दमन का दंश– मुकेश भारद्वाज

नवउदारवाद के निजामों ने पिछले ढाई दशकों के दौरान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के उदारवादी मूल्यों को चुनौती दी। बाजार के हाहाकार में सामंती मूल्यों को ही स्थापित करने की कोशिश की गई। स्त्रियों, दलितों सहित अन्य दमित वर्गों को समझाया गया कि बाजार सारी गैरबराबरी मिटा देगा। गुजरात का विकास मॉडल अभी बाजार में भुनाया ही जा रहा था कि कलक्टर साहब के दफ्तर के आगे और सड़कों पर मरी हुई गायों को फेंक कर दलितों ने चुनौती दी कि लो निपटा लो अपनी ‘पवित्रता’ को। अब इन गायों को जिंदा तो क्या, हम मरने के बाद भी नहीं छुएंगे। इसके कारण तुमने हमारा दमन किया, लो संभालो अब! और रही स्त्रियों की बराबरी की बात तो मायावती के अपमान या उसके बदले में दी गई गालियां उसी पितृसत्ता के स्त्री-विरोधी एजंडे के परदे भर हैं जिसे सत्ताधारी तबका सचेतन और सुनियोजित तरीके से निबाहता है। साथ ही अपनी अस्मिता के दमन के सूत्रधारों के खिलाफ जाने के बजाए वह उनके ही हथियारों से खेलता भी है। यह सब बाजार और नवउदारवाद की चमकती रोशनी में ही हो रहा है। किसके हाथों में कमान है इस बाजार और नवउदारवाद के अभियान की?

बीसवीं सदी के आखिरी दशक और उसके बाद के समय की बहसें बाजार और सांप्रदायिकता पर टिकी रहीं। लेकिन सांप्रदायिक ज्वार के बीच बाजार के खुले दरवाजों ने दलितों पर नए तरह के बंधन लगाए। सामंती व्यवस्था वाले गांव से निकल कर बाजार वाले शहर पहुंचे तो वहां भी जातिवाद की जंजीर उतनी ही मजबूत थी, फर्क शक्ल में था। सामंती व्यवस्था में तो जमीन के रिश्ते जाति से जुड़े ही थे। लेकिन इक्कीसवीं सदी में एक पढ़ी-लिखी लड़की आरोप लगाती है कि दिल्ली में उसने अपने दलित उपनाम को छिपाया तो कोई दिक्कत नहीं हुई और जब अमेरिका गई तो दलित पहचान के साथ रहने के बावजूद उसके सामने कोई मुश्किल पेश नहीं आई।

क्या यह बेवजह है कि दुनिया के सबसे बड़ा बाजार बनने के ख्वाहिशमंद भारत पर आरोप लग रहे हैं कि सामाजिक बराबरी की लड़ाई में यह बहुत पीछे छूट गया है। जिस समुदाय के उत्थान का दावा देश की हर राजनीतिक पार्टी करती हो, उसके प्रति सभी दलों का स्वार्थपरक रवैया हैरान कर देने वाला है। यह इस मुल्क की त्रासदी ही है कि यहां दलितों का इस्तेमाल हमेशा ही अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए होता रहा है, न कि असल में उनके अधिकार सुनिश्चित करने के लिए। अब तक दलितों को जो मिल सका है, वह इसलिए कि वे समय-समय पर अलग-अलग राजनीतिक दलों के लिए सत्ता की चाबी के तौर पर फायदे का सौदा रहा है। यानी दलितों के लिए जो अधिकार हैं, वह उन्हें कल्याण की शक्ल में बतौर रहम दिया गया है। जब कभी इस हिसाब-किताब की लेखा-परीक्षा होगी तो अधिकारों का पलड़ा ऊपर उठा हुआ ही मिलेगा, क्योंकि सत्ताधारी तबकों का सामाजिक और राजनीतिक स्वार्थ इतना भारी है कि उसे बराबर करने के लिए बहुत हिसाब करने पड़ेंगे। जाहिर है, इसलिए कभी कोई यह हिसाब करने बैठता ही नहीं। हर बार यही हिसाब होता हैकि क्या शिगूफा छोड़ा जाए कि चुनाव में ज्यादा से ज्यादा लाभ हो।

इस समस्या का दूसरा पहलू खतरनाक है और ठेठ राजनीतिक भी। दलितों से प्यार अगर उनके वोट बटोरने के लिए किया जाता है तो उन पर जुल्म भी वोट बटोरने के लिए ही होता है और उसका मकसद बड़ा शर्मनाक होता है। गुजरात में दलितों को अर्धनग्न कर उनकी पिटाई का वीडियो रोंगटे खड़े कर देने वाला था। और भी ज्यादा रोंगटे खड़ी कर देने वाली थी, वह चुप्पी जो स्वघोषित गोरक्षकों के शुभचिंतकों, बल्कि कथित संरक्षकों ने साध के रखी। जब भी वह वीडियो टीवी समाचारों में दुहराया जाता था तो यही इंतजार रहता था कि शायद अब भी यह समाचार आएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस घटना की निंदा की है। गुजरात में चुनावों की आहट है। ऐसे में बिना सोचे-समझे या समझ कर भी की गई निंदा के राजनीतिक दुष्परिणाम हो सकते हैं। आखिर गुजरात में भाजपा की ताकत ये गोरक्षक ही हैं।

गुजरात में इस चुप्पी के शायद अनुकूल परिणाम मिल सकें, क्योंकि पिछले दो दशक से गुजरात के चुनावों में वोटों का जबर्दस्त ध्रुवीकरण होता आया है। लेकिन यही चुप्पी उत्तर प्रदेश में भारी पड़ सकती है और उसकी छाया पंजाब में भी पड़ सकती है, क्योंकि यहां भारतीय जनता पार्टी को बहुकोणीय संघर्ष से गुजरना है। इसलिए जब पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की जुबान फिसली तो उन पर फौरन कार्रवाई हुई। प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार जनता में सत्ता-विरोधी भावनाओं का उबाल झेल रही है और फिलहाल साफ-साफ संकट में दिखाई दे रही है, जबकि वहां बहुजन समाज पार्टी सत्ता की तरफ अपने रास्ते और साफ करती जा रही है। यह बेवजह नहीं है कि बसपा ने दयाशंकर सिंह की अक्षम्य टिप्पणी को भुनाने में एक क्षण की देरी भी नहीं लगाई। बसपा प्रमुख प्रतिशोध की ज्वाला में ऐसी भड़कीं कि उन्होंने दयाशंकर के साथ-साथ उनकी मां, पत्नी और बेटी को भी लपेट लिया। जाहिर है, उसके बाद तो विस्फोट होना ही था। मायावती ने दयाशंकर के बयान की प्रतिक्रिया में उनकी मां-बहन का नाम लेकर ऊना में हुए दलित उत्पीड़न से उपजे तूफान के बाद पूरी तरह बैकफुट पर जा चुकी भाजपा को जैसे संजीवनी दिला दी हो। इस बयान के बाद भाजपा के लिए लोगों का ध्यान ऊना से हटा कर मायावती पर केंद्रित करने में उसे बहुत मदद मिली। हालांकि ऊना से शुरू हुआ तूफान इतनी आसानी से खत्म होगा, इसके आसार कम हैं।

फिर भी, दलित उत्पीड़न से मामला महिला सम्मान पर लाकर टिका दिया गया और उत्तर प्रदेश में राजपूतों के वोटों को समेटने की ओर सरक गया। मायावती ने दयाशंकर के परिवार को जो लपेटा तो पूरे उत्तर प्रदेश में बसपा कार्यकर्ताओं ने दयाशंकर के परिवार पर हमला बोल दिया। गाली के जवाब में गाली को ही बदला मान लिया गया। जिस राजनीतिक संघर्ष के केंद्र में दलितों या गैर-दलितों के वोट थे, वह प्रदेश की गली-सड़क पर होने लगा। किसी भी स्थिति में ऐसा नहीं लगा कि राजनीतिक दलों में से किसी का भी मकसद समस्या का समाधानथा।एक तरफ उत्तर प्रदेश में दलितों के वोटों की जद्दोजहद चल रही थी, तो उधर ऊना में दलितों के घर और अस्पताल में नेता कतारबद्ध थे। गोया दलितों के परिवार के साथ फोटो खिंचवा के उसे प्रचारित करना ही दलित संघर्ष का समाधान हो। फिर चाहे वह कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हों या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। हालांकि इन सबसे अभी भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि रोहित वेमुला को इंसाफ दिलाने के लिए जब नौजवान जेल जा रहे थे तो ये तमाम राजनीतिज्ञ क्या कर रहे थे!

विडंबना यही है कि चाहे गुजरात में कार में बांध कर घुमाते हुए पीटे जाते दलित हों या हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी, राजनीतिज्ञों के पास समाधान यही है कि पीड़ित परिवार के साथ जाकर थोड़ी देर बैठ कर अपनी सहानुभूति जता कर एक परिवार से सहानुभूति के रास्ते पूरे समुदाय के दिल में जगह बना ली जाए। तो अचानक अभी दलित उत्पीड़न पर सक्रिय हुए इन नेताओं के सामने क्या है? आंकड़ों से समझें तो देश भर में दलितों की आबादी लगभग सत्रह फीसद है। उत्तर प्रदेश में यह आंकड़ा बीस फीसद के आसपास है और पंजाब में सबसे ज्यादा छब्बीस फीसद के पार। दोनों ही राज्य चुनाव के मुहाने पर हैं। यही वजह है कि इस समय उठाया गया एक भी गलत कदम किसी भी पार्टी के लिए हार का सबब बन सकता है।

जब देश के महानगरों में ही दलितों को सवर्णों की सोसाइटी में मकान नहीं मिलने के आरोप आम हों तो गांवों की हालत के बारे में क्या कहा जाए! बाबा साहेब आंबेडकर ने गांवों को दलित-वंचित जातियों के लिए किस रूप में देखा था, यह छिपा नहीं है। उन्होंने सीधे गांवों को त्याग देने की बात कही थी। आखिर उसकी कोई वजह तो थी! लेकिन आज भी छोटे शहरों से लेकर गांवों तक में यह हाल है कि अगर कोई दलित दूल्हा घोड़े पर सवार होकर शादी करने निकला तो सवर्ण जातियों को यह किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं होगा और उसे रोकने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। अफसोस की बात यह है कि ऐसे मौके पर समाज के ठेकेदार भी चुप बैठ जाते हैं या फिर दलितों को ही मशविरा देते हैं कि वे ऐसा करते ही क्यों हैं जो समाज में मान्य नहीं। हरियाणा की खाप पंचायतों के ऐसे फरमान अभी भी स्मृतियों में ताजा हैं। अंतरजातीय विवाह को लेकर जिस तरह युवक-युवतियों को पंचायती फरमान पर मौत के घाट उतारा जाता है उस पर सभी राजनीतिक दल आंखें मूंद लेते हैं। हरियाणा में ऐसे फैसले देने वाले खापों का ऐसा आतंक है कि हर दल का नेता उनके तुष्टीकरण में लगा रहता है, क्योंकि उन खापों के हुक्मनामों पर ही पूरा समुदाय वोट डालने के लिए अपनी पार्टी निर्धारित करता है। इसके बावजूद अक्सर कुछ नेता इन खापों को स्वयंसेवी सामाजिक संगठन के तौर पर परोसते हैं।

ऐसे कथित ‘स्वयंसेवी संगठनों’ का शासन और व्यवहार उन जातिवादियों को और साहस प्रदान करता है और एक के बाद एक घटनाके साथ अगली घटना की भूमिका बन जाती है। राजनेताओं के रवैए के कारण ही ये पंचायतें बेखौफ हैं। कभी जाति तो अब आजकल गाय या गोमांस के मुद्दे पर अपनी हेकड़ी और सामाजिक सर्वोच्चता को स्थापित करने की जो होड़ लगी है, वह सभ्य समाज के सपने को कहीं का नहीं छोड़ेगी। दलितों के साथ सरेआम मारपीट की हौलनाक घटना की निंदा करके कोई सिर्फ शर्मसार नहीं हो सकता। अब उसमें अपनी जिम्मेदारी भी तय करनी पड़ेगी।
सत्तारूढ़ भाजपा दलित विमर्श में कोई सीधा रुख अख्तियार नहीं करती। विडंबना यह भी है कि मोदी खुद को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का सबसे बड़ा अनुयायी बताते हैं, लेकिन यह कैसे हो सकता है कि आंबेडकर आदर्श हों, लेकिन दलित नहीं। तो क्या आंबेडकर का नाम भी सिर्फ वोट बटोरने के लिए ही लिया जाता है। ऐसी चुनिंदा उपेक्षा की राजनीति आखिर क्या है? दरअसल, इस राजनीति में यह हिसाब लगा लिया गया है कि सवर्ण वोट का स्वाभाविक ठिकाना कहां है और उनमें से कुछ नाराज करने की कीमत पर भी दलितों का एकमुश्त बड़ा वोट बैंक खींचने में मदद मिले तो यह सौदा फायदेमंद ही है।

लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को अपूर्व सफलता मिली। किसी एक राज्य में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बाद भी पार्टी ने ‘गुजरात के मोदी’ को ही अपना नेता चुना। क्या यह समय नहीं था कि मोदी आगे बढ़ कर न सिर्फ अपने गृह प्रदेश में हुई दलित उत्पीड़न की घटना की निंदा करते, बल्कि बेलगाम हो गए दयाशंकर को भी खुद लताड़ लगाते? लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मायावती भी बसपा कार्यकर्ताओं की ओर से भद्दी भाषा के इस्तेमाल की खबरें आने के बावजूद उनके बचाव में ही लगी रहीं। दरअसल, बसपा जैसे दल भी सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज के बजाय जातिगत ध्रुवीकरण को ही अपना रणनीतिक शरण मानते हैं और यही इस लड़ाई की सीमा भी है।

तो गुजरात के ऊना के साथ ही याद करें हरियाणा के दुलीना में पांच दलितों को गाय के नाम पर ही भीड़ द्वारा जिंदा जला दिए जाने को, मिर्चपुर, गोहाना, महाराष्टÑ के खैरलांजी, बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला या फिर द्रविड़ आंदोलन का गढ़ रहे तमिलनाडु के धमर्पुरी को…! देश के चारों कोने एक धागे में बंधे नजर आते हैं दलितों पर अत्याचारों के मामले में। इस देश के सत्ताधारी सामाजिक-राजनीतिक तबकों ने कैसा समाज बनाया है, जिसे हम अपने आसपास चमकती आधुनिकता में सभ्य कहे जाने वाले समाजों के नजदीक भी नहीं पाते हैं।


समय आ गया है कि सभी राजनीतिक दल दलित विमर्श और संघर्ष पर नए सिरे से निगाह डालें और तय करें कि सामाजिक न्याय की यह लड़ाई केवल आरक्षण तक सिमट कर न रह जाए, बल्कि इसके जरिए जमीन पर भी उतरे। दलित तबके को अपने राजनीतिक आईने में देखना बंद करें और व्यावहारिक स्तर पर उनकी सभी समस्या

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