समय और समाज भी कुछ अजीब ढंग से चलते हैं. कुछ चीजें, कुछ लोग और कुछ घटनाक्रम जो हमारी सामूहिक स्मृति से लगभग गायब हो गये होते हैं, वे एक खास कालक्रम में अचानक प्रासंगिक होकर हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा बन जाते हैं. यह सब समाज और समय की अपनी गत्यात्मकता के कारण होता है.
आठवें दशक में हिंदी पट्टी के ज्यादातर पुस्तकालयों या बुक स्टोर्स पर डाॅ भीमराव अांबेडकर की एकाध किताबें बहुत खोजने पर ही मिल पाती थीं. उन्हें हम सब भारतीय संविधान की प्रारूप लिखनेवाली कमेटी के प्रमुख के तौर पर जानते थे. लेकिन हम जैसों के बीच उनकी छवि दलितों के एक उद्धारक नेता की बनी थी. हम उन्हें ज्यादा जान भी नहीं सकते थे, क्योंकि वह न तो हमारे पाठ्यक्रम में थे और न ही उनकी किताबें पुस्तकालयों या बुक स्टोर्स पर सहज सुलभ थीं.
सन 1956 में उनके निधन से लेकर सन 90 तक लगभग यही स्थिति थी. हमसे पहले की पीढ़ी में आंबेडकर की छवि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के रास्ते में खलल डालनेवाले एक ऐसे नेता की बनायी गयी, जो आये दिन अंगरेजी हुकूमत के साथ सहयोग करता रहता था. लेकिन कुछ समय बाद सब कुछ उलटता-पुलटता नजर आया. एक वैचारिक भूचाल सा था वह.
बामसेफ का सफर तय करते हुए कांशीराम ने उत्तर भारत में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. जैसे-जैसे उनका आंदोलन और संगठन का फैलाव होता गया, वैसे-वैसे डाॅ अांबेडकर का वास्तविक व्यक्तित्व और कृतित्व भी नयी छवि के साथ उभरता गया.
आंबेडकर के संपूर्ण लेखन और वक्तव्यों को महाराष्ट्र सरकार ने पहली बार ‘राइटिंग्स एंड स्पीचेज’ नाम से 1979 में छापा था. कुछ समय बाद उत्तर प्रदेश के गांवों-कस्बों में अांबेडकर की मूर्तियां खड़ी होने लगीं. वह दलित सशक्तीकरण के प्रतीकपुरुष बन कर उभरे.
कांशीराम ने इतिहास की तह में दबाये गये अांबेडकर को जनता के बीच एक युगांतरकारी व्यक्तित्व के तौर पर ला खड़ा किया. इस दलित नवजागरण के बीच उन्हें जानने-समझने का नया दौर शुरू हुआ. समाज के एक हिस्से की एंटीथीसिस भी सामने आयी. संघ परिवार के करीबी अरुण शौरी ने आंबेडकर को फर्जी और अंगरेजों का मददगार बताते हुए किताब लिखी- ‘वर्शिपिंग फाल्स गाॅड.’ कुछ ही समय बाद डाॅ अांबेडकर की छोटी सी पुस्तक ‘एनिहिलेशन आॅफ कास्ट’ का पुनर्प्रकाशन हुआ. यह डाॅ अांबेडकर-वैचारिकी का महाकाव्यात्मक दस्तावेज है. आंबेडकर को लाहौर में आयोजित ‘जातपात तोड़क मंडल’ के जलसे में भाषण देना था. यही प्रारूप पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ.
पुस्तक पर गांधीजी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में प्रतिक्रिया व्यक्त की. लेकिन आंबेडकर के तर्कपूर्ण विवेचना के आगे गांधीजी का आलेख बहुत कमजोर था. अांबेडकर के आलोचकों ने भी माना कि वेद-पुराण-उपनिषद् और तमाम आधुनिक ज्ञानधारा का गहराई से अध्ययन किये बगैर ‘एनिहिलेशन आॅफ कास्ट’ जैसी पुस्तक नहीं लिखी जा सकती थी.
इतने सारे दबावों, सामंती शक्तियों की लाॅबिंग और प्रतिकूलताओं के बावजूद ‘एनिहिलेशन आॅफ कास्ट’ की वैचारिकता ही थी, जिसने भारतीय संविधान के लिए एक लोकतांत्रिक-सेक्युलर विजन को संभवबनाया.
आज देश की लगभग सभी प्रमुख पार्टियों में अपने आपको आंबेडकर की विरासत से जोड़ने की होड़ सी लगी है. हर जगह सरकारी और सियासी उपक्रमों के स्तर पर अांबेडकर आज भी स्मारकों तक सीमित रखे गये हैं. वह राष्ट्रीय बौद्धिक विमर्श के केंद्र में क्यों नहीं हैं? अच्छी बात है कि संघ के अपने ‘राजनीतिक पूर्वजों’ से अलग हट कर प्रधानमंत्री मोदी ने अांबेडकर की जयंती के अवसर पर उन्हें अपना आदर्श बताया. सन 49-51 के दौर में आरएसएस, हिंदू महासभा व कांग्रेस के संकीर्ण तत्वों ने अांबेडकर का घोर विरोध किया था.
फिर प्रधानमंत्री मोदी इतिहास की भूल का सुधार क्यों नहीं करते? सामाजिक न्याय में ‘आस्था’ रखनेवाले बिहार से तो यह उम्मीद जरूर करनी चाहिए कि वह ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ को अपने विश्वविद्यालयीय पाठ्यक्रमों में शामिल करे! क्या भारत कभी जाति-मुक्त हो सकता है, यदि हो सकता है तो कैसे, यह पुस्तक इन्हीं सवालों का जवाब देती है.
यह भारत की संकल्पना का अांबेडकर माॅडल है. प्रधानमंत्री जी अगर अांबेडकर के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा प्रदर्शित करना चाहते हैं, तो उन्हें इस किताब के संदेश को लागू करने के अभियान में जुटना चाहिए. स्मारक बनाने मात्र से अांबेडकर का सम्मान नहीं होगा, उनके विचारों को आगे बढ़ाने से उनका मान बढ़ेगा.