मूक खेतिहर भर नहीं हैं देश के किसान– अनिल पद्मनाभन

पिछले महीने कृषि मंत्री ने संसद को बताया कि साल 2015 में 2,806 किसानों ने आत्महत्या कर ली। सबसे अधिक आत्महत्याएं महाराष्ट्र (1,841 किसान) में दर्ज की गई, जिसके बाद पंजाब (449), तेलंगाना (342), कर्नाटक (107) और आंध्र प्रदेश (58) जैसे राज्यों का स्थान आता है। इन तमाम राज्यों में समानता यह है कि ये सभी मौजूदा ग्रामीण संकट के केंद्र रहे हैं, जहां लगातार खराब मानसून और जिन्सों की वैश्विक कीमतों के दम तोड़ने के कारण हालात बदहाल हो गए हैं। देश में किसान-आत्महत्या पट्टी के रूप में प्रचारित इस क्षेत्र के किसानों में एक और पहलू भी है।

यह है, यहां के किसानों में जोखिम उठाने की बढ़ती इच्छा। किसानों का यह व्यवहार सार्वजनिक नीति में उकेरी गई उनकी छवि से बिल्कुल अलग है, जिसमें माना जाता है कि किसान जोखिम उठाने के खिलाफ हैं और उनका हाथ लगातार थामने की जरूरत है; चाहे वह समर्थन मूल्य हो या सब्सिडी की इच्छा अथवा कर्ज से छूट। सार्वजनिक नीतियों में किसानों की यही छवि उन्हें आर्थिक सिद्धांतों में मूक खेतिहर बनाती है। उदाहरण कपास की खेती का लेते हैं। किसानों की आत्महत्या की सबसे ज्यादा दुखद घटनाएं इसी क्षेत्र में होती हैं। कपास की ज्यादा उपज वाली किस्मों के आने की वजह से प्रति हेक्टेयर उपज तेजी से बढ़ी। 2000-01 में जहां प्रति हेक्टेयर 190 किलोग्राम उपज होती थी, वह बढ़कर साल 2011-12 में 491 किलोग्राम हो गई। इस वजह से कपास का रकबा भी 40 फीसदी बढ़ा। साल 200-01 में 85.3 लाख हेक्टेयर में होने वाली कपास की खेती साल 2011-12 में बढ़कर करीब 1.2 करोड़ हेक्टेयर तक पहुंच गई। इसी तरह भारतीय किसानों ने बागवानी खेती को अपनाया, जिसके कारण लगातार तीसरे साल साल 2014-15 में भी खाद्यान्न से अधिक फल और सब्जियों की पैदावार हुई।

जब गांवों पर संकट बढ़ा, तब तक किसान बढ़ते कर्ज के जाल में फंस चुके थे, जो किसानों की आत्महत्या की मूल वजह है। हमारी नीतियां भी खेती पर आए खतरे को टालने में विफल रही हैं। एनडीए सरकार द्वारा फसल बीमा योजना की शुरुआत के बाद कृषि नीति में आमूल-चूल बदलाव हुआ है।

 

पहली नजर में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना उन्हीं जोखिमों से निपटने की कोशिश लगती है, जो पहले से होती रही है, मगर वास्तव में यह उससे ज्यादा है। इसमें बीमा प्रीमियम की राशि कम की गई है। जैसे कि रबी फसलों पर 1.5 फीसदी, खरीफ पर दो फीसदी और व्यावसायिक अथवा बागवानी खेती पर पांच फीसदी। साथ ही, व्यावसायिक व बागवानी खेती के जोखिम का आकलन बीमांकित आधार पर नहीं किया जाएगा। बेशक संस्थागत बदलाव आसान नहीं होता, मगर यह निश्चय ही देश की नीतियों में किसानों की मूक खेतिहर की छवि खत्म करने की एक शुरुआत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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