सिर उठाते दिख रहे हैं दो संकट – राजीव सचान

सहज मार्ग से नाम से प्रचलित आध्यात्मिक संस्था श्रीरामचंद्र मिशन के संस्थापक एवं अध्यक्ष रामचंद्र ने 1966 में प्रकाशित अपनी पुस्तक रियल्टी एट डॉन में भारत के उत्थान और पश्चिम के पराभव का एक खाका खींचा है। उन्होंने लिखा है कि इस पराभव का एक कारण पश्चिम में धरती के गर्भ में सक्रिय होने वाले ऐसे ज्वालामुखी भी बनेंगे जो अभी सुप्त अवस्था में हैं। पता नहीं, वह सब कुछ होगा या नहीं जैसा इस पुस्तक में लिखा है, लेकिन इससे शायद ही कोई इनकार कर सके कि भारत में सुप्त ज्वालामुखी सरीखे दो गंभीर संकट सिर उठाते दिख रहे हैं। इनमें एक जल संकट के रूप में है और दूसरा सेहत के समक्ष खतरों के रूप में। ये संकट किस तरह गंभीर रूप धारण कर सकते हैं, इसकी एक झलक देश के कुछ हिस्सों में उपजे जल संकट से मिल रही है। महाराष्ट्र के लातूर जिले में जल संकट ने इतना विकट रूप धारण किया कि प्रशासन को धारा 144 लगानी पड़ी ताकि पानी के लिए झगड़े न होने पाएं। इसके अलावा जल संकट से निजात के लिए तीन सौ किलोमीटर से अधिक दूर से ट्रेनों के जरिए लाखों लीटर पानी लातूर भेजा गया। लातूर में ट्रेन से पानी पहुंचाने का सिलसिला अभी भी कायम है।

जल संकट से देश के अन्य अनेक इलाके भी जूझ रहे हैं, कहीं गंभीर रूप में तो कहीं अति गंभीर रूप में। प्रति वर्ष गर्मियों के मौसम में जब देश के विभिन्न् इलाकों में जल संकट सिर उठा लेता है तो उससे निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हो जाती है। इन उपायों पर अमल की कोशिश के बीच बारिश का मौसम आ जाता है और इसी के साथ जल संकट के स्थायी समाधान प्राथमिकता से बाहर हो जाते है। ऐसा वर्षों से होता चला आ रहा है और शायद इस वर्ष भी होगा, क्योंकि हमारे देश में यही चलन है कि जब समस्या सिर उठा ले तब उसके समाधान की चिंता की जाए और जैसे ही वह ओझल होती दिखे, समाधान के उपायों को भी भूल जाया जाए।

भारत में जल संकट केवल पीने के पानी के अभाव के रूप में ही नहीं है, सिंचाई के पानी की कमी के रूप में भी है। यह तब है जब भारत में अन्य कई देशों के मुकाबले ठीक-ठाक वर्षा होती है। मुश्किल यह है कि बारिश का अधिकांश जल व्यर्थ चला जाता है, क्योंकि वर्षा जल संरक्षण की दिशा में न तो ठोस काम हुआ है और न ही उसके प्रति अपेक्षित जागरूकता पैदा हो सकी है। एक बड़ी समस्या यह है कि औसत भारतीय पानी के इस्तेमाल के समय इसकी परवाह नहीं करता कि उसका दुरुपयोग तो नहीं हो रहा? यह तब है जब जल की पूजा की जाती है और उसे देवता की संज्ञा दी गई है। जल के प्रति पूज्य भाव के बावजूद नहाने, कपड़े-बर्तन धोने, बागवानी, साफ-सफाई और रोजमर्रा के अन्य कामों में बड़े पैमाने पर उसका जरूरत से अधिक इस्तेमाल होता है। घरों, दफ्तरों, होटलों, अस्पतालों, उद्योगों आदि में प्रयुक्त पानी के अच्छे-खासे हिस्से कापुन: प्रयोग हो सकता है, किंतु ऐसा बहुत कम हो रहा है। अपने देश में वक्त के साथ पश्चिमी शैली के कमोड तेजी से बढ़ रहे हैं, क्योंकि वे कहीं अधिक सुविधाजनक हैं, लेकिन तथ्य यह है कि वे पानी की बर्बादी का जरिया भी हैं। इसी कारण यूरोप और अमेरिका में कुछ पर्यावरण प्रेमी इस मांग का समर्थन कर रहे हैं कि कम से कम हाईवे में खुले में पेशाब की छूट दी जानी चाहिए। पता नहीं यह विचार कितना सही है, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि पानी के इस्तेमाल संबंधी आदतों में मामूली बदलाव लाकर पानी बचाने के बड़े लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

इसकी चिंता की जाने लगी है कि गर्मियों में पक्षियों को पानी मिल सके, लेकिन हमें ऐसी ही चिंता अपनी भावी पीढ़ी को लेकर भी करनी होगी। हर स्तर पर जल के दुरुपयोग को रोकना होगा – केवल गर्मियों में ही नहीं, हर मौसम में और हर दिन। एक आकलन है कि आमतौर पर घरों में इस्तेमाल होने वाले मग एक लीटर या इससे ज्यादा क्षमता वाले होते हैं। यदि वे एक से कम लीटर वाले हों तो रोज लाखों लीटर पानी की बचत हो सकती है। इसी तरह रिहायशी बहुमंजिला इमारतों में ऐसे जतन किए जा सकते हैं जिससे बर्तनों की सफाई व कपडों की धुलाई के काम आने वाला पानी सिंक और वाशिंग मशीनों से निकलकर अलग जगह एकत्र हो। इस पानी को शोधित कर उसका इस्तेमाल अन्य कार्यों में हो सकता है। ऐसे ही उपाय सार्वजनिक स्थानों व उद्योगों में भी किए जा सकते हैं।

हमारे न जाने कितने नेता और नौकरशाह इजरायल सिर्फ इसलिए गए हैं ताकि कम पानी में ज्यादा सिंचाई के तरीके को जान-समझ सकें, लेकिन देश में ऐसे तरीके अभी भी सीमित हैं। क्या यह सही समय नहीं जब सिंचाई के तौर-तरीकों में व्यापक बदलाव हो ताकि कम पानी में अधिक सिंचाई की जा सके? जितनी जरूरत तालाबों, नहरों, कुओं के लोप होने के सिलसिले को थामने की है, उतनी ही नदियों और भूगर्भ के जल स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाने की भी। अमूमन पुराने शहरों में गर्मियों में पानी का संकट इसलिए गंभीर रूप धारण कर लेता है, क्योंकि उसकी खपत बढ़ जाती है और पुरानी पड़ चुकी पाइपलाइनों का रिसाव जस का तस बना रहता है। नि:संदेह जल संरक्षण और उसके किफायती इस्तेमाल के मामले में बहुत कुछ सरकारों को करना है, लेकिन काफी कुछ आम लोग भी कर सकते हैं। इसके लिए जीवनशैली में छोटे-मोटे बदलाव जरूरी हैं। जिस तरह जीवनशैली में मामूली बदलाव लाकर जल संकट से बचा सकता है, उसी तरह ऐसा ही बदलाव सेहत के समक्ष मंडराते तमाम खतरों को दूर सकता है। भारत छोटी-बड़ी तमाम बीमारियों का घर बन गया है तो मूलत: जीवनशैली के तौर-तरीकों और खान-पान संबंधी आदतों के कारण।

-लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं।

 

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