क्यों महंगे पड़ते हैं ये सस्ते खाद्य पदार्थ- पैट्रिक होल्डेन

कभी आपने सोचा है कि बाजार में मिलने वाले गोश्त, यानी मटन के मुकाबले चिकन यानी मुर्गा इतना सस्ता क्यों होता है? यह सस्ता चिकन लोगों के लिए सेहत बनाने का एक अच्छा विकल्प भी है। लेकिन क्या यह वास्तव में इतना सस्ता होता है? या सेहत के लिए सचमुच इतना अच्छा होता है?

चिकन के बड़े पैमाने पर उत्पादन से होने वाले नुकसान के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता। आपको जो सस्ता चिकन मिलता है, उसमें पर्यावरण को पहंुचने वाले उस नुकसान की लागत शामिल नहीं होती है, जिसे यह उद्योग लगातार बढ़़ा रहा है। वह प्राकृतिक संपदा को नष्ट कर रहा है, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा रहा है और इस व्यवस्था से जन-स्वास्थ्य को भी नुकसान पहंुच रहा है। इस सस्ते चिकन के विपरीत कुदरती तौर पर मिलने वाला चिकन, यानी ऑर्गेनिक चिकन अब काफी महंगा पड़ता है। कई बार तो दो-तीन गुना तक महंगा।

कुदरती चिकन दड़बे में नहीं, खुले में रहता है। इसे जो चुग्गा खिलाया जाता है, वह बिना उर्वरक के सिंथेटिक कीटनाशक के उगता है। इसके अलावा, वह खेतों में घास में पाए जाने वाले कीड़ों को खाता है, उसे न तो कोई दवा दी जाती है और न ही कोई एंटीबॉयोटिक। इस तरह के कुदरती चिकन तैयार करने का कारोबार भी अच्छा-खासा मुनाफा देता है, मगर कारोबारी स्पर्द्धा और बाजार की मांग के चलते इस समय चिकन के औद्योगिक उत्पादन का ही बोलबाला है। यह हमें सस्ता जरूर मिलता है, लेकिन हम बाकी कीमत कर के रूप में देते हैं, जो इस उद्योग के पास रियायतों और सब्सिडी के रूप में पहुंचते हैं।

अगर यह सारी लागत जोड़ दी जाए, तो शायद यह कुदरती चिकन से भी महंगा पड़े। इस समस्या का आरोप अब किसके मत्थे मढ़ा जाए? हम इसका आरोप बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाली कंपनियों और किसानों पर लगा सकते हैं, लेकिन सच यह है कि वे भी एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था में फंसे हैं, जो ऐसे लोगों को ही सिर-माथे बिठाती हैं, जो सबसे सस्ता उत्पादन करते हैं। वे कारोबारी नहीं टिक पाते, जो ज्यादा लागत से अधिक गुणवत्ता वाले उत्पाद तैयार करते हैं।

 

ऐसे सस्ते खाद्य पदार्थों की दो कीमतें होती हैं- एक वह, जो हम अभी देते हैं और एक वह, जो हम बाद में चुकाएंगे। यह कहानी सिर्फ चिकन की नहीं हैै। गाजर, सेब, मटर, दूध, चीज, सबका सच यही है। कभी तो हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा कि हम तबाही, लाने वाली ऐसी खाद्य व्यवस्था को कब तक सहयोग देंगे? इसमें बदलाव की ताकत हमारे ही पास है। हमें ऐसी कृषि नीतियों के समर्थन में आना होगा, जो सबसे ज्यादा फायदा टिकाऊ खेती करने वाले किसानों तक पहंुचाती हैं। हमें इस पर जोर देना होगा कि हमारे स्कूलों, अस्पतालों, यहां तक घरों में पहुंचने वाले खाद्य पदार्थ ऐसे ही खेतों से आएं।
द गार्जियन से साभार
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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