भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने घोषणा कर दी कि चार सितंबर के बाद वे अपना पद छोड़ देंगे। उनके एलान से विदेशी निवेशक चिंतित हैं, उद्योग जगत में निराशा है और शेयर बाजार में घबराहट। राजन का कार्यकाल न बढ़े, इसके लिए कुछ लोगों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा था। देश का केंद्रीय बैंक (आरबीआइ) ही मौद्रिक नीति निर्धारित करता है और फिर उसके माध्यम से महंगाई पर नियंत्रण रखता है। राजन के बाद आरबीआइ की बागडोर कौन संभालता है, आम जनता की इसमें कोई रुचि नहीं है। हां, महंगाई पर उसकी नजर जरूर रहती है।
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) द्वारा जारी ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि आज खुदरा महंगाई दर इक्कीस माह के सर्वोच्च स्तर पर है। मई माह में यह 5.76 प्रतिशत थी, जबकि एक माह पूर्व अप्रैल में उसे 5.47 फीसद आंका गया। वैसे सरकार का लक्ष्य मार्च 2017 तक खुदरा महंगाई को पांच फीसद पर लाने का है, पर ताजा हालात में यह काम कठिन दिखता है। रघुराम राजन के तीन साल के कार्यकाल में विदेशी मुद्रा भंडार में खासा इजाफा हुआ, शेयर सूचकांक 18,567 (चार सितंबर, 2013) से चढ़ कर 26,625 (17 जून, 2016) पर पहुंच गया, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) गिरने के बाद 7.4 फीसद के पूर्व स्तर पर आ गया तथा रेपो रेट में पिछले वर्ष से डेढ़ प्रतिशत की कटौती की जा चुकी है। मगर इन सबसे बड़ी उपलब्धि महंगाई पर नियंत्रण है।
जब राजन ने रिजर्व बैंक की बागडोर संभाली थी तब महंगाई 10.5 फीसद की खतरनाक ऊंचाई पर थी, जो आज 5.76 फीसद है। चिंता की बात है कि पिछले कुछ समय से महंगाई फिर बेकाबू नजर आ रही है। इसीलिए राजन की विदाई से आम जनता आशंकित है। दो साल में टमाटर की कीमत 424 प्रतिशत और एक वर्ष में आलू की कीमत 156 फीसद तक बढ़ चुकी है। मौजूदा महंगाई की सबसे खराब बात खाने-पीने की चीजों के दामों में लगी आग है, जिससे वित्तमंत्री की नींद उड़ी हुई है। अप्रैल (6.4 प्रतिशत) और मई (7.55 प्रतिशत) के बीच महज तीस दिनों के भीतर खाद्य सामग्री की कीमतों में 1.15 फीसद का उछाल आ गया। यह भी गौरतलब है कि महंगाई की मार शहरों के मुकाबले गांवों पर अधिक है। देहात में इसका असर 7.75 फीसद आंका गया जबकि नगरों में 7.24 फीसद। गांवों में महंगाई इसलिए भी ज्यादा चुभती है क्योंकि आज देश के बारह सूबे और तैंतीस करोड़ लोग सूखे का दंश झेल रहे हैं। सूखा प्रभावित इलाकों में खेती बर्बाद हो चुकी है, किसान-मजदूर बेरोजगार हैं। परिणामस्वरूप खाने-पीने के लाले पड़े हैं। ऐसे में महंगाई की मार कोढ़ में खाज का काम कर रही है।
महंगाई गणना की नई प्रणाली पिछले साल जनवरी माह से लागू है। इसकी विश्वसनीयता पर विशेषज्ञों ने निरंतर सवाल उठाए हैं। उनके अनुसार मौजूदा फार्मूले से निकले आंकड़े जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते और महंगाई को ठीक-ठीक नहीं दर्शाते। पिछले दो साल में खाने-पीने की चीजों के दामों में आई तेजी की चुभन लोग शिद््दत से महसूस करते हैं, जबकि आंकड़े कुछ और ही इशाराकरते हैं। लेकिन अब सरकार भी महंगाई का कड़वा सच स्वीकार करने लगी है। उसने मान लिया कि गत अप्रैल से मई के बीच सब्जियों की कीमतों में 5.95 प्रतिशत का उछाल आया, जिस कारण आलू-टमाटर जैसी रोजमर्रा इस्तेमाल की सब्जियां गरीब जनता की पहुंच से बाहर हो गर्इं। इसके अलावा पिछले एक साल में दालों के दाम 31.57 फीसद, चीनी के 14 फीसद, मांस-मछली के 8.67 फीसद, मसाले के 9.72 फीसद, दूध और डेयरी उत्पाद के 3.5 फीसद तथा अनाज के 2.59 फीसद बढ़ चुके हैं।
अनुमान है कि आगामी अगस्त माह तक कीमतें बेकाबू रहेंगी। पिछले चार साल से खाद्य मूल्यवृद्धि में एक अजीब समानता लक्षित की गई है। इसमें वर्ष में दो बार बढ़ोतरी होती है। पहली, जून से अगस्त के बीच, तथा दूसरी, अक्टूबर-नवंबर माह में। बढ़ोतरी का जाहिरा कारण कोई नहीं होता। मसलन चालू वर्ष में टमाटर की पैदावार 1.828 करोड़ टन हुई जो गत वर्ष (1.638) के मुकाबले कहीं अधिक है, फिर भी जून आते-आते इसकी कीमतों में आग लग गई। इसी प्रकार आलू है जिसकी उपज इस साल 4.6 करोड़ टन रही, जो पिछले साल (4.8 करोड़ टन) से थोड़ी कम है। आलू को कोल्ड स्टोर में रख कर पूरे साल बेचा जाता है। वह टमाटर की तरह जल्दी नहीं सड़ता। ध्यान देने वाली बात यह है कि आलू की मौजूदा मूल्यवृद्धि, पैदावार में कमी के अनुपात से कहीं अधिक है। कुछ ऐसा ही हाल दालों का है। एक वर्ष से आसमान छूती कीमतों के कारण गरीब की थाली से दाल गायब हो चुकी हैं। केंद्र सरकार के पास आज दालों का अड़तालीस हजार टन भंडारण है।
मांग व आपूर्ति की खाई पाटने के लिए इस साल साढ़े छह लाख टन दाल का आयात भी होगा। ऐसे तमाम कदमों के बावजूद कीमतों में नरमी का कोई संकेत नहीं दिखता। इसी प्रकार चना और चीनी का बढ़ता मूल्य गरीब जनता के लिए सिरदर्द बन चुका है। अंकुश लगाने के लिए सरकार ने पहल की है, जो नाकाफी है। सेबी ने चने का वायदा कारोबार स्थगित कर दिया है जबकि चीनी के निर्यात पर बीस फीसद ड्यूटी लगाई जा चुकी है। जब तक इन उपायों के परिणाम नहीं मिलते, जनता को महंगाई की चक्की में पिसना पड़ेगा। लगातार दूसरे वर्ष पड़े सूखे से देश के इक्यानवे बड़े जलाशयों में अब मात्र पंद्रह फीसद पानी बचा है।
सबसे खराब स्थिति दक्षिण भारत के इकतीस जलाशयों की है, जिनमें क्षमता का सिर्फ नौ प्रतिशत जल शेष है। पश्चिम के सत्ताईस जलाशयों में भी राष्ट्रीय औसत से चार प्रतिशत कम पानी है। शोध से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि खराब मानसून का महंगाई पर सीधा असर नहीं पड़ता, पर यदि देश के बड़े जलाशयों का स्तर काफी गिर जाए, तब खाद्य पदार्थों का मूल्य तेजी से बढ़ने लगता है। उदाहरण से इसे बेहतर समझा जा सकता है। पिछले साल भी देश में सूखा था, पर मई माह में सभी बड़े जलाशयों में पानी औसत से छह फीसद अधिक था। इस कारण महंगाई काबू में रही, जबकि इस साल जलस्तर तेजी से गिरने का दुष्प्रभाव महंगाई के रूप में दिखरहाहै। मौसम विभाग ने इस साल सामान्य से अधिक वर्षा की भविष्यवाणी की है, पर मानसून ने केरल में एक हफ्ते देरी से दस्तक दी। इसका असर बुआई पर पड़ा है। खरीफ की फसल जून-जुलाई में बोई जाती है। इस बार 17 जून तक केवल 84.21 लाख हेक्टेयर रकबे पर गन्ना, धान, कपास, दाल, तिलहन, जूट आदि की बुआई हुई जबकि पिछले साल इसी तारीख तक 93.63 हेक्टेयर जमीन बोई जा चुकी थी। सरकार ने वर्ष 2016-17 में सत्ताईस करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित किया है, पर बुआई में देरी से यह लक्ष्य अर्जित करना कठिन हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल मूल्यवृद्धि का असर भी महंगाई पर पड़ रहा है। ताजा-ताजा लागू कृषि कल्याण उप-कर ने आग में घी डालने का काम किया है। अप्रैल माह में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में 0.8 प्रतिशत की गिरावट से बाजार का हौसला टूटा हुआ है। रोजगार के मोर्चे पर सरकार की विफलता भी अब किसी से छिपी नहीं है। सातवां वेतन आयोग लागू होने के बाद मुद्रास्फीति में और उछाल आना तय है। आज महंगाई का आलम यह है कि गली-मोहल्लों में फेरी लगाने वाले सब्जी के भाव किलो नहीं, पाव में बताते हैं। आलू-प्याज-टमाटर जैसी जरूरी चीज गरीबों के लिए सपना बन गई है। किलो भर सब्जी खरीदने की ‘अय्याशी’ तो अब मध्यवर्ग भी नहीं कर पाता। दामों में लगी आग उसे कंगाली की ओर धकेल रही है। दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सब्जी उत्पादकदेश होने के बावजूद हिंदुस्तान में लाखों लोग इससे महरूम हैं। दालों के दाम सुन कर तो अच्छा खाता-पीता इंसान भी गश खा सकता है। गरीबों के लिए प्रोटीन का सबसे बड़ा जरिया दालें हैं और जब ये नसीब न हों तो उन्हें कुपोषण की चपेट में आने से कौन बचा सकता है? हमारे देश में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है।
जिस रफ्तार से खाद्य महंगाई दौड़ रही है उसे देख कर यह बात दावे से कही जा सकती है कि निकट भविष्य में इस कमजोरी पर काबू पाना और कठिन हो जाएगा। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी और जापान जैसे विकसित देशों में आम आदमी की माली हालत हमसे कहीं बेहतर है, फिर भी वहां महंगाई का आंकड़ा पांच फीसद से नीचे है। हमारे देश में मुद्रास्फीति की दर कहीं ऊंची है और जनता की कमाई सीमित। ऐसे में महंगाई की गहरी मार का अंदाजा लगाने के लिए रॉकेट विज्ञान का ज्ञान जरूरी नहीं है। हमारी व्यवस्था में खोट है, वरना पर्याप्त सप्लाई के बाद भी खाद्य पदार्थ क्यों महंगे होते? कुछ लोगों का तर्क है कि चूंकि आम आदमी की आमदनी बढ़ी है, इसलिए खाद्य सामग्री की मांग में खासा इजाफा हुआ है। भाव भी इस वजह से बढ़े हैं। यह खोखला तर्क है क्योंकि महंगाई का कारण जमाखोरी, कालाबाजारी और कमजोर नियंत्रण तंत्र है। इन तीनों कमजोरियों पर सरकार काबू पा सकती है।