स्वास्थ्य और पर्यावरण पर संभावित असर को लेकर जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) खेती के समर्थन और विरोध में जारी बहस के बीच केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने फील्ड ट्रायल के लिए आये प्रस्तावों में से करीब 80 फीसदी को हाल में हरी झंडी दे दी है. मई, 2014 में केंद्र में एनडीए सरकार के गठन के बाद से इस संदर्भ में हुई आठ बैठकों के बाद पिछले दिनों यह मंजूरी दी गयी.
जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीइएसी) के पास चावल, गन्ना, मक्का, बैंगन, आलू और सरसों जैसी फसलों के फील्ड ट्रायल की मंजूरी देने के 51 प्रस्ताव आये थे, जिनमें से 40 को मंजूरी दी गयी है, जबकि आठ पर विशेषज्ञों की राय आनी शेष है और तीन प्रस्ताव को आवेदकों ने स्वयं वापस ले लिया है.
दूसरी ओर सेंट्रल इन्फॉर्मेशन कमीशन (सीआइसी) ने भारत में ट्रांसजेनिक खाद्य फसलों की दशा-दिशा तय करने के तहत जीएमओज यानी जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज्म्स के लिए गठित अपेक्स रेगुलेटरी बॉडी- जीइएसी- को इस संदर्भ में पारदर्शिता के साथ फैसले लेने का निर्देश दिया है.
इसके अलावा बायो-सेफ्टी से जुड़े जीएमओज के सभी मसलों को इस महीने के आखिर तक निर्धारित नियमों के तहत स्वैच्छिक रूप से घोषित करने को कहा गया है. प्रस्तुत है इस प्रकरण से जुड़े विभिन्न पहलुओं की जानकारी…
जेनेटिकली मॉडिफाइड यानी जीन संवर्धित फसलों को संक्षेप में जीएम फसल कहा जाता है. जब किसी पौधे के जेनेटिक मैटेरियल में उन तरीकों से बदलाव किया जाता है, जो पूरी तरह से प्राकृतिक नहीं होते, तो उसे जेनेटिक रूप से परिवर्धित पौधे यानी जेनेटिकली मॉडिफाइड प्लांट के रूप में जाना जाता है. इसके तहत कुछ चुनिंदा किस्म के जीन्स को अन्य ऑर्गेनिज्म्स से बदल दिया जाता है. जीएम ऑर्गेनिज्म्स से पैदा की जानेवाली फसल को ही जीएम फसल कहा जाता है. इसे ट्रांसजेनिक, जीन टेक्नोलॉजी और जेनेटिक इंजीनियरिंग के नाम से भी जाना जाता है.
जीएम खेती का मकसद
जीएम फसलों को इसलिए लगाया जाता है, क्योंकि इसमें उत्पादक और ग्राहक दोनों के लिहाज से कुछ खासियतें पायी गयी हैं. इसे इस अर्थ में समझा जा सकता है कि इस फसल की कीमत कम होने के साथ अनाज के ज्यादा दिनों तक टिकाऊ बने रहने और पोषक गुणवत्ता कायम रखने के लिहाज से व्यापक मुनाफा इससे जुड़ा हुआ है. ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जीएम बीज का विकास करनेवाले चाहते हैं कि अन्न उपजानेवाले उनके प्रोडक्ट को स्वीकार करें और उसमें कुछ इनोवेशन करें, ताकि उसका सीधा फायदा किसानों को हासिल हो सके.
जीएम ऑर्गेनिज्म्स आधारित खेती को विकसित करने का एक बड़ा मकसद फसलों की सुरक्षा से भी जुड़ा बताया गया है. कीड़ों, वायरस या हर्बिसाइड आदि से फसलों को बचाते हुए उनकी पैदावार बढ़ाने के लिए खास तौर से जीएम खेती को प्रोमोट किया जा रहा है.
जीएम फसलों का इतिहास
दुनिया में पहली बार 1982 में जीएम फसल के रूप में एंटीबायोटिक-रेसिस्टेंट तंबाकू का उत्पादन किया गयाथा. 1986 में अमेरिका और फ्रांस में इसका फील्ड ट्रायल किया गया. चीन इस मामले में पहला देश बना, जिसने 1992 में वायरस-रोधी तंबाकू के रूप में ट्रांसजेनिक प्लांट को मंजूरी दी, लेकिन 1997 में इसे रोक दिया.
अमेरिका में जीएम फसल के रूप में टमाटर की एक किस्म को बिक्री के लिए पहली बार 1994 में मंजूरी दी गयी. 1994 में यूरोपियन यूनियन ने भी जीएम तंबाकू को मंजूरी दे दी. 1995 में अमेरिका ने बीटी आलू और मोनसेंटो द्वारा विकसित बीटी कॉटन को भी मंजूरी प्रदान की.
भारत में जीएम खेती
भारत में बीटी कॉटन पहली जीएम फसल है, जिसे कारोबारी तौर पर खेती के लिए मंजूरी दी गयी. वर्ष 2002 में भारत सरकार ने बीटी कॉटन (बॉलगार्ड) को मंजूरी प्रदान की थी. इसे मेहायको मोनसेंटो बायोटेक (इंडिया) लिमिटेड के माध्यम से बाजार में मुहैया कराया गया था. उसके बाद अगले छह वर्षों के दौरान इसकी बुआई के इलाके में तेजी से वृद्धि होती गयी.
बीटी कॉटन के इस्तेमाल से इसका उत्पादन तेजी से बढ़ने लगा. महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और राजस्थान में सबसे पहले इसका इस्तेमाल किया गया. वर्ष 2002 में इसकी पैदावार 150 लाख गांठ हुई थी, जबकि 2007 में यह 270 लाख गांठ तक पहुंच गयी. पैदावार की बढ़वार दर में भी काफी वृद्धि हुई और यह 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़ कर 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गयी. नतीजन कॉटन उत्पादन के लिहाज से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश बन गया.
लेकिन, वर्ष 2007 के आसपास बीटी कॉटन से देश के कई इलाकों में किसानों को नुकसान हुआ और इसके विरोध में माहौल बना. फिर भी मौजूदा समय में इस क्षेत्र में देश में मोनसेंटो का वर्चस्व कायम हो चुका है.
भारत में जीएम बीज का विकास
जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीइएसी) की ओर से हरी झंडी मिलने के बाद बीज कंपनी मेहायको ने जेनेटिकली मॉडिफाइड बीटी ब्रिंजल (बैगन) का खेतों में परीक्षण के करने के बाद वर्ष 2006 में उत्पादन शुरू किया. लेकिन इससे जुड़े हेल्थ रिस्क के चलते किसानों, पर्यावरणविदों और उपभोक्ताओं ने इसका व्यापक विरोध किया. हालांकि, उस दौरान सरसाें और आलू के आरंभिक ट्रायल की मंजूरी भी मांगी गयी थी, लेकिन बैगन को सबसे पहले हरी झंडी मिली थी. उस समय जीएम खेती के विरोध में अनेक संगठनों ने वैज्ञानिक साक्ष्य पेश करते हुए इस पर रोक की मांग की थी.
उसके बाद से देशभर में यह मसला लगातार विवादों में है. कुछ समूहों ने यह आरोप लगाया कि बीटी बैगन के विकास में टॉक्सिन समेत ऐसी चीजों का इस्तेमाल किया गया है, जो इनसान के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती हैं. नतीजन जीइएसी को इन आरोपों का खंडन करने को कहा गया और मेहायको से भी सुरक्षा मानकों को स्पष्ट करने को कहा गया.
मेहायको का कहना था कि बीटी बैगन कीटों से पौधों और फलों को बचाने में सक्षम है और इसके इस्तेमाल से पैदावारमें54 से 113 फीसदी तक की वृद्धि हो सकती है. इस बीटी बैगन का विकास इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ वेजिटेबल रिसर्च वाराणसी, तमिलनाडु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी कोयंबटूर, यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज धारवाड़ और अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी समेत यूनिवर्सिटी आॅफ फिलीपींस के सहयोग से किया गया था.
– कन्हैया झा
क्यों विवादों में हैं जीएम फूड्स
जीएम फूड्स अब तक विवादों में रहा है. इसमें उपभोक्ताओं और बायोटेक्नोलॉजी कंपनियों के हितों के बीच टकराव के अलावा सरकारी रेगुलेटरों, गैर-सरकारी संगठनों और वैज्ञानिकों के अपने-अपने तर्क हैं. साथ ही जीएम फूड्स का लेबल लगाये जाने, सरकारी रेगुलेटर्स की भूमिका, स्वास्थ्य और पर्यावरण पर जीएम फसलों के असर समेत कीड़ों के खिलाफ इनकी प्रतिरोधी क्षमता और किसानों पर पड़नेवाले इसके दूरगामी असर के कारण यह हमेशा विवादों में रहा है.
समुचित मूल्यांकन के बिना जीएम फूड्स को मंजूरी घातक : डॉ भार्गव
हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेलुलर एंड मोलेकुलर बायोलॉजी यानी सीसीएमबी के फाउंडर-डायरेक्टर डॉक्टर पीएम भार्गव ने पहली बार वर्ष 1973 में ही जीएम फूड्स के बारे में आगाह किया था.
‘इनफोचेंजइंडिया डाॅट ओआरजी’ की एक रिपोर्ट में डॉ भार्गव ने समुचित मूल्यांकन के बिना इसके इस्तेमाल की मंजूरी देने को घातक माना है. उनका मानना है कि कि सुरक्षा मानकों के अनुरूप जीएम फसलों का ट्रायल पर्याप्त स्तर पर नहीं किया गया है. डॉक्टर भार्गव के हवाले से ‘हफिंगटन पोस्ट’ ने बताया है कि जीएम फसलों के दूरगामी असर को सही तरीके से नहीं समझा जा सका है.
डॉ भार्गव भारत में बायोटेक्नोलॉजी के आर्किटेक्ट माने जाते हैं. 1990 के दशक में जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में बीटी कॉटन के बीजों को बेचने की कवायद में जुटी थीं, उस समय भी डॉक्टर भार्गव ने इसका विरोध किया था.
जीएम बैगन और टमाटर के फील्ड ट्रायल की जब बात हुई, उस समय भी विवाद कायम रहा. जहां डॉक्टर भार्गव के अलावा कुछ एनजीओज एक तरफ थे, तो दिल्ली यूनिवर्सिटी के संबंधित विशेषज्ञ दीपक पेंटल और इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस के जी पद्नाभन दूसरी ओर थे यानी डॉक्टर भार्गव की राय से सहमत नहीं थे.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय
विभिन्न जीएम ऑर्गेनिज्म्स में विविध तरीकों से अनेक किस्म के जीन्स शामिल किये जाते हैं. इसका मतलब हुआ कि कोई खास जीएम फूड्स और स्वास्थ्य के लिहाज से उसके सुरक्षित होने का मूल्यांकन केस-दर-केस आधार पर किया जाना चाहिए. विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि इंटरनेशनल मार्केट में उपलब्ध जीएम फसलें सुरक्षा मानकों पर खरी उतर चुकी हैं और उनमें किसी तरह का स्वास्थ्य संबंधी जोखिम नहीं पाया गया है.
हालांकि संगठन का यह भी मानना है कि फिलहाल यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह पूरी तरह से सुरक्षित है. अब तक जिन देशों में इसके इस्तेमाल की मंजूरी दी गयीहै, वहां अब तक इनसानों में इसके किसी बुरे असर के नतीजे सामने नहीं आये हैं और इसे ज्यादा से ज्यादा सुरक्षित बनाने के लिए लगातार अनेक स्तरों पर काम चल रहा है.
जीएम फसलों का सुरक्षा मूल्यांकन
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, जीएम फसलों के सुरक्षा मूल्यांकन के रूप में सामान्यतया इन चीजों पर फोकस
किया जाता है :
– स्वास्थ्य पर होनेवाला असर
– एलर्जिक रिएक्शन से बचाव की क्षमता.
– पोषक या टॉक्सिक प्रोपर्टीज के खास घटक.
– आरोपित किये गये जीन्स की स्थिरता.
– जेनेटिक मॉडिफिकेशन से संबंधित पोषण से जुड़े असर.
– आरोपित किये गये जीन्स के कारण पैदा होनेवाला कोई अन्य असर.