रेलवे से एक ख़बर आई है – अब ‘जननी सेवा’ के तहत चुनिंदा ट्रेनों और स्टेशनों पर बच्चों के लिए दूध, गर्म पानी, बेबी फूड वगैरह उपलब्ध कराया जाएगा… इस ख़बर को इस संदर्भ में देखा जा रहा है कि इससे छोटे बच्चों को साथ लेकर चलने वालों के लिए ट्रेन का सफर आसान हो जाएगा… ख़बर अच्छी है भी, लेकिन मेरे नज़रिये से ‘प्रभु’ के इस तोहफे में थोड़े-से संशोधन की दरकार है…
मुझे यह डर है कि कहीं इस तरह की योजनाओं का असर समाज के ‘मानसिक विकास’ पर न हो… ‘मानसिक’ का संदर्भ यहां सामाजिक दृष्टिकोण और विकास से है… शायद आप सोच रहे हों कि इस ख़बर का सामाजिक दृष्टिकोण से क्या सरोकार है, लेकिन ज़रा सोचिए, आपके घर में जो छोटा बच्चा है, उसकी देखरेख की जिम्मेदारी किसकी है…? अगर आप महिला हैं, तो यकीनन आपकी होगी और अगर आप पुरुष हैं, तो आप इसमें अपनी पत्नी, बहन, भाभी या मां की मदद करते होंगे…
हमने स्त्री को इस कदर जननी (मां) की संज्ञा में बांध दिया है कि जनक (पिता) चाहकर भी उसके समान नहीं हो पाता… सो, इस स्तर पर बदलाव लाना भी बेहद ज़रूरी है… हमें सोचना होगा कि अगर स्त्री को समान स्तर पर लाना है, तो यह तभी संभव होगा, जब हम पुरुषों को भी समान स्तर पर ही रखें… पुरुषों को अधिक आंककर, क्यों उन्हें यह हक दिया जाए कि वह महिलाओं को समानता का हक दें… फिर बीच-बीच में हम औरत को अनेक बहानों से जैसे मां होने, बहन होने या पत्नी होने के नाते सम्मानित करते रहें, जबकि इनके समान भूमिकाएं पुरुष भी निभा रहे हैं… कहीं न कहीं इस असमानता का कारण इसी सम्मान के गर्त में छिपा है…
इस बात और ख़बर के बीच आखिर क्या समानता है…?
तो चलिए, इस बात को स्पष्ट किया जाए… रेलवे ने इस योजना का नाम रखा है ‘जननी सेवा’… इस नाम से एक बार फिर लोगों में संदेश जाएगा कि बच्चों का ख्याल रखने से जुड़ी हर बात केवल महिलाओं से जुड़ी है। क्यों नहीं इस सेवा का नाम ‘जननी-जनक सेवा’ या ‘शिशु सेवा’ या कुछ और रखा जाता…? कुछ भी, जिसमें केवल मां का ज़िक्र न हो, पुरुषों का भी हो… क्यों महिला को ही सेवाभाव में दबाकर रखा जाए और फिर समानता के दर्जे से सम्मानित किया जाए…?
अगर वास्तविकता के स्तर पर बात करें, तो बदलते समाज में कुछ पुरुष भी बच्चे की पूरी ज़िम्मेदारी लेते हैं, लेकिन तब भी ज़्यादातर मामलों में इसे केवल महिला की ‘मदद’ करना बताया जाता है, ज़िम्मेदारी उठाना नहीं… शायद हमारा समाज चाहता ही नहीं है कि पुरुष भी महिलाओं के क्षेत्र में हुनरमंद हो जाएं…
आप कोई भी विज्ञापन देखें, जिसमें बच्चों के पोषण, विकास या उनसे जुड़े किसी विषय पर बात हो रही हो… विज्ञापन में आपको मां ही दिखेगी, जो बच्चे के विकास या जो भी विज्ञापन का विषय हो, पर बोल रही होगी… आखिर क्यों…? क्या बच्चे के लम्बे होने, तेज़ दिमाग होने, और सुंदर दिखने की ज़िम्मेदारी मां (महिला) की ही है…?
शायद समाज महिलाओं को बराबरी देना चाहता है…तभी तो उनके लिए आरक्षण की बातें की जाती हैं, लेकिन ऐसे आरक्षण का क्या फायदा, जो घर के बाहर तक सीमित हो और घर की दहलीज़ में घुसते ही खत्म। और फिर से पुरुष ‘पुरुष’ बन जाए, और महिला ‘महिला’… क्यों घर में घुसते ही काम विभाजित हो जाते हैं, और इस विभाजन को तोड़ने का माद्दा रखने वाला कोई पुरुष अगर आगे बढ़कर महिला के काम करता भी है, तो उसे नाम दिया जाता है केवल ‘मदद’ का…
हो सकता है, कुछ लोग कहें कि ‘जननी सेवा’ नाम एक मां और स्त्री को सम्मान देने के लिए है… लेकिन माफ करना, मुझे इस नाम में सम्मान कम और सेवाभाव ज्यादा महसूस हो रहा है… यह नाम एक बार फिर पुरुषों को मुक्त और स्त्रियों को बाध्य होने का अहसास कराएगा…
…और अगर वाकई इस तरह सम्मान देना सार्थक होता है, तो क्यों न एक नया नाम देकर पुरुषों को ‘मददगार’ से हटकर ज़िम्मेदार बनाया जाए, एक नई सोच, एक नई धारा और एक नई दिशा का निर्माण किया जाए और उन्हें भी मौका दिया जाए सम्मानित होने का…
अनिता शर्मा एनडीटीवीख़बर.कॉम में चीफ-सब-एडिटर हैं…