ब्रिटेन की जनता ने यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला किया है। यह कहना ज्यादा सही है कि एक बंटे हुए देश के बंटे हुए मतदाताओं ने, चार फीसद से भी कम के बहुमत से, उस संघ से अलग होने के पक्ष में वोट दिया, जिसमें वे तैंतालीस साल पहले शामिल हुए थे। स्काटलैंड, उत्तरी आयरलैंड और लंदन विभाजन-रेखा के एक तरफ थे, जबकि इंग्लैंड तथा वेल्स दूसरी तरफ। अधिकतर युवाओं ने यूरोपीय संघ में बने रहने के पक्ष में वोट दिया, जबकि अधिकतर उम्रदराज लोगों ने संघ से अलग होने के पक्ष में। इस रायशुमारी से यूरोपीय संघ में तो शायद बिखराव नहीं होगा, पर ब्रिटेन में इसका खतरा जरूर पैदा हो गया है, और यह सवाल उठा है कि ‘प्रधानमंत्री कैमरन ने जनमत संग्रह कराने का निर्णय क्यों किया?’ छीजता समर्थन ब्रिटेन एक संसदीय लोकतंत्र है, जनमत संग्रह आधारित लोकतंत्र नहीं।
नीतियां और कानून संसद के द्वारा बनाए जाते हैं, न कि सीधे जनता द्वारा। कैमरन ने कंजरवेटिव पार्टी में विद्रोह को शांत करने की गरज से जनमत संग्रह का जुआ खेला और नाकाम रहे। राजनीति का एक खास नियम यह है कि कभी भी जनमत संग्रह (या मतदान) का आह्वान न करें, जब तक कि आप इस बात को लेकर निश्चिंत न हों कि नतीजा आपके पक्ष में आएगा। कैमरन ने इस नियम को तोड़ा। क्यों? क्योंकि बहुत-से निर्वाचित नेताओं की तरह वे भी यह मान कर चल रहे थे कि चूंकि संसद में उनके पास बहुमत है, तो जनता का भी बहुमत उनके साथ है।
यह एक घातक भूल थी। लोगों के वोट को समय और वोट का संदर्भ तय करते हैं। लेकिन वक्त बदलता है, संदर्भ भी बदल सकता है। किसी नेता को संसदीय चुनाव में जो बहुमत मिलता है वह एक निश्चित अवधि तक बना रहेगा, लेकिन यह हो सकता है कि वह नेता इस बीच जनता में अपना समर्थन काफी हद तक गंवा दे। यह हो सकता है कि नेता अब भी वहीं खड़ा हो जहां वह खड़ा था, पर उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक चुकी हो। अधिकतर प्रधानमंत्री इस तथ्य को कतई स्वीकार नहीं करना चाहते कि उन्होंने जनता के बीच समर्थन खो दिया है- कम से कम कुछ अहम मसलों पर।