पच्चीस साल पहले लाइसेंस राज को समाप्त करने का पहला कदम उठाया था प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने। अफसोस कि जिस तरह नरसिंह राव को भुलाने का काम किया है कांग्रेस पार्टी ने, उसी तरह देशवासियों ने भुला दिया है वह दौर, जो कायम था लाइसेंस राज के समाप्त होने से पहले। नई पीढ़ी के भारतीय तो कल्पना भी शायद नहीं कर सकते उस भारत की, जिसमें तकरीबन हर भारतवासी की किस्मत में थी गरीबी, बेरोजगारी, लाचारी और जहालत। भारतवासियों का एक ही सपना हुआ करता था उन दिनों और वह था- सरकारी नौकरी। कोई किसी और किस्म की नौकरी की उम्मीद तक नहीं कर सकता था, क्योंकि लाइसेंस राज ने निजी उद्योग क्षेत्र को अपंग बना डाला था। जहां अंगरेज राज में भारतीय उद्योगपतियों ने बड़े-बड़े कारखाने लगाए थे, मोटर गाड़ियां और हवाई जहाज बनाने की कोशिश की थी, लाइसेंस राज के आते ही यह सब खत्म हो गया। नेहरूवियन समाजवाद का बुनियादी उसूल था कि अर्थव्यवस्था की ऊंचाइयों पर सिर्फ सरकारी उद्योगों का नियंत्रण होगा। सो, कई क्षेत्रों में निजी उद्योगों के आने पर प्रतिबंध लग गए थे और जिन क्षेत्रों में उनको इजाजत थी आने की, वहां लाइसेंस और कोटा से ज्यादा उत्पादन होने पर जुर्माना भरना पड़ता था।
नतीजा यह कि भारत इतना बेहाल था कि विदेशी निवेशकों को छोड़ो, देसी निवेशक भी बहुत कम दिखा करते थे। कोई दिलेर धीरूभाई अंबानी जैसा व्यक्ति अगर हिम्मत दिखा कर बड़े पैमाने पर बिजनेस करने की हिम्मत दिखाता था, तो जल्दी सीख जाता था कि किस तरह दिल्ली के सरकारी भवनों में किस-किस को खिला कर आगे बढ़ना होगा। चपरासियों से लेकर बड़े साहबों तक रिश्वत खिलाने के बिना बिजनेस करना तकरीबन असंभव था उन दिनों। याद है मुझे कि किस तरह राजीव गांधी के दफ्तर के बाहर बैठा करते थे देश के बड़े उद्योगपति। एक बार जब मैंने इनमें से किसी से पूछा कि वे क्यों मिलना चाहते हैं प्रधानमंत्री से, तो जवाब मिला, ‘मैं मिलना नहीं चाहता हूं उनसे, लेकिन यहां बैठ कर बाबू लोगों को दिखाना चाहता हूं कि मैं उनसे मिल सकता हूं। ऐसा करने से जब मैं उनके पास जाता हूं किसी लाइसेंस के लिए तो आसानी से मिल जाता है।’
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