यह तय है कि आला अधिकारी, अस्पताल प्रबंधन, डॉक्टर, तकनीशियन आदि सभी एक-दूसरे पर इसका जिम्मा ढोलकर बेफिक्र हो जाएंगे। अंतत: सभी इससे बरी हो जाएंगे और आगे भी इसी तरह सरकारी अस्पतालों में हादसों का खेल चलता रहेगा। सरकारी महकमों में घटनाओं से सबक लेकर सुधार करने का रिवाज ही नहींहै। यही वजह है कि शिक्षा हो या स्वास्थ्य, लोग महंगी सेवाओं के बावजूद प्रायवेट स्कूलों और अस्पतालों का ही रुख करते हैं। सरकारी अस्पतालों में मजबूर और आर्थिक रूप से विपन्न् मरीज ही सामान्यत: पहुंचते हैं। वे यहां स्वास्थ्य लाभ और जीवन की आशा में जाते हैं और अमूमन बदहाल स्थिति व मृत्यु की घोर निराशा के साथ लौटते हैं। सरकारी डॉक्टर अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। लेकिन उन्हें अस्पताल में मरीजों को सेवाएं देने के बनिस्बत प्राइवेट प्रैक्टिस अधिक प्यारी है। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर और मरीज के बीच दर्द का रिश्ता खत्म हो चुका है।
निश्चय ही यह यक्ष-प्रश्न है कि ऐसे हालात में सरकार करे तो क्या करे? केवल दंड का निर्धारण किसी समस्या का हल नहीं है। एकाध छोटे कर्मचारी के निलंबन से मासूम की मां के आंसू नहीं पोंछे जा सकेंगे। क्या हो, जिससे सरकारी अस्पताल भी निजी चिकित्सालयों की तर्ज पर जिम्मेदारी लेने के लिए चौबीस घंटे मुस्तैद नजर आएं? जाहिर है, मिशनरी भावना से काम किए बगैर किसी भी अस्पताल का चेहरा मानवीय नहीं होगा, और ना ही अस्पताल का कोई कर्मचारी देवदूत लगेगा। पूर्ण समर्पण, पूर्ण सतर्कता और संवेदनशीलता के साथ एक-एक मरीज के समयबद्ध निदान और उपचार के द्वारा ही सरकारी अस्पताल अपनी खोई साख पुन: अर्जित कर सकते हैं। लेकिन ये सब वे मूल्य हैं, जो सचिवालय से चलकर नहीं आते और ना ही राजनीतिक भाषणों में पिलाए जा सकते हैं। ये मूल्य अपने भीतर जगाने होते हैं। इन मूल्यों के बिना सरकारी अस्पतालों के वास्तविक कायाकल्प का दूसरा कोई विकल्प नहीं।
(लेखक सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)