देह पर कब्जा और पुन:प्राप्ति– सुजाता

किसी मनुष्य के व्यक्ति होने के लिए सबसे अहम बात है कि उसके देह और मन या आत्मा को दो फांक करके अलग न कर दिया जाये. देह और चित्त की एकाग्रता किसी मनुष्य को उसके अस्तित्व और गरिमा के एहसास के लिए बेहद जरूरी है. एक ऐसे मनुष्य की कल्पना कीजिए, जिसके पास एक मन है, जिसे मारते रहना है और एक देह है, जिसके बारे में हर निर्देश और फैसला उसे मान्य करना है. एक ऐसी देह, जिसकी भूख-प्यास, इच्छा-अनिच्छा, आकार-प्रकार, ढकना-छिपाना, श्लील-अश्लील, उपयोग-अनुपयोग सब उन प्रतिमानों से तय होता है, जो खुद उसके बनाये नहीं हैं. जिसके पास देह हो, लेकिन वह विदेह रहे, ऐसा मनुष्य मनुष्य नहीं, एक वस्तु के समान है. 
ऐसी देह स्त्री है, जिसके पास कोख और योनि है, पर दोनों उसके अपने नहीं. वह संतान को कैसे-कब जन्म दे, यह फैसला हमेशा कोई और करता है. कभी गर्भपात अपराध है, तो कभी मातृत्व ही अपराध है. उसकी यौनिकता पर शुचिता के कई पहरे हैं. दलित स्त्रियों के साथ यौन हिंसा की खबरें अक्सर आती हैं. औरत को सबक सिखाने के लिए उसकी देह को ही घायल किया जाता है, कभी बलात्कार से, कभी एसिड फेंक कर. कोई बाहरी पुरुष लड़की का यौन-उत्पीड़न करता है, तो घर के पुरुष उस बात को इज्जत के नाम पर दबा देना चाहते हैं. धर्म के नाम पर होनेवाले दंगों में दूसरे धर्म की स्त्रियां ही यौन-हिंसा की शिकार होती हैं.
आज वे कबीलाई नहीं रहे, लेकिन मां-बहन को लक्षित कर अपनी भाषा से यह काम लेते हैं. आजादी की बात पर देह को बहुत छोटा और निरर्थक बना दिया जाता है, जबकि स्त्री की गुलामी और अपमान का सबसे बड़ा आधार उसकी देह है. स्त्री-देह वह स्पेस है, जहां किसी और का कब्जा है- धर्म, परिवार, समाज, बाजार, मीडिया और कानून का. इसलिए आजादी का एक बेहद जरूरी युद्ध भी वहीं लड़ा जाना है. इसके लिए जरूरी है कि स्त्री अपनी देह पर अपना दावा, अपना हक फिर से जताये. उसे रीक्लेम करे, उस देह के लिए, जो उससे छीन ली गयी है.
अब देखने की बात यह है कि स्त्री देह को कौन-कौन क्लेम करता है. परिवार, समाज, धर्म, बाजार, कानून या राज्य या सब? परिवार और समाज उसकी देह को क्लेम करते हैं, जब खानदान की ‘इज्जत’ का टोकरा उसके सर रखा जाता है. ‘मेरी देह मेरा चयन’ की बात वह समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता है, जहां इज्जत के नाम पर हत्याएं-आत्महत्याएं होती हों. 
मातृत्व और यौनिकता में चयन को लेकर उठी आपत्तियां स्त्री देह को उत्पाद या वस्तु की तरह इस्तेमाल किये जाने की छूट का नतीजा हैं. दैहिक संबंधों में अपनी इच्छा-अनिच्छा कह सकना स्त्री का अधिकार नहीं मानता समाज. मातृत्व पूज्य है, तो हर स्थिति में पूज्य होना चाहिए. अविवाहित मातृत्व भी. लेकिन देह का कौन सा धर्म पूज्य है और कौन सा तिरस्कार योग्य, यह पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री कभी तय नहीं कर सकती. वेश्यावृत्ति को अवैध मानते हुए कानून भी स्त्री-देह पर से स्त्रीके अधिकार को खारिज तो करता है, लेकिन उस तंत्र को नाकाम नहीं कर पाता, जिसके तहत औरतें इस व्यवसाय में लायी जाती हैं.
धर्म स्त्री देह को विभिन्न नैतिकताओं व आचार-संहिताओं में बांधता है. ऋग्वेद में लिखा है- स्त्री धरती की तरह है, जिसमें पुरुष बीजारोपण करता है. मनुस्मृति तो स्त्री को आजादी के ही काबिल नहीं मानती. ईसाई धर्म में गर्भपात पाप है, तो इसलाम में हलाला जैसी अपमानजनक प्रथाएं हैं. स्त्री को अपनी देह को पूरी तरह ढकना है, यह तक धर्म तय करता है. स्त्री-देह सामंती व्यवस्थाओं को कायम रखने का माध्यम बना दी जाती है.
बाजार अपनी तरह से स्त्री-देह का इस्तेमाल करता है. किसी ऑटो-एक्स्पो में एक कार को घेरे सुंदरियां मानव नहीं, देह हैं. सौंदर्य प्रसाधनों के विज्ञापन और फिल्में एक ऐसे संसार में ले जाती हैं, जहां स्त्री की देह ‘टू-बी-लुक्ड-एेट-नेस’ यानी खुद को देखे जाते हुए देखने की अभ्यस्तता, से ग्रस्त है; यानी जैसा तुम मुझे देखना चाहते हो, मैं वैसी हूं और तुम्हारे द्वारा वैसे ही देखे जाते हुए मैं प्रसन्न हूं. वहां उस स्त्री में से एक सहज मनुष्य गायब है. वह पुरुष दृष्टि से आत्म-निरीक्षण करती है. वह खुद को देखे जाते हुए देखती है. इससे अनभिज्ञ, वह अपनी ही देह की असहाय दर्शक हो जाती है. 
इसीलिए स्त्री-पुरुष देह को अलग-अलग तरह से समझते हैं. देह को हम विज्ञान की कक्षा में अलग तरह से जानते हैं. सड़क पर चलते हुए अलग तरह से. घर के भीतर, शादी-ब्याह-त्योहारों में अलग तरह से और एकदम अलग तरह से अस्पताल में.
ऐसा क्यों हुआ कि जो शरीर अस्पताल में और विज्ञान की कक्षा में केवल देह थे, वे सड़क, घर, मोहल्ले, दफ्तर में अलग-अलग तरह के अर्थों और मूल्यों को वहन करने लगे! देह भी एक सामाजिक-सांस्कृतिक-ऐतिहासिक अवधारणा है. खास तौर से स्त्री के संदर्भ में विभिन्न देशकाल में अलग-अलग तरह से देह को मन से ऐसे काटा गया कि स्त्री का केवल बायोलॉजिकल अस्तित्व बचा, उसमें आत्मा नहीं है. जैसे पेड़, मवेशी या संपत्ति- जैसे जर-जोरू-जमीन.
स्त्री-देह को शर्म के साथ जोड़ दिया गया. बलात्कार के बाद अपने ही शरीर से घृणा और अरुचि क्या सामाजिकता की देन नहीं? जैसे लड़की अपने अंतर्वस्त्र खरीदने के लिए छिपते-छिपाते जाती है, वैसे ही उन्हें अपने ही घर में धोकर सुखाने के लिए कोई छिपी हुई उपयुक्त जगह भी तलाशती है. शिशु का जन्म एक स्त्री को, उसकी देह, मन और जीवन को ट्रांस्फॉर्म करता है. ये शर्मिंदगी का विषय क्यों हो कि उसे कहीं भी अपने शिशु को स्तनपान कराना पड़ सकता है या यह भी कि अब वह वैसी छरहरी नहीं रही. इस परिवर्तित स्त्री को स्वीकारना होगा समाज को पूरी इज्जत के साथ. 
क्या लड़कियों को यह मालूम है कि उनकी देह के उनके अपने लिए क्या मायने हैं? अपनी ही देह पर तमाम बाहरी दावों- जो किसी धर्म, धार्मिक किताबों, टीवी या कोई पोस्टर, कोई मनोरंजक या फिल्मी साहित्य या अपने ही पड़ोसी और माता-पिता की ओर से आसकतेहैं- की आलोचना करना उसे सीखना होगा और सौंदर्य के प्रतिमान बदलने होंगे. इस सब में शिक्षा उसका सबसे बड़ा हथियार है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *