पिछले दिनों भारत की दो नौकाओं और कोई दस मछुआरों को पाकिस्तान की समुद्री पुलिस ने पकड़ लिया, कहा गया कि वे उनके देश की सीमा में घुस आए थे। उसके दो दिन बाद ही कच्छ में बीएसएफ ने पाकिस्तान के अठारह मछुआरे पकड़े। कहा गया कि ये भारतीय सीमा में चौंतीस किलोमीटर भीतर घुस आए थे। पाकिस्तान के थट्टा जिले के शाहपुर ब्लाक के चचा जानखां गांव के इन मछुआरों में तीन तो बारह से सत्रह साल के नाबालिग हैं। श्रीलंका में कैद सैकड़ों मछुआरों को छुड़वाने के लिए चेन्नई में प्रदर्शन हो रहे हैं; यों यह वहां बड़ा राजनीतिक मुद्दा भी है।
पीढ़ियों से समुद्र में मछली पकड़ कर पेट पाल रहे लोग यह नहीं जान पाते हैं कि पानी पर कहां लकीरें खिंची हैं और जब दूसरे देश में बंदी बनाए जाते हैं तो उनकी दुनिया ही बदल जाती है। ठीक ऐसा ही पाकिस्तान या श्रीलंका के मछुआरों के साथ भारत में भी होता है। कुछ महीनों पहले रूस के ऊफा शहर में भारत-पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों के बीच हुई वार्ता के बाद दोनों देशों की जेलों में बंद मछुआरों की हो रही रिहाई के साथ ही ऐसी कई कहानियां सामने आ रही हैं। दोनों तरफ एक-से किस्से हैं, एक-सा दर्द है- गलती से नाव उस तरफ चली गई, उन्हें घुसपैठिया या जासूस करार दे दिया गया, सजा पूरी होने के बाद भी रिहाई नहीं, जेल का नारकीय जीवन, साथ के कैदियों द्वारा शक से देखना, आधा पेट भोजन, मछली पकड़ने से तौबा…।
एक दूसरे देश के मछुआरों को पकड़ कर वाहवाही लूटने का यह सिलसिला न जाने कैसे सन 1987 में शुरू हुआ, और तब से तुमने मेरे इतने पकड़े तो मैं भी तुम्हारे उससे ज्यादा पकडूंगा की तर्ज पर समुद्र में इंसानों का शिकार होने लगा। कराची जेल के अधीक्षक मोहम्मद हसन सेहतो के मुताबिक उनकी जेल में छह सौ साठ भारतीय हैं जिनमें से ज्यादातर मछुआरे हैं और इन्हें अरब सागर में जल-सीमा का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि वहां उनका पेट, धर्म, भाषा, सबकुछ संकट में है।
पिछले महीने ही गुजरात का एक मछुआरा दरिया में तो गया था मछली पकड़ने, लेकिन लौटा तो उसका शरीर गोलियों से छिदा हुआ था। उसे पाकिस्तान की समुद्री पुलिस ने गोलियां मारी थीं। ‘‘इब्राहीम हैदरी (कराची) का हनीफ जब पकड़ा गया था तो महज सोलह साल का था, आज जब वह तेईस साल बाद घर लौटा तो पीढ़ियां बदल गर्इं, उसकी भी उमर ढल गई। इसी गांव का हैदर अपने घर तो लौट आया, लेकिन वह अपने पिंड की जुबान ‘सिंधी’ लगभग भूल चुका है, उसकी जगह वह हिंदी या गुजराती बोलता है। उसके अपने साथ के कई लोगों का इंतकाल हो गया और उसके आसपास अब नाती-पोते घूम रहे हैं जो पूछते हैं कि यह इंसान कौन है।” पानी पर लकीरें खींचना नामुमकिन है, लेकिन कुछ लोग चाहते हैं कि हवा, पानी, भावनाएं सबकुछ बांट दिया जाए।
भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान में साझा सागर के किनारे रहने वाले कोई डेढ़ करोड़ परिवार सदियों से समुद्र सेनिकलने वाली मछलियों से अपना घर चलाते हैं। जैसे कि मछली को पता नहीं कि वह किस मुल्क की सीमा में घुस रही है, वैसे ही विभिन्न देशों की सरकारें भी तय नहीं कर पा रही हैं कि आखिर समुद्र के असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए। सबसे ज्यादा भयावह अनुभव भारत व पाकिस्तान के उन मछुआरों के हैं जो एक दूसरे के देशों में रहे हैं। भारत और पाकिस्तान में साझा अरब सागर के किनारे रहने वाले कोई सत्तर लाख परिवार सदियों से समुद्र से निकलने वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए। कच्छ के रन के पास सर क्रीक विवाद सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। असल में वहां पानी से हुए कटाव की जमीन को नापना लगभग असंभव है क्योंकि पानी से आए रोज जमीन कट रही है और वहां का भूगोल बदल रहा है।
दोनों मुल्कों के बीच की कथित सीमा कोई साठ मील यानी लगभग सौ किलोमीटर में विस्तारित है। कई बार तूफान आ जाते हैं तो कई बार मछुआरों को अंदाजा नहीं रहता कि वे किस दिशा में जा रहे हैं, परिणामस्वरूप वे एक दूसरे के सीमाई बलों द्वारा पकड़ लिए जाते हैं। कई बार तो इनकी मौत भी हो जाती है व घर तक उसकी खबर नहीं पहुंचती। जिस तरह भारत में तटरक्षक बल और बीएसएफ सक्रिय हैं, ठीक उसी तरह पाकिस्तान में समुद्र पर एमएसए यानी मेरीटाइम सिक्युरिटी एजेंसी की निगाहें रहती हैं। मछली पकड़ते समय एक दूसरे देश के जाल में फंसे लोगों में भारत के गुजरात के और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोग ही अधिकांश होते हैं।
जब से शहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किलोमीटर तक तेल रिसने, शहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूषणों के कारण समुद्री जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है। अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जो खुले समुद्र में आए तो वहां सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव होता है और वहीं दोनों देशों के बीच के कटु संबंध, शक और साजिशों की संभावनाओं के शिकार मछुआरे हो जाते हैं। जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा तलाशी करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिये गए लोगों को वापस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है।
इन गरीब मछुआरों के पास पैसा-कौड़ी तो होता नहीं, सो ये ‘गुड वर्क’ के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिये, जासूस, खबरी जैसे मुकदमे उन पर होते हैं। वे दूसरी तरफ की बोली-भाषा भी नहीं जानते, इस तरह अदालत में क्या हो रहा है उससे बेखबर होते हैं। कई बार इसी का फायदा उठा कर अभियोजन पक्ष उनसे जज के सामने हां कहलवा देता है और वे अनजाने में ही देशद्रोह जैसे अरोप में दोषी बन जाते हैं। कई-कई साल बाद उनके खत अपनों के पास पहुंचते हैं। फिर लिखा-पढ़ी का दौर चलता है। सालों-साल बीत जाते हैं और जब दोनों देशों की सरकारें एक-दूसरे के प्रति कुछसदिच्छादिखाना चाहती हैं तो कुछ मछुआरों को रिहा कर दिया जाता है।
दो महीने पहले रिहा हुए पाकिस्तान के मछुआरों के एक समूह में एक आठ साल का बच्चा अपने बाप के साथ रिहा नहीं हो पाया, क्योंकि उसके कागज पूरे नहीं थे। वह बच्चा आज भी जामनगर की बच्चा जेल में है। ऐसे ही हाल ही में पाकिस्तान द्वारा रिहा किए गए एक सौ तिरसठ भारतीय मछुआरों के दल में एक दस साल का बच्चा भी है जिसने सौंगध खा ली कि वह भूखा मर जाएगा, लेकिन मछली पकड़ने को अपना व्यवसाय नहीं बनाएगा।
भारत और पाकिस्तान के बीच जब सद्भावना दिखाने की कूटनीतिक जरूरत महसूस की जाती है, तो एक तरफ से कुछ मछुआरे रिहा किए जाते हैं। फिर, वैसा ही कदम दूसरी तरफ से यानी पड़ोसी देश की सरकार की तरफ से भी उठाया जाता है। मानो ये कैदी इंसान नहीं, कूटनीति के मोहरे भर हैं। जब कूटनीतिक गरज हो तब इनमें से कुछ को छोड़ दो, बाकी समय इनकी त्रासदी की तरफ से आंख मूंदे रहो। जब सरबजीत जैसा कोई मामला तूल पकड़ लेता है, तो भावनात्मक उबाल आ जाता है। पर परदेस के कैदियों की बाबत कोई ठोस नीति और आचार संहिता बनाने की पहल क्यों नहीं होती?
वैसे भारत ने अपने सीमावर्ती इलाके के मछुआरों को सुरक्षा पहचान पत्र देने, उनकी नावों को चिह्नित करने और नावों पर ट्रैकिंग डिवाइस लगाने का काम शुरू किया है। श्रीलंका और पाकिस्तान में भी ऐसे प्रयास हो रहे हैं। लेकिन जब तक भारत और पाकिस्तान अपने डाटाबेस को एक दूसरे से साझा नहीं करते, तब तक बात बनने वाली नहीं है। बीते दो दशक के आंकड़े देखें तो पाएंगे कि दोनों तरफ पकड़े गए अधिकतर मछुआरे अशिक्षित हैं, चालीस फीसद कम उम्र के हैं, कुछ तो दस से सोलह साल के। ऐसे में तकनीक से ज्यादा मानवीय दृष्टिकोण इस समस्या के निदान में सार्थक होगा। मानवाधिकारों के मद््देनजर इस बारे में एक साझा नीति बननी चाहिए।
यहां जानना जरूरी है कि भारत और पाकिस्तान के बीच सर क्रीक वाला सीमा विवाद भले न सुलझे, लेकिन मछुआरों को इस जिल्लत से छुटकारा दिलाना कठिन नहीं है। एमआरडीसी यानी मेरीटाइम रिस्क रिडक्शन सेंटर की स्थापना कर इस प्रक्रिया को सरल किया जा सकता है। यदि दूसरे देश का कोई व्यक्ति किसी आपत्तिजनक वस्तु जैसे हथियार, संचार उपकरण या अन्य खुफिया यंत्रों के बगैर मिलता है तो उसे तत्काल रिहा किया जाए। पकड़े गए लोगों की सूचना चौबीस घंटे में ही दूसरे देश को देना जरूरी हो। दोनों तरफ माकूल कानूनी सहायता मुहैया करवा कर इस तनाव को दूर किया जा सकता है। वैसे समुद्री सीमा विवाद के निपटारे के लिए बनाए गए संयुक्तराष्ट्र के कानूनों (यूएन सीएलओ) में वे सभी प्रावधान मौजूद हैं जिनसे मछुआरों के जीवन को नारकीय होने से बचाया जा सकता है। जरूरत तो बस उन प्रावधानों पर ईमानदारी से अमल करने की है।