टेक्नोलॉजी से दूर होंगी बीमारियां और गरीबी– डा अमित डिंडा

हेपेटाइटिस पर काबू पाने के लिए डॉ. डिंडा की टीम ने वह काम कर दिखाया, जो दुनिया में कहीं न हो सका। उधर, कल्याण ने गरीबी हटाने की बजाय प्रचुुरता व समृद्धि लाने का कमाल कर दिखाया।जानिए कैसे पाया मुकाम…
 
हेपेटाइटिस बी के ओरल वैक्सीन की दिशा में बड़ी कामयाबी​
 
दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के पैथोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉ. अमित कुमार डिंडा का छात्र जीवन से एक ही लक्ष्य रहा है, देश के लिए सस्ती चिकित्सा व्यवस्था का विकास। इसीलिए पैथोलॉजी में पीजी करने के बाद शोध के लिए उन्होंने कैंसर बायोलॉजी को चुना ताकि शरीर की रोग-प्रतिरोधक प्रणाली का गहराई से अध्ययन किया जा सके। उसके बाद उनका सारा काम रोग-प्रतिरोधक विज्ञान, कोशिका विज्ञान,जैव पदार्थ और नैनो मेडिसीन में रहा है। नैनो मेडिसीन में भी उनके सारे प्रोजेक्ट नैनो कणों के माध्यम से दवा पहुंचाने और डीएनए डिलिवरी सिस्टम से संबंधित रहे।

अपने शोध के दौरान उनके सामने बार-बार एक तथ्य आता कि देश में हेपेटाइटिस बी से संक्रमित 4 करोड़ रोगी हैं और हर साल 1 लाख रोगी लिवर सिरोसिस, लिवर कैंसर और हेपेटाइटिस वाइरस से लिवर के नाकाम हो जाने केे कारण मारे जाते हैं। रोकथाम पर जोर होने से उन्होंने वैक्सीन पर ध्यान केंद्रित किया। अभी इंजेक्शन से दिया जाने वाला वैक्सीन उपलब्ध है, जिसे क्रमश: एक और छह माह बाद दो बूस्टर इंजेक्शन भी देने पड़ते हैं। भारत में बड़ी आबादी गांवों में रहती है और इंजेक्शन वाला वैक्सीन जोखिमभरा हो सकता है। इंजेक्शन को ठीक से जंतुरहित नहीं किया तो हेपेटाइटिस के साथ एचआईवी का संक्रमण का खतरा रहता है।

 

डॉ. डिंडा को ऐसे वैक्सीन की जरूरत महसूस हुई, जिसमें ये सारी दिक्कतें न हों। इसका एक ही हल था मुंह से दिया जाने वाला ओरल वैक्सीन। डिंडा के नेतृत्व में एम्स के शोधकर्ताओं ने काम शुरू किया और इस साल ओरल हेपेटाइटिस बी वैक्सीन की दिशा में टीम को एक बड़ी सफलता मिली। नैनो इंजीनियरिंग से विकसित यह टेक्नोलॉजी चूहों पर आजमाई गई और एक डोज के बाद भी दो महीनों तक चूहों में रोग से लड़ने वाले कणों की भारी तादाद मौजूद थी। डॉ. डिंडा बताते हैं कि चूहों के दो माह मानव में 10 वर्ष के बराबर होते हैं।
शोधकर्ताओं ने डिटरजेंट जैसे पदार्थ की मदद से पोलीमर पदार्थ के नैनो यानी अत्यंत सूक्ष्म कण बनाए और उसमें रोग प्रतिरोधक कण पैदा करने वाला प्रोटीन डालकर चूहों के शरीर में पहुंचाया। नैनो पार्टिकल को सर्फेक्टेंट से कोट किया गया ताकि वह पेट के पाचक रसों से पच न जाए। प्रयोग चूहे के दो समूहों पर किया गया। जर्नल ‘वैक्सीन’ में प्रकाशित इस शोध पर बायो टेक्नोलॉजी विभाग ने पैसा लगाया है। इंजेक्शन वाला वैक्सीन बांह या जांघ पर लगाया जाता है, जहां से वह लिम्फ नोड में जाता है, लेकिन मुंह से दिया जाने वाला वैक्सीन 2-6 घंटों में सारे लिम्फ नोड में फैल जाता है। इन्हीं से रक्त में रोग प्रतिरोधक कण फैलते हैं।

 

 

मानव पर परीक्षणों के बाद हेपेटाइटिस बी का ओरल वैक्सीन2021 तक बाजार मंे आ जाएगा। प्रो. डिंडा के मुताबिक इस वैक्सीन के कई फायदे हैं। एक बार तैयार होने के बाद यह बहुत सुरक्षित होगा। इसकी कीमत बहुत कम होगी अौर बड़े पैमाने पर इस्तेमाल के लिए इंजेक्शन की तुलना में बहुत सुविधाजनक होगा। यह खासतौर पर ग्रामीण इलाकों के लिए उपयोगी होगा, जहां वैक्सीन के पहले इंजेक्शन के बाद अक्सर बाद के बूस्टर डोज़ भुला दिए जाते हैं।
मुंह से पिलाए जाने वाले वैक्सीन को बूस्टर डोज की जरूरत ही नहीं होती। इसके कोई साइड इफेक्ट नहीं हैं। सबसे बड़ी बात इन्हें कमरे के सामान्य तापमान पर भी सुरक्षित रखा जा सकता है, जबकि इंजेक्शन से दिए जाने वाले वैक्सीन को कम तापमान में रखना पड़ता है। इसमें खून के संक्रमित होने की कोई आशंका नहीं है अौर यह 20 फीसदी अधिक सुरक्षा देता है। चूंकि वैक्सीन मुंह से लेना होता है, इसलिए इसमें इंजेक्शन से होने वाली तकलीफ की कोई गुंजाइश नहीं है।

 

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