उच्च शिक्षा का दायरा जितना सीमित है, उसकी आंतरिक दुनिया उतनी ही रहस्यमय है। जनसामान्य की नजर से देखें तो कॉलेज या विश्वविद्यालय एक ऐसी जगह के रूप में दिखाई देंगे जहां बड़े लोगों के बच्चे डिग्री लेने जाते हैं। यह समझ इतनी गलत भी नहीं है, भले ही इधर के वर्षों में कॉलेज जाने वाले लड़के-लड़कियों का सामाजिक दायरा पहले की अपेक्षा कुछ फैला है। वहां डिग्री के दायरे से जाने वाली बात इसलिए सही है क्योंकि उच्च शिक्षा के अन्य उद््देश्य आज काफी सिकुड़े हुए नजर आते हैं। आज चल रहे अधिकांश संस्थानों को यदि कोई डिग्रियों के कारखाने की संज्ञा दे तो वह गलत नहीं होगी। ऐसी संस्थाएं कम ही दिखती हैं जहां डिग्री के अर्जन का अनुपात ज्ञान और विद्या से सजीव रूप से जुड़ा हो। भारत में उच्च शिक्षा तरह-तरह की कमजोरियों से ग्रस्त पहले से थी, आज उसके संस्थान नई-पुरानी कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हैं। कोई एक संकट नहीं है जिसकी वजह से उच्च शिक्षा का ढांचा चरमराता नजर आता है।
समाचारों में आज यह तो कल वह संस्था किसी न किसी वजह से आ जाती है, पर विश्लेषण के लिए जरूरी वक्त मीडिया नहीं निकाल पाता। इसलिए जून के आरंभ में एक शाम एक टीवी चैनल ने अपने लोकप्रिय कार्यक्रम में उच्च शिक्षा को चर्चा का विषय बनाया तो मुझे कुछ सुखद आश्चर्य हुआ। प्रसंग था दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों द्वारा किया जा रहा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के एक नए आदेश का विरोध। उपर्युक्त टीवी चैनल के संबंधित एंकर इन दिनों अपने कार्यक्रम की शुरुआत एक लंबी व्याख्या से करते हैं, फिर किसी मेहमान से बात करते हैं। उस शाम उनकी मेहमान थीं दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ की मौजूदा अध्यक्ष। आधे घंटे का कार्यक्रम कब शुरू हुआ और कब बीत गया पता ही नहीं चला और यह टीस छोड़ गया कि हमारे संकट की बारी आई पर व्यथा समझाई न जा सकी। एक दर्शक के रूप में यह अनुभूति मुझे शायद इसलिए हुई क्योंकि उच्च शिक्षा या अपने विश्वविद्यालय का संकट एक विषय नहीं है, जिंदगी का हिस्सा है। विशेष कष्ट वह इस कारण देता है क्योंकि संस्था या नीति का संकट मेरे छात्रों के जीवन में धुएं की तरह भर गया है। उनके दृष्टिकोण से उच्च शिक्षा की भीषण समस्याओं को देखना देश और समाज के अवसाद और वैचारिक माहौल की सड़न को स्पर्श करने जैसा है।
ऐसे निरंतर स्पर्श की हालत में कोई टीवी के पर्दे से आपका हाल पूछे तो यकायक तय करना कठिन होता है कि क्या बताएं और कहां से शुरू करें। टेलीविजन के संप्रेषण की अनिवार्य हड़बड़ी में यही हालत दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की मौजूदा अध्यक्ष की थी। पाठक अवश्य जानना चाहेंगे कि ऐसा क्या है इस संकट में जो टीवी जैसे व्यस्त माध्यम में आधा घंटा पाकर बेचैनी और घुटन को घटाने की जगह और बढ़ा देता है। इस स्वाभाविक जिज्ञासा का समाधान संकट के दो आयाम करते हैं। पहला आयाम उच्च शिक्षा के संकट के परिणामों का है जो समय बीतने के साथ-साथ गहनतर होते जा रहे हैं और जिनकी सांस्कृतिक कीमततेजी से बढ़ती जा रही है। जाहिर है, यह कीमत समाज ही चुकाएगा, भले वह संकट को समझने में आज असमर्थ हो या उससे बेगाना हो। दूसरा आयाम शिक्षा और शिक्षक के दैनिक कष्ट का है। यूजीसी के नए आदेश पर अमल होगा तो शिक्षक के कर्म का अपमान और बढ़ेगा, युवा विद्यार्थियों के लिए शिक्षा का अनुभव, जो पहले ही काफी दुर्बल है, और खोखला हो जाएगा। यह दूसरा आयाम अंतत: पहले आयाम में समा जाएगा और समाज को दोनों आयामों के मिल जाने से पैदा हुआ अंधेरा भर नजर आएगा। उच्च शिक्षा के संकट का पहला आयाम आज सबसे प्रखर रूप में शिक्षा के व्यापारीकरण के रूप में अभिव्यक्ति पा रहा है।
केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों द्वारा चलाए जाने वाले विश्वविद्यालय और कॉलेज वित्तीय अकाल से जूझ रहे हैं और निजी विश्वविद्यालय, इंजीनियरी व मेडिकल संस्थान और कॉलेज ऊंची से ऊंची फीस लेकर भी फल-फूल रहे हैं। इन दोनों स्थितियों में विरोधाभास देखना गलत है। दिल्ली विवि शिक्षक संघ की अध्यक्ष ने अपने वक्तव्य में कहा कि उच्च शिक्षा का निजीकरण इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि सरकारी संस्थाएं उजाड़ी जा रही हैं। शिक्षा की सार्वजनिक बहसों में लोग अक्सर पूछते हैं कि यह कोई नीति है या महज एक परिस्थिति है। अनिल सदगोपाल कई वर्षों से लगातार कह रहे हैं कि शिक्षा का निजीकरण नब्बे के दशक में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के मसविदे को मान कर लागू की गई आर्थिक दृष्टि और नीतियों का तार्किक परिणाम है। उस मसविदे की राजनैतिक स्वीकृति से बाजार की शक्ति बढ़ी है, राज्य की शक्ति और उसकी जिम्मेदारी की परिधि घटी है। यही नीति है, यही दिशा है।
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