जो छात्र या छात्रा अपने विषय का उच्चारण भी ठीक से न कर पाए, फिर भी वह बिहार बोर्ड में टॉप कर जाए तो यह शिक्षा में भ्रष्टाचार को संस्थागत दर्जा दिलाने, सिस्टम की असफलता और गवर्नेंस में पैदा हुई सड़ांध की ओर इंगित करता है।
इस टॉपर घोटाले में अगर किसी स्कूल के मालिक बच्चा राय के साथ बिहार बोर्ड का अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद सिंह भी आकंठ डूबा हो, तो बीमारी के लक्षण साफ दिखने लगते हैं। और अगर बोर्ड अध्यक्ष की पत्नी उषा सिन्हा एक समय सत्ताधारी दल की विधायक हो और अगर बच्चा राय की तस्वीर जनमंचों पर किसी खिलखिलाते नीतीश या किसी कृतज्ञ लालू यादव के साथ छपे तो यह राजकाज में कैंसर के उस स्टेज को बताता है जिसे मेटास्टेसिस कहते हैं यानी शरीर के हर अंग में बीमारी का फैल जाना।
घटना उजागर होने के तीन दिन बाद एक सार्वजनिक मंच से प्रदेश के मुख्यमंत्री का निश्छल (?) स्वीकारोक्ति मिश्रित बचाव देखिए! उन्होंने कहा कि हम बच्चों को किसी तरह स्कूल लाने की योजना पर काम कर रहे हैं लेकिन हमारी कोशिशों में अड़ंगा डालने वालों की कमी नहीं है।
यह भी कि काम कीजिएगा तो कोई संत मिलेगा तो कोई महाशैतान। किसी का चेहरा देखकर कैसे पहचान सकते हैं कि वह क्या है? उसके मन में क्या चल रहा है। समाज में तरह-तरह के लोग हैं। तरह-तरह के नटवरलाल। कब किसको कहां ठग लेंगे कहना मुश्किल है। पर हम बैठने वाले नहीं हैं। सभी गड़बड़ियां दूर करेंगे। कोई दोषी नहीं बचेगा।
हम बैठक करके शिक्षामंत्री और अफसरों को निर्देश दे रहे हैं। इस समस्या को गंभीरता से लेना होगा। प्रबुद्ध लोगों को इस पर सोचना होगा। समाज में इक्का-दुक्का लोग ही गड़बड़ हैं। ऐसे लोगों को पकड़ना होगा, आदि इत्यादि। यानी वे ही बातें, जो कि इस तरह के अवसरों पर कही जाती हैं।
मुख्यमंत्री के संबोधन से लगा नहीं कि यह किसी ऐसे अक्षम मुख्यमंत्री की बातें हैं, जिसे अपने पर पश्चाताप होना चाहिए, बल्कि किसी संत का अपने भक्तों को उद्बोधन है, जिसमें संत कह रहा हो कि ऐ बिहारवासियो, नैतिक पतन की गर्त से बच्चा राय नहीं, लालकेश्वर प्रसाद सिंह नहीं, उषा सिन्हा नहीं, कोई सत्ताधारी नहीं, कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं, बल्कि तुम गिरे हो और हमारे पूरे प्रयास की बाद भी तुम इतने गलीज हो कि इस गर्त से ऊपर आ ही नहीं पा रहे हो।
दूसरा कुतर्क देखिए। उन्होंने कहा कि काम कीजिएगा तो कोई संत मिलेगा तो कोई महाशैतान। नहीं मुख्यमंत्री जी, आपका काम ही है शैतानों से अपने को हीं नहीं प्रदेश की जनता को बचना। किसी पर कोई अहसान नहीं है काम करना।
दरअसल शैतानों को पहचानते हुए, उन्हें खत्म करते हुए और संतों को तलाशते हुए ही काम करने की शर्त है। विश्वास नहीं होता कि सभ्य समाज के 70 साल के प्रजातंत्र के बाद किसी राज्य का अपेक्षाकृत शिक्षित मुखिया, जो कि 11 साल से शासन कर रहा हो, इतना लचर तर्क अपनी अक्षमता को समाज की नालायकी बताते हुए देगा।
यह राजतंत्र नहीं है, जिसमें राजा अपने इलहाम से लोगों को नापता है कि कौन नैतिक है और किसको पददेने चाहिए या किसको नहीं। आधुनिक शासन-प्रक्रिया में सिस्टम काम करता है मुख्यमंत्री का इलहाम नहीं। उषा सिन्हा का शिक्षा प्रमाणपत्र, लालकेश्वर प्रसाद के घर रोज बैठने वाले बच्चा राय और उसके साथियों का आना जाना ख्ाुद ही चिल्ला-चिल्लाकर पूरी हकीकत बयां कर रहा था लेकिन राजा भाव रखने वाले
मुख्यमंत्री और मंत्रियों तक ये आवाजें नहीं पहुंचतीं। राजनीतिक दल चलाने वाले लोगों का नैतिक दायित्व होता है कि समाज से फीडबैक लें। अगर यह फीडबैक दलालों के जरिए आएगा तो लालकेश्वर और बच्चा राय पहचाने नहीं जाएंगे बल्कि दिन दूना रात चौगुना धन-बल में बढ़ेंगे और एक दिन राजाभाव के मुख्यमंत्री के साथ जनमंच से फोटो भी खिंचवाकर अपने कुकर्मों को संस्थागतरूप से महिमामंडित करवा लेंगे। क्या राज्य की विधायिका चलाने के लिए इन नेताओं को उषा सिन्हा और मनोरमा देवी के अलावा कोई और नहीं मिलता?
क्या मनोरमा देवी के पति का सर्वविदित आचरण जानकर भी उसे टिकट देना अपरिहार्य था। मनोरमा देवी के बेटे ने हाल ही में सड़क पर एक युवा की गोली मारकर हत्या कर दी थी। उस समय नीतीश का मीडिया को नाराज तर्क था कि क्या बेटे की गलती के लिए किसी विधायक मां को सजा दी जाए?
क्या उषा सिन्हा का शिक्षा प्रमाण पत्र, जो 2010 के चुनाव में हलफनामे में दिया गया था, देखने के बाद भी टिकट दिया जा सकता था? उनके कौन रिश्तेदार और पति कितने सालों से कैसे शिक्षा माफिया बच्चा राय के साथ रोज की जगजाहिर नजदीकियां रखते हैं, इसे जानने के लिए क्या पूरे 11 सालों का अनुभव भी काफी नहीं है? पर हम बैठने वाले नहीं जुमला बोल कर सुशासन बाबू क्या यह बताना चाहते हैं कि 11 साल तक वह सोते रहे थे और प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था सड़ती रही थी।
शायद उन्हें भी नहीं मालूम होगा कि किस तरह शिक्षकों की तन्खवाह भी नहीं रिलीज होती है, जब तक ब्लॉक
और जिले के शिक्षाधिकारी पैसे नहीं लेते। शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम कि उत्प्रेरक योजना में सारे पैसे कागज पर ही खर्च दिखाए जाते हैं और हेडमास्टर से लेकर पूरा का पूरा शिक्षा विभाग पैसों की बंदरबांट वर्षों से कर रहा है और शिक्षा केवल कागजों पर बढ़ रही है।
यह धोखा है उन युवा छात्रों व छात्राओं के साथ जो भ्रष्टाचार की वेदी पर दम तोड़ रही व्यवस्था के कारण राष्ट्रीय
प्रतियोगिता में नहीं खड़े हो पा रहे हैं। संस्था असर की पिछले पांच साल की रिपोर्ट पर भी बिहार के मुख्यमंत्री अगर नजर डाल लें तो हकीकत पता चल जाएगी कि कक्षा पांचवीं के 62 प्रतिशत छात्र कक्षा दूसरी का ज्ञान भी नहीं रखते।
सन् 2014 में जब बोर्ड परीक्षा में दस टॉपर्स में से सात बच्चा राय के स्कूल के निकले तो किसी भ्ाी सतर्क मुख्यमंत्री या शिक्षा मंत्री के कान खड़े हो जाने चाहिए थे। राज्य खुफिया विभाग से बोर्ड अध्यक्ष और इस कॉलेज के मालिक बच्चा राय के संबंधों की जानकारी के बाद तो इस परीक्षा परिणाम को समझने के लिए कोई आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए।
संत और महाशैतान को पहचानने के लिए अलग विद्या की जरूरत नहीं होती। अगर जेल में रहते हुए भीकोईअपराधी शहाबुद्दीन इतनी ताकत रखता है कि किसी आवाज उठाने वाले पत्रकार को मरवा दे तो महाशैतान को शक्ति कौन दे रहा है, यह एक बच्चा भी बता सकता है। और फिर जब इस सजायाफ्ता खतरनाक अपराधी को वह पार्टी अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाती है, जिसके साथ चुनाव लड़कर सत्तानशीन हुआ गया है तो यह संत भाव क्या होता है, यह जानना मुश्किल नहीं होता। मौका मिलते ही काम करने वाले कौन हैं, यह कुछ घटनाओं को देख समझा जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
ये उनके निजी विचार हैं)