जयललिता और ममता, दोनों अपने दलों को कड़ाई से नियंत्रित वन-वुमन शो की तरह चलाती हैं : क्या कोई जानता है कि उनके दलों में नंबर दो कौन है, एेसा कोई जिसे इनका राजनीतिक उत्तराधिकारी कहा जा सके? पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु से गुजरते हुए आपको अन्नाद्रमुक या तृणमूल कांग्रेस के किसी अन्य नेता का पोस्टर नहीं दिखेगा। नतीजा यह है कि शीर्ष पर बैठे व्यक्ति से ही पार्टी की पहचान है। वैकल्पिक सत्ता केंद्र के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। कांग्रेस में मां-बेटा है, भाजपा में नरेंद्र मोदी को कई मौकों पर अमित शाह या अरुण जेटली तक को जगह देनी पड़ती है।
अम्मा और दीदी, दोनों अपने अनुयायियों और विधायकों में आदर व भय की मिश्रित भावना पैदा करती हैं, जो लगभग धमकाए जाने जैसी ही भावना है। किसी अन्नाद्रमुक सांसद को टीवी शो पर आमंत्रित कीजिए और तत्काल प्रतिक्रिया मिलती है, ‘मुझे अम्मा से पूछना पड़ेगा।’ इसके बाद वह शख्स गायब ही हो जाता है। तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेता बोलने के लिए थोड़े उत्सुक होते हैं, लेकिन पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी की तरह असहमति प्रकट करने वाले नेताओं को अहसास करा दिया जाता है कि पार्टी में उनके दिन पूरे हो गए हैं। संभव है कि नेतृत्व की यह निर्दय, अस्थिर किस्म की शैली पार्टी में पुरुषों को लगातार धमकाकर रखने के लिए जान-बूझकर विकसित की गई है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में शायद गढ़ी हुई सनक की कुछ मात्रा यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि वे अपनी नेता को हल्के में न लें। पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेलवन ने ‘सुप्रीमो’ के सामने दंडवत प्रणाम किया था। पार्टी के भीतर जयललिता की छवि का इससे बेहतर प्रतीक नहीं हो सकता। शायद ममता चापलूसी के
ऐसे सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति न दें, लेकिन निजी स्तर पर तृणमूल नेताओं से अपेक्षा रहती है वे हर वक्त ‘बॉस’ की ‘सेवा’ में रहें।
फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वे जन-जन की नेता हैं और मतदाताओं से खासतौर पर महिलाओं से तत्काल संवाद साध लेती हैं। दोनों अपनी राजनीति सावधानीपूर्वक रची गई गरीब समर्थक छवि कायम रखने में कामयाब रही हैं। जयललिता की शराब नीति चाहे भरोसा तोड़ने वाली रही, लेकिन अब वे पूर्ण शराबबंदी की बात कर स्थिति संभालने में लगी हैं। ममता का ‘मां, माटी, मानुष’ का नारा चाहे खोखला नज़र आता हो, लेकिन इससे वंचितों के नेता की उनकी छवि पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा है। उनके राजनीतिक कॅरिअर कई उतार-चढ़ाव से गुजरे हैं, लेकिन दोनों नेताओं ने संघर्ष नहीं छोड़ा: दो दशक से भी ज्यादा समय तक ममता बंगाल में लाल सेना के खिलाफ अकेली योद्धा रही हैं, जबकि जयललिता जेल जाती-आती रही हैं। कठिन समय में उनका लचीलापन, सत्ता की उनकी लालसा के साथ विपरीत स्थिति को मात देकर जीत हासिल करने का दृढ़संकल्प भी जाहिर करता है।
दोनों को शायद इस तथ्य का फायदा मिला है कि उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी प्रासंगिकता साबित करने के लिए संघर्षरत हैं। डीएमके-कांग्रेस गठबंधन का नेतृत्व 93 वर्षीय एम. करुणानिधि कर रहे हैं। लगभग तय है कि यह उनकी अंतिम राजनीतिक लड़ाई है, जबकि बंगाल में वाम-कांग्रेस गठबंधन हताशा में की गई जोड़-तोड़ भर है। ज्यादातर जनमत संग्रह संकेत देते हैं कि दोनों सत्ता में लौटेंगी। वे जीतें या न जीतें, लेकिन एक बात तय है : प्रासंगिक बने रहने की उनकी सहज-वृत्ति और लार्जर देन लाइफ व्यक्तित्व से यह सुनिश्चित होता है कि वे संघर्ष नहीं छोड़ने वालीं।