हरित ऊर्जा को सस्ता बनाना ही समाधान- ब्योर्न लॉम्बॉर्ग

आज दुनिया भर के तमाम नेता अब तक के सबसे खर्चीले जलवायु परिवर्तन समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इन नेताओं में शामिल होंगे। मगर सच यही है कि पेरिस समझौते की जितनी कीमत हम चुकाने वाले हैं, उसकी उपलब्धि उतनी ही कम रहने वाली है।

इस समझौते में औसत वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि को औद्योगिक युग के पहले के स्तर से दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य नहीं रखा गया है, बल्कि इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक लाने के लिए कोशिश करने की बात कही गई है। मगर यह शाब्दिक लफ्फाजी है। कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर तमाम देशों के वादों की पड़ताल से पता चलता है कि 2100 तक तापमान में कुल कमी महज 0.048 डिग्री सेल्सियस ही आएगी। ये सभी वादे 70 वर्ष तक और लागू किए जाएं, तब भी वैश्विक तापमान में महज 0.17 डिग्री सेल्सियस की ही गिरावट आएगी।

पर्यावरण कार्यकर्ताओं के दावे बिल्कुल अव्यावहारिक धरातल पर हैं। इस संशय की वजह हमारा इतिहास भी है। कार्बन कटौती को लेकर एकमात्र वैश्विक समझौता क्योटो प्रोटोकॉल है, जो इसलिए विफल साबित हुआ, क्योंकि अमेरिका ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किया और कनाडा, रूस और जापान ने अपने कदम पीछे खींच लिए। संयुक्त राष्ट्र की गणना पर गौर करें, तो समझौते के बावजूद लक्ष्य से एक फीसदी से भी कम कार्बन कटौती संभव हो सकेगी, जबकि 99 फीसदी जलवायु-समस्या भविष्य के नेताओं के लिए छोड़ दी जाएगी।

इतनी सीमित उपलब्धि की हम क्या कीमत चुकाने वाले हैं? आकलन है कि 2030 तक कुल लागत बढ़कर संभवत: 20 खरब डॉलर तक पहुंच जाएगी, यानी भारत की जीडीपी से ज्यादा। ऐसे में, यह इतिहास का सबसे महंगा समझौता साबित हो सकता है। दूसरे तमाम देशों की तरह भारत जानता है कि सस्ती और बहुतायत में बिजली महत्वपूर्ण है। जैसे चीन ने पिछले 30 वर्षों में 68 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला है, उसी तरह भारत का विकास भी कमोबेश सस्ती बिजली पर निर्भर है, भले ही उससे कितना भी प्रदूषण क्यों न हो? अभी भारत के कुल बिजली उत्पादन में 0.3 फीसदी पवन ऊर्जा का व महज 0.02 फीसदी सौर ऊर्जा का योगदान है।

 

यह सोचना काफी आशावादी होगा कि वह 2040 तक 1.3 फीसदी पवन से और 1.3 फीसदी सौर ऊर्जा से पा ले। तय है,भारत का विकास सस्ती व सुलभ बिजली पर निर्भर है, जो कोयले से मिलेगी।
अगले 25 वर्षों में भारत में ऊर्जा खपत 150 फीसदी बढ़ने वाली है। जरूरी है कि इसकी पूर्ति हरित ऊर्जा से हो, पर उसे सस्ता बनाना होगा। कोयले से मुंह मोड़ना भारत के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद होता, तो इसके लिए किसी समझौते की जरूरत न थी। बेहतर होगा कि हरित ऊर्जा के उस शोध पर ध्यान दिया जाए, जिसका हिस्सा भारत भी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *