पिछले दिनों मैगी विवाद ने खाने-पीने की चीजों में मिलावट के मामले को चर्चा का विषय बना दिया था। ताजा मामला डबल रोटी में खतरनाक रसायनों के मिलाने का है। बहुत सारे घरों में सुबह नाश्ते के समय खाई जाने वाली बे्रड और बेकरी के उत्पादों में कैंसर पैदा करने वाले रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है। सेंटर फार साइंस एंड इनवार्नमेंट (सीएसई) ने बे्रड, पाव, बन, बर्गर बे्रड और पिज्जाबे्रड आदि के अड़तीस नमूनों की जांच की। इनमें से चौरासी फीसद नमूनों में पोटेशियम ब्रोमेट और आयोडेट के अंश मिले। बे्रड बनाने के दौरान आटे में इन नुकसानदेहरसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। लगभग सभी अव्वल ब्रांडों के बे्रड उत्पादों में ये रसायन मिले हैं। इन रसायनों को कई देशों में प्रतिबंधित किया जा चुका है। इन रसायनों के बिना भी बे्रड बनाया जा सकता है। इस संदर्भ में केंद्रीय स्वास्थ्यमंत्री ने अफसरों को तुरंत जांच करके रिपोर्ट देने को कहा है।
चिकित्सक कई बीमारियों के लिए मिलावटी खाद्य पदार्थों को ही जिम्मेवार बताते हैं। जिगर, दिल की बीमारियों और कैंसर के मामलों के तेजी से बढ़ने की सबसे बड़ी वजह खाद्य पदार्थों में मिलावट है। खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने की तमाम कोशिशों के बाद भी बाजार में मौजूद खाने-पीने की ज्यादातर चीजों के शुद्ध देने का भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआइए) द्वारा तैंतीस राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में कराए गए सर्वे में झारखंड, बिहार, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ व पश्चिम बंगाल के शत-प्रतिशत दूध नमूनों में मिलावट पाई गई। दक्षिण के राज्यों में भी दूध में मिलावट का धंधा फल-फूल रहा है। रिपोर्ट के अनुसार दूध में फैट, एसएनएफ, ग्लूकोज, स्टार्च, साल्ट, वेजीटेबल फैट, पाउडर, एसिड आदि तत्त्व पाए गए। पानी की मात्रा भी अधिक पाई गई। कई नमूनों की जांच में तो डिटर्जेंट व यूरिया जैसे खतरनाक तत्त्व भी पाए गए। सिर्फ गोवा और पुदुुच्चेरी में सभी नमूने सही पाए गए। एफएसएसआइए ने देश भर से जांच के लिए 1791 नमूने लिये थे। इनमें उनहत्तर फीसद नमूनों में मिलावट पाई गई। सिंथेटिक दूध से लेकर जहरीला सिंथेटिक घी भी बाजार में बिक रहा है। यह भारत ही है जहां इस कदर हो रही मिलावट को सरकार भी बर्दाश्त करती रहती है और जनता भी।
दिल्ली सरकार ने मिलावटखोरी को रोकने के लिए एक नया कानून लागू करने की घोषणा की थी। इसके तहत दोषी पाए गए लोगों को दस लाख रुपए तक का जुर्माना या आजीवन कारावास तक की सजा होगी। कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने भी लगभग इसी आशय की घोषणा की थी, जिसमें मिलावटखोरों के खिलाफ सख्ती बरतने के साथ-साथ जांच में गड़बड़ी करने वाले निरीक्षकों को भी दंडित करने की बात थी। लेकिन व्यवहार में अभी तक कुछ नहीं हुआ है और मिलावट के धंधेबाज धड़ल्ले से सक्रिय हैं। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के कई जिलों में मिलावटी वस्तुओं के उत्पादन का धंधा बड़े पैमाने पर होता है। मिलावट के कारोबार में मध्यप्रदेश भी पीछे नहीं है। पशुओं से अधिक दूध निकालने या सामान्य से ज्यादा सब्जियों के उत्पादन के लिए आॅक्सीटोसिन नामक हारमोन का इस्तेमाल धड़ल्लेसे किया जाता है। इसके अलावा, फलों को समय से पहले पकाने या सब्जियों कोे दिखने में ताजा और आकर्षक बनाने की खातिर भी कई घातक रसायनों का प्रयोग वे करते हैं। दालों को चमकीला बनाने के लिए या मसालों में जिन रंगों का प्रयोग किया जाता है, उनका असर किसी से छिपा नहीं है। तंत्रिका तंत्र, हृदय, गुर्दे से संबंधित कई गंभीर बीमारियों के कारण ये कैंसर तक की वजह बन सकते हैं।
सिंथेटिक दूध रासायनिक उर्वरकों (यूरिया), वनस्पति घी, डिटर्जेंट, ब्लीचिंग पाउडर व चीनी को मिला कर बनाया जाता है तथा सस्ते दामों पर बेचा जाता है। दूध की कमी के दौर में अगर सस्ता दूध मिल जाए तो गरीब आदमी उसे खरीदेगा ही। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ तत्त्व सिंथेटिक दूध बनाने के मामले में चर्चित रहे हैं। उनकी धनलिप्सा ने न जाने कितने लोगों व बच्चों को कैंसर का मरीज बना दिया होगा। सिंथेटिक दूध को लेकर शोर-शराबा तो काफी मचा लेकिन किसी के पकड़े जाने व दंडित होने का समाचार नहीं मिला। इससे ऐसे तत्त्वों का दुस्साहस बढ़ा और अब सिंथेटिक देसी घी की बड़े पैमाने पर हो रही बिक्री ने लोगों के कान खड़े कर दिए हैं। इस तरह का धंधा सबसे अधिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में होता है। कुछ मामले पकड़े भी गए हैं। पर उनके खिलाफ क्या कार्रवाई हुई यह किसी को पता नहीं है। कुछ ताकतवर माफिया किस्म के राजनीतिक ऐसे धंधों के संरक्षक हैं और प्रदेश की सत्ता तक उनकी पहुंच होने के कारण कानून उनका बाल भी बांका नहीं कर पाता है। पर यह समाज, राष्ट्र और प्रदेश की जनता के साथ भारी धोखा है।
विशेषज्ञों के अनुसार सिंथेटिक दूध और घी बनाने में मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक रसायनों, उर्वरकों, कीटनाशकों, क्रूड वैक्स तथा इंडोनेशिया से आयातित पाम आॅयल (स्टाइरिन), तंबाकू व जूट का तेल इस्तेमाल किया जाता है। यह पाम आॅयल सस्ता तथा साबुन व डिटर्जेंट बनाने में इस्तेमाल होता है। इस सारे मिश्रण को देसी घी का रूप देने के लिए घी की खुशबू वाला एसैंस व रंग मिलाया जाता है। ये सब चीजें ऐेसी होती हैं जो कैंसर पैदा करती हैं। लोगों को भ्रमित करने के लिए इस नकली घी के निर्माता इसकी पैकिंग पर अपने जाली पते छापते हैं। इतना ही नहीं, लोगों को आकर्षित करने के लिए घी की पैकिंग पर लोकप्रिय से लगने वाले ब्रांडों के नाम अंकित किए जाते हैं। दिल्ली समेत उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अस्सी से अधिक जाली ब्रांडों पर यह जहरीला घी बिक रहा है। यही नहीं, वे लोगों को भ्रमित करने के लिए इस घी के पैकेटों व डिब्बों पर ‘एगमार्क’ भी छापते हैं। उल्लेखनीय है कि ‘एगमार्क’ की मोहर वही उत्पादकअपने उत्पादों पर इस्तेमाल कर सकता है जिसकी शुद्धता खाद्य व स्वास्थ्य विभाग द्वारा प्रमाणित हो तथा जिसके पास शुुद्धता बनाए रखने और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए अपनी प्रयोगशाला हो तथा वह कड़े मानदंडों का पालन करता हो।
ऐसा लगता है कि जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे इन नकली घी निर्माताओं तथा ‘एगमार्क’ का प्रमाणपत्र देने वाले अधिकारियों, सरकारी जांचएजेंसियोंव राज्य सरकारों के अधिकारियों के बीच मिलीभगत है। दिल्ली डेयरी प्रोडक्ट ट्रेडर्स एसोसिएशन के अनुसार इस समय गाय-भैसोें के दूध से तीन हजार टन असली देसी घी रोजाना ानाया जाता है, वहीं सिंथेटिक देसी घी बनाने वाले रोजाना चार हजार टन माल बाजार में बिक्री के लिए भेजते हैं तथा बारह हजार करोड़ रुपए से अधिक की धनराशि डकार जाते हैं। कुछ माह पूर्व पंजाब और पूर्वी उ.प्र. के कुछ शहरों में सहकारी क्षेत्र की एक प्रमुख दुग्ध पदार्थ निर्माता कंपनी की पैकिंग से मिलती-जुलती पैकिंग में मिलावटी घी पकड़ा गया था। दुर्भाग्य से, और सरकार की नाकामी से, आज लोगों को खतरनाक नकली दूध व नकली घी खाने को मजबूर होकर स्वास्थ्य से हाथ धोना पड़ रहा है।
इस संकट से निपटने के जो उपाय फिलहाल लागू हैं वे इतने लचर हैं कि नकल का धंधा आसानी से फलता-फूलता रहता है। न तो निगरानी और जांच का तंत्र काम करता दिखता है और न कानूनी कार्रवाई आगे बढ़ पाती है। पुलिस ऐसे अपराधों को गंभीरता से नहीं लेती, इसलिए वह अपनी तरफ से छापेमारी में दिलचस्पी नहीं लेती। इसीलिए नकली माल पकड़े जाने और मुकदमे चलने की दर एक फीसद से भी कम है। फिर सजा इतनी कम है कि मिलावटखोरों पर कोई असर नहीं पड़ता। हालांकि मिलावट का धंधा पूरी दुनिया में चलता है। लेकिन भारत जैसे गरीब और पिछड़े देश पर इसका असर किसी महामारी से कम नहीं माना जाना चाहिए। क्या कोई देश ऐसे हालात को लंबे समय तक झेल सकता है? क्या कुछ लोगों को पूरी आबादी की सेहत और जिंदगी से खिलवाड़ की इजाजत दी जा सकती है?
कोई भी नागरिक इन सवालों का जवाब ‘नहीं’ में देगा। लेकिन इसके साथ उपभोक्ता जागरूकता, कानूनी सख्ती और सक्षम निगरानी का स्थायी ढांचा खड़ा करना पड़ेगा। मिलावट से निपटने में सरकार और उपभोक्ता मंचों की बड़ी जिम्मेदारी तो बनती ही है, कंपनियां भी इस मामले में अपनी भूमिका से मुकर नहीं सकती हैं। होता यह है कि कई कंपनियां अपने ब्रांड की नकल पर ज्यादा शोर नहीं मचाती, क्योंकि उन्हें नकारात्मक प्रचार का डर रहता है। जाहिर है, इस संकोच के साथ मिलावटखोरों व नक्कालों से नहीं निपटा जा सकता।
देश का प्रशासन तंत्र इतना बिगड़ चुका है कि जिन लोगों को ऐसे समाज के विरोधी त्त्त्वों पर छापे मारने का दायित्व सौंपा गया है वे इनसे ‘महीना’ बांध इस ओर से आंखें मूंदे रहते हैं। भ्रष्टाचार की यह राशि नीचे से लेकर ऊपर तक पहुंचती है। उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती कि वे नकली व मिलावटी खाद्य वस्तुओं, नकली दवाइयों आदि से देश की जनता के स्वास्थ्य से कितना भयानक खिलवाड़ कर रहे हैं। आमतौर पर कुछ सस्ते मूल्य पर बिकने वाली ये वस्तुएं अधिकांशतया गरीब लोग ही खरीदते हैं। सरकार को इस खतरनाक प्राणघातक व्यापार में लगे समाज विरोधी तत्त्वों व उन्हें संरक्षण दे रहे अधिकारियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।