सपनों से परे– मनोज कुमार

एक अबोध मन की कल्पना इस दुनिया की सबसे सुंदर रचना होती है। कभी किसी छोटे-से बच्चे को निहारिए। वह सबसे बेखबर अपनी ही दुनिया में खोया होता है। जाने वह क्या देखता है! अनायास कभी वह मुस्करा देता है तो कभी भयभीत हो जाता है। कभी खुद से बात करने की कोशिश करता है तो कभी वह सोच की मुद्रा में पड़ जाता है। तब उसे यह नहीं पता होता कि हाथी किस तरह का होता है या शेर कभी हमला भी कर सकता है! चिड़िया की चहचह उनका मन मोह लेती है तो बंदर की उछल-कूद उसके लिए एक खेल होता है। सच से परे वह अपनी दुनिया खुद बुनता है। शायद इसीलिए हमारे समाज में बच्चों के खेल-खिलौनों का आविष्कार हुआ। बंदर से लेकर चिड़िया और गुड्डे-गुड़िया या घर-गृहस्थी के सामान बच्चों के खेल में शामिल होते थे। नन्हें बच्चे का आहिस्ता-आहिस्ता दुनिया से परिचय होता था।

एक वह समय था जब मां-बाप के पास भी वक्त होता था। वे अपने बच्चों को बढ़ते देख कर प्रसन्न होते थे। यह वही समय होता था जब मां लोरी सुना कर और बच्चों को थपथपा कर स्नेहपूर्वक नींद के आगोश में भेजती थी। शायद इसी समय से शुरू होता था मां का स्कूल। इस स्कूल में मां का स्नेह तो था ही, जीवन का सबक भी बच्चा यहीं से सीखता था। यानी बड़ों का सम्मान करना और छोटों से प्यार। यह वही समय था वह पर्व-त्योहारों को मनाए जाते देख कर उनके भावों को अपने दिमाग में उतारता था। वह रंगों का मतलब जानता था। पतंग की डोर से वह जीत की सीख लेता था। लेकिन इस जीत की सीख में उसके पास संवेदनाएं भी थीं। वह जीतना चाहता था, लेकिन किसी की पराजय उसका लक्ष्य नहीं था।

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