न्यायपालिका को तो बख्श दें: एन के सिंह

फ्रांस के समाजशास्त्री अलेक्सी डे टॉक्विले और ब्रिटेन के राजनीतिक दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल, दोनों ने 25 साल के अंतराल में लोकतंत्र के दो नए खतरों के प्रति आगाह किया था। पहले का मानना था कि इसमें बहुमत के आतंक के शिकार व्यक्ति के पास बचने का कोई चारा नहीं होता।

दूसरे ने इस भय की ओर इंगित किया था कि प्रजातंत्र मात्र एक शासन पद्धति न होकर असंगठित भीड़ की पसंद और नापसंद को देशवासियों पर बलात थोपने की प्रक्रिया है। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में अमेरिका में जैकसोनियन प्रजातंत्र की पूरे यूरोप में चर्चा थी। इसी चर्चा से प्रभावित होकर टॉक्विले प्रजातंत्र के नए रूप का अध्ययन करने अमेरिका जा पहुंचे थे। वहां से लौटकर 1835 में उन्होंने अमेरिका में प्रजातंत्र शीर्षक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने बहुमत के आतंक से आगाह किया। टॉक्विले का कहना था कि प्रजातंत्र की कमियों को लेकर अब तक की यूरोपीय अवधारणा से हट कर जो सबसे बड़ा खतरा है, वह बहुमत के आतंक का है।

अगर कोई इस आतंक से प्रताडि़त होता है, तो फिर वह किसके पास जाए? जनमत के पास, जो कि उसी बहुमत वाले के पास है या फिर विधायिका के पास, जिसमें उसी बहुमत के लोग चुनकर आए हैं, या कार्यपालिका के पास, जो उसी बहुमत की सरकार द्वारा नियुक्त की गई है या न्यायपालिका के पास, जो इसी बहुमत के लोगों द्वारा स्थापित है? भारत के संविधान में एक गनीमत है कि यूरोप या अमेरिका से हटकर न्यायपालिका स्वतंत्र है और यही एक सहारा है। लेकिन उसे भी लक्ष्मण-रेखा दिखाई जा रही है।

आज हम जिस मोड़ पर खड़े हैं, उसमें यह खतरा अक्सर सामने आता दिखाई देता है। भारतीय समाज अनगिनत पहचान समूहों में बंटा है और सत्ता में जगह पाने की जबर्दस्त लड़ाई चल रही है। राजनीति शास्त्र के सिद्धांत हमें बताते हैं कि प्रजातंत्र में जन-धरातल पर तो इस तरह की लड़ाई अनवरत रूप से चलती रहती है, लेकिन सत्ता में आया दल निर्विकार भाव से कुछ पूर्व-स्थापित मूल्यों, संविधान और परंपराओं के अनुरूप शासन करता है। इस सब में एक लक्ष्मण-रेखा होती है। जब पहचान समूह या समूहों के बल पर सत्ता में आया दल या दलों का गठबंधन दूसरे समूहों को एक सीमा से ज्यादा नजरअंदाज या दरकिनार करने की कोशिश करता है, तो कई असंतुलन बनते हैं। ऐसे में, अक्सर मीडिया या न्यायपालिका तनकर खड़ा हो जाता है। यह प्रजातंत्र की खूबसूरती है कि जब कोई एक संस्था किसी एक ओर झुकने लगती है, तो दूसरी संस्था संतुलन बिठाने के लिए अपनी भूमिका में थोड़ा विस्तार करती है। ऐसे में, अक्सर मीडिया का कवरेज बढ़ जाता है, उसकी भाषा तल्ख हो जाती है और न्यायपालिका का रुख भी सख्त होने लग जाता है।

नरेंद्र मोदी सरकार के एक मंत्री मीडिया के लिए प्रेस्टीच्यूट (प्रेस और वेश्या को मिलाकर बनाया गया शब्द) का इस्तेमाल करते हैं। फिर हमें यह शाप सुनाई देता है कि जो ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलेगा, वह पापी है। दूसरे ही दिन ऐसे तमाम लोगों को पाकिस्तान भेजने का एलान भी आ जाता है और तीसरे दिन इसपाप से बचाने के लिए कानून बनाकर मजबूर करने की धमकी भी मिल जाती है। इसे सिर्फ अल्पसंख्यकों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, यह शायद उन सभी के लिए है, जो उनके इस भाव से सहमति नहीं रखते। इस तरह की चीजों को किसी मंत्री या सांसद का अतिवादी बयान मानकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

यह लगातार चल रहा है, और ऐसे लोगों को रोकने या उनके खिलाफ कार्रवाई की कोई कोशिश भी नहीं हो रही। इससे लगता है कि कहीं यह भाव सरकार की परोक्ष नीति ही तो नहीं है? इसमें सबसे परेशानी वाली बात इन सबसे बना माहौल है, जो एक खास तरह का आवेश पैदा करता है। इसी आवेश के चलते जब अखलाक मारा जाता है, तो एक जिम्मेदार मंत्री पूछता है कि क्या सरकार ने मारा? क्या भाजपा ने मारा? बेशक नहीं, लेकिन जब सत्ता से जुड़े लोगों द्वारा माहौल बनाया जाता है, तो एक वर्ग में उन्माद बढ़ता है और वह वर्ग पार्टी को खुश करने के लिए यह जानने निकल पड़ता है कि अखलाक के यहां कौन-सा गोश्त पका है?

यूपीए सरकार के दौर में जब 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर देश की हर संस्था ने सरकार के रवैये को गलत बताना शुरू किया, जब कैग की रिपोर्ट के आते ही मीडिया ने भ्रष्टाचार पर जबर्दस्त कवरेज किया, तो इसका असर देश की सामूहिक चेतना पर भी दिखाई दिया था। इसके बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने सत्ता में बैठे लोगों पर भरोसा न करते हुए भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच अपनी देख-रेख में करानी शुरू की और जब शीर्ष अदालत ने देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी को ‘पिंजड़े में बंद तोता’कहा, तो उस समय के विपक्ष के नेताओं को न मीडिया गलत लगा और न ही देश की न्यायपालिका। इन्हीं सबसे जो भूमिका बनी थी, उनके आधार पर ही वे सत्ता में आए।

उन्हें अब यह लग रहा है कि न्यायपालिका अपनी हद से आगे जा रही है। अब सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री देश को बता रहे हैं कि न्यायपालिका कदम-दर-कदम और ईंट-दर-ईंट विधायिका को नुकसान पहुंचा रही है, जो देश के लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। न्यायपालिका पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने के आरोप बहुत पहले से लगते रहे हैं। लेकिन इनका सुर अक्सर राजनीतिक होता है। इससे जुडे़ गंभीर सवालों पर राजनीतिक दल चर्चा नहीं करते। यह कभी नहीं सोचा जाता कि न्यायपालिका तमाम संस्थाओं को दिशा-निर्देश देने को मजबूर क्यों हो जाती है? न्यायपालिका की आलोचना भी जरूरी है, लेकिन राजनीतिक हितों के लिए न्यायपालिका को बाधा बताए जाने को उचित नहीं ठहराया जा सकता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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