अथक प्रयासों के बावजूद बड़े कारोबारी निजी निवेश करने में रुचि नहीं ले रहे हैं। उधर विदेशी संस्थागत निवेशक भारत में निवेश को लेकर उत्साहित नहीं हैं। ऐसे में वित्तमंत्री ने बैंकों और दूसरी वित्तीय संस्थाओं द्वारा जमा पर दिए जा रहे ज्यादा ब्याज पर सवाल खड़े किए हैं। उनका कहना है कि जमा पर अधिक ब्याज देने से कर्ज देने की लागत बढ़ जाती है। गौरतलब है कि ब्याज दर अधिक होने से कारोबारी कर्ज लेने से परहेज करते हैं। दूसरी तरफ जो कारोबारी पहले से कर्ज लिए हुए हैं, उन्हें भी अधिक ब्याज का भुगतान करना पड़ता है, जिससे उनके उत्पादों की कीमत सामान्य से अधिक हो जाती है और लोग महंगाई के कारण उत्पाद खरीद नहीं पाते हैं। ऐसे माहौल में रोजगार सृजन में कमी, विकास दर में सुस्ती और अर्थव्यवस्था में कमजोरी आती है।
वित्तमंत्री का मानना है कि भारत जैसे देश में जमा पर अधिक ब्याज देने का चलन है। यहां घरेलू बचत को निवेश के रूप में देखा जाता है। यहां के लोग जमा से ऊंचे रिटर्न की अपेक्षा रखते हैं। ऐसे माहौल में अर्थव्यवस्था में ऐसी प्रणाली विकसित होती है, जहां जमा पर ब्याज दर ऊंची होती है। आम लोग अधिक रिटर्न देने वाले बांड, शेयर आदि तंत्र में निवेश करने में विश्वास नहीं करते हैं, जबकि भारत में एक लंबे समय तक निरंतर निवेश करने की आवश्यकता है, ताकि आधारभूत संरचना में मजबूती और उद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेजी आ सके।
वित्तमंत्री के अनुसार बाजार में सुरक्षित निवेश के कई विकल्प हैं, जिनकी मदद से अच्छा रिटर्न हासिल किया जा सकता है। इसके अलावा निजी निवेश और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल की सहायता से भी पूंजी की कमी को दूर किया जा सकता है। हालांकि, विगत वर्षों में सरकारी निवेश और विदेशी निवेश के जरिए देश में अर्थव्यवस्था की रफ्तार में थोड़ी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन अब भी इस आलोक में निजी क्षेत्र को अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी है।
मौजूदा समय में छोटी बचत योजनाओं पर दिया जा रहा ज्यादा ब्याज, कर्ज ब्याज दर में कटौती की राह का रोड़ा और महंगे कर्ज का कारण माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि छोटी बचत योजनाओं पर ज्यादा ब्याज देने के कारण बैंक रिजर्व बैंक द्वारा नीतिगत दरों में कटौती के बावजूद इसका फायदा कारोबारियों को नहीं दे पा रहे हैं। इसलिए, सरकार ने 1 अप्रैल, 2016 से छोटी बचत योजनाओं में दिए जा रहे ज्यादा ब्याज की दरों में कटौती की थी और हर तीन महीने पर छोटी जमा योजनाओं पर दिए जा रहे ब्याज की दरों की सार्थकता की समीक्षा करने का फैसला किया था। इस संदर्भ में वित्तमंत्री के ताजा बयान से कयास लगाए जा रहे हैं कि छोटी बचत जमा योजनाओं पर दिए जा रहे ब्याज की दरों में जल्द ही उल्लेखनीय कटौती की जा सकती है।
इधर, बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थान भी लंबे अरसे से छोटी बचत योजनाओं जैसे, पब्लिक प्रोविडेंट फंड (पीपीएफ), नेशनल सेविंग स्कीम (एनएससी), किसान विकास पत्र (केवीपी) आदि में दिए जा रहे ज्यादा ब्याज को लेकर अपनी आपत्ति सरकार केसमक्ष रखते आए हैं और वे इसमें और भी कटौती चाहते हैं। स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए अप्रैल में सरकार ने सुकन्या समृद्धि योजना और बुजर्गों के लिए चलाई जा रही छोटी जमा योजनाओं में दिए जा रहे ब्याज की दरों में भी कटौती की थी। वर्तमान में बैंक अपने ग्राहकों को पांच साल की एक करोड़ से कम राशि वाली मियादी जमा पर सात से आठ प्रतिशत ब्याज दे रहे हैं। गौरतलब है कि बैंक महंगी जमा लागत वाली पूंजी के बूते पर कर्ज दर में कटौती नहीं कर सकते हैं। पूंजी की लागत सस्ती होने पर ही ऐसा करना उनके लिए संभव हो सकता है।
इधर, कर्ज दर और भी कम हो, इसके लिए सरकार ने 1 अप्रैल, 2016 से नई आधार दर लागू की है। इसके पहले आधार दर में बदलाव जुलाई 2010 में किया गया था, जिसने बैंक प्राइम लेंडिंग रेट (बीपीएलआर) की जगह ली थी। इस बदलाव से कर्जदारों को फायदे के साथ ही बैंक प्रणाली में पारदर्शिता आई थी। आधार दर को न्यूनतम कर्ज दर भी कहा जाता है। इस दर से नीचे बैंक कर्ज नहीं दे सकते हैं।
आधार दर का निर्धारण जमा कोष की लागत, परिचालन खर्च, सीआरआर के तहत केंद्रीय बैंक के पास रखे गए कोष, जिस पर रिजर्व बैंक, बैंकों को कोई ब्याज नहीं देता आदि के आधार पर किया जाता है, जबकि एमसीएलआर के लिए बैंकों ने पांच बेंचमार्क दरों का निर्धारण किया है, जिसकी अवधि एक दिन से एक साल तक परिस्थिति अनुसार हो सकती है। इस प्रणाली के तहत जमा कोष की लागत, परिचालन खर्च, लंबी अवधि के कर्ज से बैंकों को मिलने वाले लाभ के हिस्से को कर्जदारों से साझा करना, सीआरआर के अनुपालन हेतु केंद्रीय बैंक के पास रखे गए कोष, जिस पर केंद्रीय बैंक कोई ब्याज नहीं देता, से होने वाले नुकसान की भरपाई कर्जदारों से नहीं करना, रेपो दर आदि को ध्यान में रखते हुए बैंक कर्ज दर का निर्धारण कर रहे हैं। गौर तलब है कि रिजर्व बैंक जब रेपो दर में कटौती करता है तो बैंकों को कम लागत पर नकदी मिलती है। कम लागत और बिना जोखिम के नकदी मिलने के बाद बैंकों को अब तुरंत नीतिगत दरों की कटौती का फायदा कर्जदारों को देने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
मौजूदा समय में बैंक संपत्ति की गुणवत्ता में गिरावट के कारण कुछ सालों से पूंजी की किल्लत का सामना कर रहे हैं। दरअसल, एनपीए ने बीते सालों में बैंकों के मुनाफे में जबर्दस्त सेंघ लगाई है। बेसल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए भी बैंकों को भारी-भरकम पूंजी की जरूरत है। सावधि जमा पर ज्यादा ब्याज देने के कारण बैंक नीतिगत दरों में कटौती के बाद भी कर्ज दर में कटौती करने में आनाकानी करते रहे हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर और बड़े कारोबारी इसके लिए लंबे अरसे से बैंकों को दोषी मान रहे हैं। इसलिए सुधारात्मक कदम उठाते हुए नई आधार दर लागू की गई है। एमसीएलआर के तहत कर्ज दर तय करते समय बैंकों को आवश्यक रूप से रेपो दर में कटौती केबादएमसीएलआर में कटौती करनी होगा, जबकि पहले बैंक कर्ज दर में कटौती के नाम पर पूंजी की कमी का बहाना करके नीतिगत दरों में कटौती का फायदा कारोबारियों को देने से परहेज करते थे।
रिजर्व बैंक, रेपो और रिवर्स रेपो दर द्वारा बाजार की मौद्रिक स्थिति को संतुलित रखता है। केंद्रीय बैंक बाजार में नकदी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए रेपो दर में कटौती करता है। इसी तरह रिवर्स रेपो दर की मदद से रिजर्व बैंक बाजार में उपलब्ध अतिरिक्त नकदी को सोख लेता है। दोनों का इस्तेमाल बाजार में नकदी पर नियंत्रण करने के लिए किया जाता है। रेपो दर वह दर होता है, जिस पर वाणिज्यिक बैंक, रिजर्व बैंक से अल्पकालिक जरीरतें पूरा करने के लिए नकदी लेते हैं और रिवर्स रेपो दर ठीक इसका उलटा होता है। वहीं सीआरआर बैंकों के पास जमा राशि का वह हिस्सा है जिसे बैंकों को केंद्रीय बैंक के नियंत्रण में रखना होता है, लेकिन केंद्रीय बैंक, वाणिज्यिक बैंकों को इस पर कोई ब्याज नहीं देता है।
बहरहाल, नए आधार दर से बैंकों को अपने कोष को संतुलित रखने में मदद मिलेगी और वे इसका बेहतर प्रबंधन कर सकेंगे। बैंक एमसीएलआर की दर में सुविधानुसार एक साल तक कभी भी बदलाव ला सकेंगे। माना जा रहा है कि कोष के बेहतर प्रबंधन से बैंक ब्याज की ज्यादा कमाई कर सकेंगे, जिससे उनकी पूंजी की किल्लत दूर हो सकेगी। बैंकों को कर्जदारों के साथ एमसीएलआर के संबंध में करारनामा करते समय नई आधार दर की तिथि भी तय करनी होगी। यानी अगर कोई कर्जदार दस प्रतिशत की दर से कर्ज पर ब्याज दे रहा है तो वह अगली निर्धारित तिथि तक उसी निर्धारित दर से बैंक को ब्याज देगा, भले ही बीच में एमसीएलआर दर घट कर नौ प्रतिशत या बढ़ कर ग्यारह प्रतिशत हो जाए।
इसमें दो राय नहीं कि कर्ज दर में कमी आने से लोग गृह, वाहन, कंज्यूमर, पर्सनल आदि कर्ज लेने में समर्थ हो सकेंगे, जिससे वाहनों और अन्य उत्पादों की बिक्री में तेजी आएगी, क्योंकि महंगे उत्पाद खरीदना कर्ज के बिना मुश्किल है। बेशक, रिजर्व बैंक द्वारा नीतिगत दरों में कटौती करने से बैंकों के पास पर्याप्त नकदी का संचार होगा और वे कर्ज दर में कमी और कर्ज वितरण करने में समर्थ हो सकेंगे, जिससे देश में रोजगार को बढ़ावा, विकास को बल, उत्पादन में इजाफा, विविध उत्पादों की बिक्री में तेजी, अर्थव्यवस्था में मजबूती आदि संभव हो सकेंगे। फिलहाल, बैंक महंगी पूंजी लागत, बढ़ते एनपीए और बेसल तृतीय के विविध मानकों आदि के कारण कर्ज दर में कटौती और कर्ज वितरण करने से परहेज कर रहे हैं।
इस दृष्टि से देखें तो वित्तमंत्री की चिंता जायज है। भारत में भी विदेशों की तरह जमा और कर्ज ब्याज दर के बीच कम अंतर होना चाहिए और नागरिकों को जमा की जगह बांड, शेयर और दूसरे माध्यमों से बचत से आय अर्जित करने की आदत को विकसित करना चाहिए, ताकि बैंकों को सस्ती दर पर पूंजी मिल सके और वे सस्ती कर्ज दर पर कारोबारियों को कर्ज दे सकें। ऐसा करने से ही अर्थव्यवस्था में मजबूती औरविकास दर में तेजी आ सकेगी।