ताकि बैंकों की साख कायम रहे- एन के सिंह

हेनरी पॉलसन के मुताबिक, ‘अगर कोई आर्थिक-तंत्र बिखरता है, तो फिर उसे पटरी पर लाना वाकई बहुत-बहुत मुश्किल हो जाता है।’ भारत का वित्तीय क्षेत्र अभी गंभीर संकट में उलझा हुआ है। और यह संकट मुख्यत: सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों, यानी एनपीए के कारण पैदा हुआ है। 31 दिसंबर, 2015 तक 24 सूचीबद्ध सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल एनपीए 3,93,035 करोड़ रुपये था।

 

अगर इसमें जोखिम वाले कर्जों को जोड़ दिया जाए, तो यह आंकड़ा आठ लाख करोड़ रुपये को भी पार कर जाएगा। रिजर्व बैंक ने सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों के लिए मार्च, 2017 तक अपनी बैलेंस शीट दुरुस्त कर लेने की समय-सीमा तय कर दी है। इससे इन बैंकों पर दबाव बढ़ गया है। समस्या की गंभीरता को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेते हुए रिजर्व बैंक से यह कहा है कि वह 500 करोड़ रुपये से ज्यादा के डिफॉल्टर लोगों की विस्तृत जानकारी अदालत में पेश करे।
इन एनपीए की बढ़ने की मुख्य वजह बड़े कर्जधारक हैं।

 

रिजर्व बैंक के अनुसार, कुल एनपीए की एक-तिहाई रकम के जिम्मेदार 30 बड़े डिफॉल्टर हैं। मार्च 2015 तक, सिर्फ 44 कर्जधारकों के पास ही भारत के शीर्ष पांच सार्वजनिक बैंकों के करीब 4.87 लाख करोड़ रुपये बकाया थे। विजय माल्या के मामले ने साफ कर दिया है कि ‘बैड लोन’ यानी डूबते कर्ज की जड़ें कितनी गहरी हैं। उनकी कंपनी किंगफिशर एयरलाइन्स के पास 17 बैंकों के कम से कम 7,000 करोड़ रुपये बकाया हैं। हालांकि विनिर्माण, लोहा, इस्पात, वस्त्र, उड्डयन और खनन जैसे क्षेत्रों में भी एनपीए कम नहीं हैं।

चूंकि बैंक भारत की वित्तीय प्रणाली की बुनियाद हैं, इसलिए इनको संकट से उबारने के लिए केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक लगातार कोशिशों में जुटे हैं। इसी क्रम में, केंद्र सरकार ने पिछले वर्ष इंद्रधनुष योजना की शुरुआत की। जल्दी ही बैंक बोर्ड ब्यूरो भी काम करना शुरू कर देगा, ताकि बैंकों की कार्य-प्रणाली को बेहतर बनाया जा सके। ऋण वसूली न्यायाधिकरण को मजबूत बनाने और राष्ट्रीय निवेश व ढांचागत कोष (एनआईआईएफ) के गठन पर भी काम चल रहा है।

इसके अलावा, ऊर्जा, कोयला, राजमार्ग, चीनी व इस्पात क्षेत्रों में भी संस्थागत बदलाव में सरकार जुटी है, ताकि वित्तीय क्षेत्रों पर आए दबाव को कम किया जा सके। इसके अलावा, रिजर्व बैंक ने बासल-तीन मानदंडों के संदर्भ में भी कुछ नियमों में बदलाव किए हैं। एक जुलाई, 2015 को रिजर्व बैंक द्वारा जारी दिशा-निर्देश में बैंकों को कहा गया था कि वे कुछ लोन एकाउंट को स्टैंडर्ड एसेट (नियमित और तय समय पर अपना कर्ज चुकाने वाले कर्जधारक) में बदल सकते हैं। यह बैंकों पर दबाव घटाएगा, क्योंकि मौजूदा प्रावधान के अनुसार, बैंकों के कुल बकाये का मात्र 0.40 फीसदी ही स्टैंडर्ड एसेट होना चाहिए। इसी तरह, पीएसएलसी की खरीद और बिक्री को लेकर रिजर्व बैंक के जारी नए प्रावधानों से भी बैंकों पर दबाव घटने की उम्मीद है।

 

भारतीय बैंकिंग सिस्टम को उबारने के लिए किए जा रहे ये तमाम प्रयास निश्चित रूप से तारीफ के काबिल हैं, मगर तब भी काफी कुछऔर किए जाने की जरूरत है-
सबसे पहला काम यह करना होगा कि दीवाला और दिवालियापन संहिता को जल्दी से जल्दी अमली जामा पहनाया जाए। क्रेडिट मार्केट की मजबूती और विकास के लिए यह काफी महत्वपूर्ण है। यह एनपीए को कम करने में भी काफी कारगर होगा। विश्व बैंक का अनुमान है कि भारत में एक बीमार कंपनी को बंद करने में चीन के मुकाबले करीब दोगुना वक्त लग जाता है। इसके अलावा, बैंकों का बुरा कर्ज भी बढ़ रहा है (29 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कहना है कि 2013-15 के दौरान 1.14 लाख करोड़ रुपये डूब कर्ज के रूप में फंसे थे)। साथ ही, कॉरपोरेट डेब्ट री-स्ट्रक्चरिंग (सीडीआर), बीमार औद्योगिक इकाइयों को लेकर बने कानून, कंपनी ऐक्ट- 2013 जैसी तमाम चुनौतियां भी सामने हैं। लिहाजा दीवाला और दिवालियापन संहिता को जल्दी से हरी झंडी दिखाई जानी चाहिए।

 

दो, राजनीति-प्रेरित भ्रष्ट तरीके से बैंकों द्वारा कर्ज दिए जाने की मानसिकता को भी हतोत्साहित करना होगा। कर्ज चुकाने की क्षमता का ठोस आकलन न करने के कारण बैंकों का एनपीए इतना बढ़ा है। लिहाजा बैंकों के ऋण मूल्यांकन और जोखिम प्रबंधन प्रणाली को मजबूत बनाया काफी जरूरी है। इसी तरह, बांटे गए कर्ज (यही आगे चलकर एनपीए बनते हैं) की निगरानी को लेकर भी तंत्र बनना चाहिए।

तीसरी पहल यह होनी चाहिए कि एनपीए की वसूली को लेकर ठोस नीति बनाई जाए। कठोर आर्थिक दंड लगाने की जरूरत है। विलफुल डिफॉल्टर पर आर्थिक दंड ज्यादा से ज्यादा लगना चाहिए, ताकि वे कर्ज दबाने से पहले उसके नतीजे को समझें। यह भविष्य के लिए नजीर बन सकता है।

 

चौथी, एनपीए समस्या से निपटने के लिए एसेट री-कंस्ट्रक्शन कंपनियां (एआरसी) भी काफी कारगर होती हैं। हालांकि देश में 15 ऐसी कंपनियों के पास कुल लगभग 4,000 करोड़ रुपये हैं, बावजूद इसके एनपीए और जोखिम वाली परिसंपत्ति काफी ज्यादा है। इस लिहाज से, हाल के बजट में एआरसी में विदेशी प्रायोजकों से 100 फीसदी मदद लेने का प्रस्ताव काफी फायदेमंद हो सकता है, जो पूंजी की जरूरतें पूरी करेगा और बुरी परिसंपत्तियों से निपटेगा। हालांकि पारदर्शिता की चुनौती बरकरार है, जिससे पार पाने के लिए बैंकों व एआरसी के लिए उचित व्यवहार संहिता (फेयर प्रैक्टिस कोड) लागू करना काफी महत्वपूर्ण है।
पांचवीं पहल अत्याधुनिक तकनीक को लेकर होनी चाहिए। तकनीक के मामले में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक निजी बैंकों से काफी पीछे हैं। इस वजह से न सिर्फ उनकी क्षमता कम हो जाती है, बल्कि बाजार में उनकी हिस्सेदारी भी कम हो जाती है। लिहाजा प्रतिस्पर्द्धा के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को आधुनिक तकनीक से लैस किया जाना चाहिए।

 

छठी पहल बैंकों द्वारा अपनी पूंजी स्वयं जुटाने की दिशा में होनी चाहिए। कमजोर प्रशासन के कारण बाजार में बैंकों की हिस्सेदारी कमजोर है। इसकी एक वजह यह भी है कि निजी बैंक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और विदेशी संस्थागत निवेशक के माध्यम से बाजार में अपनी हिस्सेदारी बेहतर बना रहे हैं। इसलिए वक्त का तकाजा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को भी अपनी पूंजी खुद जुटाने की अनुमति दी जाए।

 

सांतवीं पहल स्वामित्व कोलेकरहोनी चाहिए, जिस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। बजट में सरकार ने आईडीबीआई बैंक में अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करने को लेकर तत्परता दिखाई है। यह कोशिश दूसरे तमाम बैंकों को लेकर भी होनी चाहिए। जरूरी है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से जुड़े कानूनों की समीक्षा हो।
बेशक ऐसे वक्त में, जब भारतीय अर्थव्यवस्था के 7.8 फीसदी तक बढ़ने की उम्मीद है, कारोबार के लिहाज से सुगमता और प्रतिस्पर्द्धा से संबंधित वैश्विक सूचकांकों में हम लगातार बेहतर कर रहे हैं, भारतीय बैंकों की सेहत सुधारी जाए। इसके लिए ठोस प्रयास करना ही होगा। हमें बैंकों की साख फिर से बनानी ही होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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