काला या गोरा, धन तो आया– अनिल रघुराज

कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं. इसी तरह अपने यहां केंद्र सरकार की असली चाल-ढाल पहले दो-ढाई साल में ही दिख जाती है. बाद का आधा कार्यकाल तो अगले चुनावों का माहौल बनाने में चला जाता है. नरेंद्र मोदी सरकार के साथ तो यह भी दिक्कत है कि कार्यकाल के तीसरे साल में उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे अहम राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं. इसलिए वो शायद ही अब कोई ऐसा फैसला करे, जिससे जनभावनाएं आहत हों. इसका संकेत अभी से मिलने लगा है, जब केंद्र ने आक्रामक श्रम सुधारों से पीछे हटने का फैसला कर लिया है.

भाजपा नेतृत्व भी अभी से 2019 की तैयारी में जुट गया है. तभी तो असम में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि 2019 की मजबूत नींव रख दी गयी है. दुनिया के अंदर भारत के सम्मान को बढ़ाने में प्रधानमंत्री मोदी को जो अप्रत्याशित सफलता मिली है, वो इस चुनाव में देखने को मिलती है. कहां असम और कहां प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्राएं! खैर, राजनीति में इस तरह की प्लास्टिक सर्जरी चलती रहती है. संदर्भवश बता दें कि प्रधानमंत्री अगले महीने सात जून से फिर दो दिन की अमेरिका यात्रा पर जा रहे हैं.

स्वदेशी में रची-बसी भाजपा-नीत एनडीए सरकार का यह विदेशी मुलम्मा थोड़ा चौंकाता जरूर है. लेकिन हकीकत यही है कि उसने अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर सबसे ज्यादा दिखनेवाली उपलब्धि विदेशी मोर्चे पर ही हासिल की है. तीन दिन बाद जब यह सरकार अपनी दूसरी वर्षगांठ बनाने जा रही है, तब इस पहलू पर गौर करना जरूरी है. बाकी तो ढोल-नगाड़े के शोर में बहुत सारी आवाजें सुनने को मिलेंगी. सुनने को मिलेगा कि जीडीपी कितना बढ़ गया, सामाजिक सुरक्षा कितनी बढ़ा दी गयी, किसानों का कितना कल्याण हुआ और उद्योग पहले से कितना ज्यादा प्रसन्नचित्त हो गये हैं. लेकिन इसे शोर को शांत करने के लिए सिर्फ एक ही सरकारी तथ्य काफी है कि साल 2015 में टेक्सटाइल, लेदर, मेटल, ऑटोमोबाइल, रत्न व आभूषण, ट्रांसपोर्ट, आइटी/ बीपीओ और हैंडलूम/ पावरलूम जैसे आठ सबसे ज्यादा रोजगार देनेवाले उद्योगों में केवल 1.35 लाख रोजगार के नये अवसर पैदा हुए हैं, जबकि उससे पहले के दो सालों में क्रमशः 4.21 लाख और 4.19 लाख रोजगार पैदा हुए थे. ध्यान दें कि भाजपा का वादा साल में दो करोड़ नये रोजगार पैदा करने का था, जबकि हर साल रोजगार पाने की लाइन में 1.3 करोड़ नये लोग जुड़ जा रहे हैं.

भाजपा का एक और बहुचर्चित वादा था कि वो सरकार बनाने के 100 दिनों में ही विदेश में जमा भारतीयों का अरबों डॉलर का काला धन ले आयेगी. खुद प्रधानमंत्री मोदी ने एक चुनावी सभा में कहा था कि ये काला धन देश में आ जाये, तो हर भारतवासी के खाते में 15-20 लाख रुपये आ जायेंगे. हालांकि, अमित शाह अब स्वीकार कर चुके हैं कि यह एक चुनावी जुमला था. हमें भी इसे स्वीकार कर लेना चाहिए, क्योंकि जिस तरह कंपनियां अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए बढ़े-चढ़े विज्ञापन करती हैं, कालेको गोरा बनाने का दावा करती हैं, उसी तरह राजनीतिक पार्टियां वोट पाने के लिए जनभावनाओं का शिकार करती हैं. यह एक अमिट सच्चाई है.

 

लेकिन, काले धन के सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि देश में बीते वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान रिकॉर्ड मात्रा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) आया है. इस दौरान देश में 55.5 अरब डॉलर का एफडीआइ आया है, जो साल भर पहले की अपेक्षा 22.8 प्रतिशत अधिक है. इसे अगर हम 65 रुपये प्रति डॉलर के हिसाब से रुपये में बदलें, तो कुल रकम 3,60,750 करोड़ रुपये निकलती है. इसमें 125 करोड़ की आबादी से भाग दें तो प्रति भारतवासी यह विदेश रकम 2886 रुपये निकलती है. 15 लाख रुपये एक गिनती थी और 2886 रुपये एक वास्तविक आंकड़ा है. जुमले और हकीकत का यह फर्क हमें 
समझना चाहिए.

 

दुनिया की मशहूर रेटिंग एजेंसी मूडीज रिसर्च ने भी इस उपलब्धि के लिए मोदी सरकार की तारीफ की है. उसका कहना है कि भारत में विदेशी निवेश का बढ़ता प्रवाह उसकी बाहर से ऋण लेने की जरूरत को कम करता जायेगा और इससे चालू खाते के घाटे के बढ़ने का अंदेशा भी घट जायेगा. असल में सरकार ने अर्थव्यवस्था के विविध क्षेत्रों को जिस तरह खोला है और निरंतर खोलती जा रही है, उसके पीछे सोच यही है कि कमाई को तरस रही विदेशी पूंजी भारत में ज्यादा से ज्यादा मात्रा में आकर संभावनाएं तलाशे.

लेकिन चिंता की बात यह है कि विदेशी पूंजी की इस पिनक में सरकार ने अपना और अपने जैसों का राजनीतिक हित भी साध लिया है. इस बार वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में विदेशी सहयोग नियमन अधिनियम, 2010 में एक संशोधन प्रस्ताव रखा था, जो विदेशी कंपनियों को एनजीओ ही नहीं, राजनीतिक पार्टियों को भी चंदा देने की इजाजत देता है. यह संशोधन कांग्रेस के समर्थन से लोकसभा में पास चुका है और मनी बिल होने के कारण इसे राज्यसभा से पास करवाने की कोई जरूरत नहीं है. मतलब साफ है कि अब विदेशी धन राजनीतिक पार्टियों में भी बेधड़क आ सकता है. कानून बन जाने के बाद संभवतः सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ चल रहा मामला खुद-ब-खुद टांय-टांय फिस्स हो जायेगा.

चिंता की दूसरी बात यह है कि जब देश में विदेशी पूंजी आने का रिकॉर्ड बना रही है, उसी समय भारतीय अवाम की जमा रकम का प्रवाह सूखता जा रहा है. आम भारतीय अपनी अधिकांश बचत बैंकों में ही रखते हैं. रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2015-16 में हमारे बैंकों की कुल जमाराशि में मात्र 9.91 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. यह दर 1962-63 के बाद यानी, पिछले 53 सालों की सबसे न्यूनतम दर है. यही नहीं, बाजार रुझान से पता चला है कि लोगों ने सोने और रियल एस्टेट में भी कम निवेश किया है. विदेशी बम-बम, देशी कम-कम. आखिर स्वदेशी सरकार की इस विदेशी लहक का राज क्या है?

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