उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश सरकारों के खिलाफ भाजपा और केंद्र के हस्तक्षेप पर अगर उच्चतम न्यायालय सख्त निर्णय नहीं लेता तो एनडीए सरकार अपनी झेंप मिटाने के लिये कभी भी अंतर्राज्यीय परिषद की बैठक संभवतय जल्दबाजी में नहीं बुलाती।उत्तराखंड और अरुणाचल में केंद्र की किरकिरी हुई तथा अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश और पंजाब चुनाव की गूंज हो चुकी है तो ऐसे में मोदी सरकार ने अपनी छवि और प्रभाव को राज्यों पर बनाये रखने के लिये यह बैठक मात्र एक कोशिश ही रही। बिहार और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों नीतिश कुमार और अरविंद केजरीवाल ने राज्यपाल की जरूरत, योजना आयोग की जगह नीति आयोग बनाकर उसमें जबरदस्त फेरबदल तथा पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने केंन्द्र द्वारा ‘स्टेट लिस्ट’ और ‘कोनकरंट लिस्ट’ में हस्तक्षेप पर गहरा प्रतिवाद करते हुए केंद्र की नीतियों और उसकी नीयत का विरोध किया।
जो भाजपा सन् 2013 से ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत की चुनावी डुगडुगी बजाती आ रही है वो अब इस वर्ष असम में चुनाव जीतने के बाद उस पर और ज्यादा आक्रामक हो गई। भाजपा की सरकारें देश के 11 प्रदेशों में हैं, जिसमें से 5 राज्यों में दूसरे राजनीतिक दलों के साथ है। इसीलिये मोदी सरकार के हर फैसले और योजनाओं को भाजपाई सरकारें तत्काल अपनाती हैं। विपक्षी दलों की मानें तो राजस्थान सरकार केंद्र में मोदी सरकार की योजनाओं के लिये टेस्टिंग-लैब है।
कश्मीर में आतंकी घटनाओं के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह का ये प्रस्ताव रखना की ‘इंटेलिजेंस एण्ड सिक्योरिटी’ पर राज्यों से बेहतर तालमेल और सूचनाओं का आदान-प्रदान जरूरी है, बहुत प्रासंगिक है। परिषद ने सुझाया कि केंद्र और राज्यों के मध्य संबंधों में आलोचना न हो, दोनों एक-दूसरे को सहयोग दें और सामाजिक उत्थान की योजनाओं का विस्तार होने दें। ठीक इसके विपरीत आप पार्टी की दिल्ली सरकार और केंद्र के मध्य नियमित रूप से हो रहे टकराव ने केन्द्र-राज्य के संबंधों पर कटाक्ष किया है। मोदी सरकार राज्यों से मधुर और आलोचना रहित रिश्तों की अपेक्षा रख रही है जबकि पिछले दो साल में गैर-भाजपाई राज्यों में ये रिश्ते कड़वे लगने लगे हैं।
परिषद में राज्यों को केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी का मुद्दा उठता रहा है। 2006 से पहले ‘वैट’ (वेल्यू एडेड टैक्स) लगाने की चर्चा थी, और अब एक मुश्त जीएसटी आना बाकी है। ऐसे में परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री का ये उवाच कि केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत कर दी गयी है, अप्रसांगिक लगती है। इकोनोमिक रिफोर्म्स के चलते करों में राज्य का हिस्सा बढ़ाने या घटाना एक प्रयोग मात्र है जो मार्केट फोर्स और क्रूड ऑयल के भाव के उतार-चढ़ाव के सामने टिक नहीं सकता।
राज्य में गवर्नर की भूमिका परबहुत बहस होती रही है। मगर जिस तरह संविधान में वर्णित आरक्षण का प्रावधान नहीं हट सकता वैसे ही राज्यपाल की नियुक्ति को संविधान में से हटाना बहुत टेढ़ी खीर है। मोदी सरकार जब सत्ता में आई थी तो कुछ राज्यों के राज्यपाल को हटाने का दबाव की घटनाओं में गुजरात की राज्यपाल श्रीमती कमला बेनिवाल का स्मरण ही काफी होगा।
धारा 356 पर सरकारिया आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 1951 से 1987 तक 75 मामलों में सरकारे भंग की गयी थी। परिषद में हर बार राष्ट्रपति शासन के मुद्दे जरूर उठे, मतभेदों को दूर करने और आम सहमति के प्रयास हुए, मगर सब ढाक के तीन पात साबित हुए। सिर्फ सरकारिया आयोग की एक रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों पर केंद्र और राज्य सरकारों में कुछ हद तक सहमति प्रदर्शित हुई। और अब अंतर्राज्यीय परिषद पर राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) हावी हो गयी। राज्यों के कई मुद्दे और केंद्र की धारणा एनडीसी में बंट गयी। परिषद के जिम्मे सत्ता के विकेंद्रीकरण और वित्तीय अधिकारों को ग्राम पंचायतों तक पहुंचाना भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा हुआ करता था जो धीरे-धीरे कम होता गया क्योंकि नरेगा, शिक्षा और केंद्र की अनेक योजनाओं में आज पंचायत मजबूत होकर उभरी हैं।
चूंकि केंद्र में मोदी सरकार की नवीन योजनाओं को भाजपा सरकारें तन-मन-धन से लागू करने में जुटी हैं ऐसे में गैर-भाजपाई सरकार को ये याद दिलाने के लिये भी परिषद की यह बैठक आयोजित की गयी कि आमजन को आधार कार्ड और जीरो बैंक एकाउंट के जरिये जोड़ा जाये। परिषद ने संघीय (फेडरलिज्म) ढांचे और व्यवस्था को और अधिक मजबूत करने की भी राज्यों को सीख दी।
जब तक केंद्र सरकार और राज्य सरकार अलग-अलग राजनीतिक दल की हैं, और खास तौर से वैचारिक अंतर है तब तक राज्यों और केन्द्र के मध्य रस्साकशी चलती रहेगी। ऐसी परिषद की उपयोगिता सदैव अखबारों की सुर्खियां बनकर जनता के असली मुद्दों से, सरकारों को उनके लक्ष्यों से भटकाती रहेगी।