आमतौर पर बच्चों के सामने किसी गंभीर बात पर चर्चा करते हुए हम सोचते हैं कि बच्चा है, नहीं समझेगा। लेकिन कई बार हमारी यह समझ उनकी समझ के आगे बौनी हो जाती है। जैसे वक्त के साथ हर चीज बदल रही है, वैसे ही बचपन भी बदल रहा है। मासूम और नादान बचपन अब समझदार और परिपक्व हो रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बचपन को संवारने या बिगाड़ने में परिवार की भूमिका बेहद अहम होती है। अगर बच्चा एकल परिवार से है तो भी संजीदगी से देखने पर आप जान सकते हैं और अगर संयुक्त परिवार से है तो यह भी उसका व्यवहार बता ही देगा। बच्चे को देख कर परिवार के संदर्भ में अंदाजा लगाना आसान रहा है, लेकिन यह अब पुरानी बात हो चली है। अब तो किसी बच्चे को देख कर अंदाजा सिर्फ परिवार का नहीं लगाना है, यह भी देखना है कि इस बच्चे के मां-बाप साथ हैं या नहीं, वे साथ रहते हैं या नहीं, उनके बीच संबंध मधुर हैं या नहीं। यह सब इसलिए कि अब बचपन का रूप-रंग और स्थितियां बदल रही हैं।
एक तेरह साल का बच्चा जब आत्महत्या के बारे में सोचने लगता है तो वह अपने आप में एक बड़ी और घातक बात सोच रहा होता है। लेकिन जब एक बच्चा इसलिए आत्महत्या करने के बारे में सोच रहा हो कि उसे यह महसूस हुआ कि पैसों की बदौलत ही यह दुनिया चल रही है, जिसमें उसे जीना नहीं चाहिए, तो यह केवल बड़ा और घातक नहीं, ज्यादा गौरतलब और चिंताजनक है। दरअसल, वह अपने मां-बाप को साथ देखना चाहता था, जो फिलहाल अलग-अलग थे। अब यह सोचिए कि क्या इसे किसी तरह बचपन की सोच कहा जाए! क्या एक मासूम को इस दुनिया में लाने के बाद इस हालत में छोड़ा जाना उसके बचपन के साथ इंसाफ था? क्या उसे इस तरह की मानसिक स्थिति से गुजरने देना उसके साथ न्याय था? इसके लिए किसकी जिम्मेदारी बनती है? क्या केवल वह परिवार, या फिर एक समूची व्यवस्था इस तरह का संजाल रचती है?
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