जीवन-मरण का वैश्विक प्रश्न— निरंकार सिंह

जब ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा शुरू हुई थी, तब इस प्रकार के आकलन की वैज्ञानिकता पर काफी सवाल उठाए गए थे। लेकिन धीरे-धीरे वे सवाल खामोश होते गए। अब पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ने तथा इसके फलस्वरूप जलवायु संकट तीव्रतर होने की हकीकत पर मतभेद की गुंजाइश नहीं रह गई है। दुनिया भर के वैज्ञानिक अब यह अनुभव करने लगे हैं कि हम आधुनिक विकास के जिस रास्ते पर चल रहे हैं वह हमारे विनाश का कारण बन सकता है। इसका यह नतीजा है कि आज हमारे लिए सांस लेने को न तो शुद्ध हवा है और न पीने के लिए साफ पानी बचा है। लेकिन अब खतरा इससे भी बड़ा आने वाला है। भविष्य की तस्वीर बड़ी भयावह है।

अगर सब कुछ इसी तरह चलता रहा तो 2030 तक दस करोड़ लोग सिर्फ गरमाती धरती की वजह से मौत के मुंह में समा जाएंगे। बीस विकासशील देशों की ओर से करवाए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में यह आशंका जताई गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण 2030 तक अमेरिका और चीन के जीडीपी में 2.1 फीसद जबकि भारत के जीडीपी में पांच प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। धरती के गरमाने से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। इससे धरती के धु्रवों पर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है, जिससे समुद्र का जल-स्तर बढ़ रहा है। यह समुद्र के किनारे बसे शहरों तथा महानगरों और तमाम द्वीपीय देशों के लिए भयानक खतरे की घंटी है। असल में यह उनके लिए वजूद का सवाल है।

जलवायु परिवर्तन के कारण वायु प्रदूषण, भूख और बीमारी से हर साल पचास लाख लोगों की मौत हो जाती है। 2030 तक हर साल साठ लाख लोगों की मौत इस वजह होगी। इस दर से अगले पंद्रह साल यानी 2030 तक नौ करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन के शिकार होंगे। इनमें से नब्बे फीसद मौतें विकासशील देशों में होंगी। यह खतरा प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, वनों के कटान और आधुनिक विकास की नई-नई तकनीकों के कारण पैदा हुआ है।

विकासशील देशों की इस अध्ययन रिपोर्ट में 2010 और 2030 में 184 देशों पर जलवायु परिवर्तन के आर्थिक असर का आकलन किया गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल विश्व के जीडीपी में 1.6 फीसद यानी बारह सौ खरब डॉलर की कमी हो रही है। अगर जलवायु परिवर्तन के कारण धरती का तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो 2030 तक यह कमी 3.2 फीसद हो जाएगी और इस सदी के अंत तक यह आंकड़ा दस फीसद को पार कर जाएगा। जबकि जलवायु परिवर्तन से लड़ते हुए कम कार्बन पैदा करने वाली अर्थव्यवस्था को खड़ा करने में विश्व जीडीपी का मात्र आधा फीसद खर्च होगा।

जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर गरीब देशों पर होगा। 2030 तक उनके जीडीपी में ग्यारह फीसद तक की कमी आ सकती है। एक अनुमान के मुताबिक धरती के तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी से कृषि उत्पादन में दस प्रतिशत की गिरावट आती है। अगर बांग्लादेश का उदाहरण लिया जाए तो उसके खाद्यान्न उत्पादन में चालीस लाख टन की कमीआएगी। हर साल पृथ्वी पर जल और खनिजों समेत प्राकृतिक संसाधनों के जबर्दस्त दोहन से जंगल साफ हो रहे हैं। पीनेयोग्य पानी की कमी है। लिहाजा भूकम्प, सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं। इन परिघटनाओं से समझा जा सकता है कि आज दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है? यों तमाम उद्योग घराने और नीति नियंता अब भी जीडीपी की वृद्धि दर की ही रट लगाए रहते हैं, मानो यही सब कुछ हो।

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