और विकास की लहर जब आएगी भारत में, तो लाभ होगा आम नागरिकों का, सरकारी अधिकारियों का नहीं। समस्या यह है कि ब्रिटिश राज के समय से हमारे आला अधिकारियों ने अपनी सेवा ज्यादा की है, आम लोगों की कम। न इनके प्रशिक्षण में परिवर्तन आया है आज तक और न ही इन बड़े साहबों की आदतों में। क्या इस सत्य को प्रधानमंत्री जानते नहीं हैं? क्या जानते नहीं हैं कि जब तक इन आला अधिकारियों के बर्ताव में परिवर्तन नहीं आता है देश में, लाना मुश्किल नहीं नामुमकिन है? कारण जो भी हो यह कहना गलत न होगा कि परिवर्तन और विकास का सपना अभी तक सपना ही है।

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