भ्रष्टाचार के पैमाने पर सब समान– राजदीप सरदेसाई

महाराष्ट्र और पूरे देश में सत्ता का रियल एस्टेट से विवादास्पद रिश्ता रहा है। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण एक वाकया बताते हैं कि एक बार उन्होंने मुंबई में बहुमंजिला पार्किंग और अधिक प्लोर स्पेस इंडेक्स (एफएसआई) संबंधी जमीन के नियम बदलने का प्रयास किया, उद्‌देश्य था अधिक पारदर्शिता लाना। जब प्रस्ताव रखा गया तो कैबिनेट की बैठक में चुप्पी छा गई। चव्हाण ने कहा, ‘कैबिनेट के मेरे कुछ साथी मुझे ऐसे देखने लगे जैसे मैं कोई पाप करने जा रहा हूं।’ ऐसी प्रतिक्रिया पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मुंबई की गगनचुंबी इमारतों में हर नई मंजिल जुड़ने के साथ बिल्डर और उसके राजनीतिक हितैषी के लिए कई सौ करोड़ रुपए की गारंटी हो जाती है।

चव्हाण की तरह ही महाराष्ट्र के मौजूदा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी सम्माननीय व्यक्ति हैं। विपक्ष में रहते उन्होंने कुख्यात आदर्श घोटाले सहित कई भूमि घोटाले प्रकाश में लाए थे। सत्ता में आकर भी उन्होंने व्यक्तिगत ईमानदारी के लिए प्रतिष्ठा हासिल की है, जिसके वे जायज हकदार हैं। किंतु उनके पूर्ववर्ती की तरह उन्हें भी अहसास हो रहा है कि व्यक्तिगत ईमानदारी से व्यवस्थागत बदलाव की गारंटी नहीं होती। पिछले हफ्ते जमीन पर कब्जे के आरोप में महाराष्ट्र के राजस्व मंत्री एकनाथ खडसे का इस्तीफा इस बात का सबूत है कि सरकारें बदल भी जाएं तो कुछ बुरी आदतें नहीं बदलतीं। भ्रष्टाचार के खिलाफ खुले युद्ध की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने वादा किया था, ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा।’ कतर में अनिवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा कि उन्हें इसलिए निशाने पर लिया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने भ्रष्टों की ‘मिठाई बंद कर दी है।’ प्रधानमंत्री के इरादे पर संदेह करने वाले कम ही होंगे। आर्थिक भ्रष्टाचार को लेकर मोदी के कुर्ते-जैकेट पर अब तक तो दाग नहीं लगा है। उन्हें श्रेय है कि उन्होंने सत्ता का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति रखने वालों के दिल व दिमाग में कुछ डर तो पैदा किया है। किंतु मुख्यमंत्री पद का बड़ा पद चूकने वाले खडसे के खिलाफ प्रथम दृष्टि में भ्रष्टाचार का मामला बना है, उसे किस तरह लेंगे?

खडसे प्रकरण से तीन सबक मिलते हैं। एक, शीर्ष पर ईमानदार आदमी का होना इस बात की गारंटी नहीं है कि जिस टीम का वह नेतृत्व कर रहा है, वह भी उतनी ही ईमानदार होगी। जैसा कि दिल्ली में डॉ. मनमोहन सिंह अौर मुंबई में चव्हाण ने पाया कि गठबंधन सरकार में कैबिनेट मंत्री से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोपों पर कार्रवाई करना और भी कठिन हो जाता है (यही कारण है कि महाराष्ट्र के पूर्व लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल पर कार्रवाई तभी हो सकी जब सरकार बदली)। कम से कम मोदी और फडणवीस वरिष्ठ मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई तो कर सकते हैं, क्योंकि वे निश्चिंत हंै कि इससे सरकार नहीं गिरेगी। किंतु भाजपा अब भी खडसे की सार्वजनिक आलोचना करने में हिचकिचा रही है, यह तथ्य राजनीतिक ताकत की सीमा दर्शाता है। दबंग ओबीसी नेता के रूप में खडसे की छवि को देखते हुए भाजपा नहीं चाहती कि जातिगत समीकरणों में उसे गलत ढंग से देखा जाए।

दो, भ्रष्टाचार सारे दलों को एक स्तर पर लाने वाला तत्व है। भाजपा खुद को कांग्रेस की तुलना में ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ यानी अलग पार्टी कह सकती है, क्योंकि कांग्रेस ने सत्ता में अधिक वर्ष गुजारे हैं। निरपेक्ष सत्ता ने कांग्रेस को भ्रष्ट कर दिया और एक समय का यह दुर्जेय संगठन अब तेजी से विघटित होता ढांचा भर रह गया है। यही वजह है कि भाजपा के भ्रष्टाचार को उजागर करके भी कांग्रेस ज्यादा ध्यान नहीं खींच पाएगी। किंतु यह भी उत्तरोत्तर स्पष्ट होता जा रहा है कि जिन राज्यों में भाजपा इतने लंबे समय से सत्ता में है कि ‘मिठाई’ का लुत्फ ले सके, वहां इसके नेता व्यक्तिगत लाभ के लिए व्यवस्था का दुरुपयोग करने पर उतारू हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और यहां तक कि मोदी बाद के गुजरात के उदाहरण बताते हैं कि भ्रष्टाचार खासतौर पर कांग्रेस का ही अभयारण्य नहीं है। तीसरा और महत्वपूर्ण सबक यह है कि जमीन देशभर में राजनीतिक वर्ग के लिए पैसा इकट्‌ठा करने का प्राथमिक स्रोत है। देश में ऐसा एक भी राज्य नहीं है, जहां सत्तारूढ़ श्रेष्ठि वर्ग ने फायदा उठाने के लिए भूमि कानूनों के साथ छेड़छाड़ करनी न चाही हो। सबसे पसंदीदा तरीका है कृषि भूमि को व्यावसायिक उपयोग के लिए मुक्त कर देना। कलम के एक प्रहार से सैकड़ों एकड़ बेशकीमती जमीन बिल्डरों व उद्योगपतियों को उपलब्ध करा दी जाती है। इसके बदले में होेने वाला मुनाफा कई गुना अधिक होता है। यह मॉडल देश के महानगरों में और आसपास बहुत लाभदायक है, फिर चाहे मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरू या कोलकाता ही क्यों न हो।

पुणे उदाहरण है कि कैसे पूरे शहर का लैंडस्कैप राजनेता-बिल्डर-नौकरशाह-अंडरवर्ल्ड के गठजोड़ ने बदल दिया। किसी समय सेवानिवृत्त लोगों के सपनों का शहर अब कंक्रीट के दु:स्वप्न में बदल गया है। कुछ साल पहले पुणे महानगर पालिका ने पिंपरी-चिंचवड उपनगर में 66 हजार अवैध इमारतों का पता लगाया था। जब कलेक्टर ने उन्हें गिराना चाहा, उसका तबादला कर दिया गया। बिल्डरों ने गुहार लगाई तो सरकार ने सभी इमारतें वैध करार दे दी। विरोध कर रहे आरटीआई कार्यकर्ताओं की आवाज गैंगस्टरों ने दबा दी और अखबारों की खोजपरक रिपोर्टें भी धीरे से दफ़्न कर दी गईं। जहां एनसीपी नेता शरद पवार के भतीजे अजीत पवार शहर के असंदिग्ध राजनीतिक ‘सुप्रीमो’ माने जाते हैं, वहीं पुणे महानगर पालिका राज्य की हर पार्टी के ‘नापाक’ गठजोड़ की साक्षी रही है।

यह पुणे की ही बात नहीं है। पिछले साल किसी कार्यक्रम में मैं मुंबई के उपनगर वसई-विरार गया था। तीस साल पहले यहां के केले के हरे-भरे बाग और हरियाली महानगर के दम घोंटने वाले पर्यावरण से राहत देते थे। 1989-90 में मैं रिपोर्टरों की उस टीम में शामिल था, जिसने भंडाफोड़ किया था कि किस प्रकार जमीनें व्यावसायिक उपयोग के लिए मुक्त की जा रही हैं और विवाद निपटाने के लिए दाऊद गिरोह का इस्तेमाल हो रहा है। तब पवार के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार लगभग गिर ही गई थी। बाद के करीब तीन दशकों में धुआंधार निर्माण के चलते केले के बाग लगभग खत्म हो गए हैं। मैंने जब स्थानीय पत्रकारसेपूछा कि और क्या बदल गया है। उसका जवाब था, ‘कई नेता जिनका हमने भंडाफोड़ किया था, अब खुद बिल्डर हैं या निजी निर्माण कंपनियों में भागीदार हैं!’

 

पुनश्च : खडसे के खिलाफ अधिक गंभीर आरोपों में से एक यह है कि फोन रिकॉर्ड के मुताबिक वे दाऊद के संपर्क में थे। आरोपों की अभी पुष्टि नहीं की जा सकी है, लेकिन मुझे यहां एक असुविधाजनक प्रश्न उठाने दीजिए: यदि ऐसा ही फोन रिकॉर्ड यह दर्शाता कि दाऊद, असदुद्‌दीन अोवैसी या आजम खान के संपर्क में हैं तो क्या होता? तब ‘राष्ट्र-विरोधी’ होेने की कैसी बातें फैलाई जातीं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

 

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