दोहरी चुनौतियों के सामने- ऋतु सारस्वत

हाल ही में विश्व में प्रथम रैंकिंग प्राप्त टेनिस खिलाड़ी जोकोविच ने कहा कि पुरुष खिलाड़ियों के मैचों को दुनिया भर में महिलाओं के मैचों से ज्यादा देखा जाता है, इसलिए पुरुष खिलाड़ियों की कमाई ज्यादा होनी चाहिए। इससे पहले इंडियन वेल्स टूर्नामेंट के मुख्य कार्यक्रम अधिकारी रेमंड मूर ने कहा था कि डब्ल्यूटीए टूर पुरुष खिलाड़ियों की बदौलत ही चल रहा है। ये दोनों वक्तव्य स्त्री के प्रति पुरुषवादी मानसिकता को स्पष्ट करते हैंै। पुरुषवादी इस सोच से लड़ने और स्वयं को सिद्ध करने का संघर्ष, दो शताब्दी पूर्व ही शुरू हो गया था। 1972 में मेरी बोल्स्टन क्राफ्ट की पुस्तक ‘ए विन्डिक्शन आॅफ द राइट्स आॅफ विमेन’ में पहली बार मेरी ने ‘स्वतंत्रता-समानता-भ्रातृत्व’ के सिद्धांत को स्त्री समुदाय पर लागू करने की मांग की। उन्होंने कहा कि कोई भी समतावादी सामाजिक दर्शन तब तक वास्तविक अर्थों में समतावादी नहीं हो सकता जब तक कि वह स्त्रियों को समान अधिकार और अवसर देने की बात नहीं करता।

अधिकांशत: कुछ सफल महिलाओं की उजली तस्वीर के पीछे हम उन हजारों कामकाजी महिलाओं की पीड़ाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं जो अपने दफ्तर तक पहुंचने की जुगत में, स्वयं को सिद्ध करने की कोशिश में थक कर चूर हो चुकी हैं। असमान वेतन, पदोन्नति में भेदभाव, मातृत्व अवकाश को अनचाहा बोझ मानने की प्रवृत्ति स्त्री सशक्तीकरण की सभी अवधारणाओं पर प्रश्नचिह्न खड़े कर देती है। यह स्थिति कमोबेश विश्व के सभी देशों की है। बीते दिनों ब्रिटेन के बराबरी और मानवाधिकार आयोग (ईएचओसी) ने डिपार्टमेंट आॅफ बिजनेस, इनोवेशन एंड स्किल्स के साथ मिल कर किए गए एक शोध से जो तथ्य उजागर किए वे हैरान करने वाले हैं।

यह अध्ययन बताता है कि ब्रिटेन में काम की जगह पर हर पांचवीं गर्भवती महिला प्रताड़ना की शिकार होती है। जबकि तीन-चौथाई गर्भवती और नई-नई मां बनी महिलाओं के साथ दफ्तर में काम के दौरान भेदभाव किया जाता है। यह रिपोर्ट बताती है कि हर पांच में से एक महिला ने कहा कि उसे प्रसव से पहले डॉक्टरी जांच कराने से भी हतोत्साहित किया गया। नौकरी के इंटरव्यू के दौरान असफल रही तीन-चौथाई माताओं ने माना कि उनकी गर्भावस्था का पता चलने से उनके नौकरी मिलने के अवसर कम हुए। यह शोध उस मानसिकता को उजागर करता है जहां कर्मचारियों को सिर्फ कार्य करने की मशीन समझा जाता है और लाभ-हानि के इस गणित में महिला कर्मचारियों को ‘आर्थिक क्षति’ माना जाता है। यह स्थिति ब्रिटेन की ही नहीं, हमारी भी है।

दरअसल, विश्व के हर कोने में यह मानसिकता व्याप्त है कि कोई व्यक्ति किसी संस्था के लिए कितना लाभकारी है, और इसी सोच के चलते कई निजी कंपनियां मातृत्व-अवकाश को एक गैर-जरूरी जिम्मेदारी के रूप में देखती हैं जिसके चलते महिला कर्मचारियों पर दबाव रहता है कि या तो वे नौकरी छोड़ दें या फिर अपने निजी हितों को त्यागें। किसी संगठन में निचले या उच्च स्तर पर महिलाओं द्वारा नौकरी छोड़े जाने की घटना या उनकी संख्या में कमी आने को सामान्य तौर पर ‘लीकिंग पाइपलाइन’ कहा जाता है। इस विचार को सबसे पहले अर्थशास्त्रीसिलिव्या एन ह्मूलिट ने अपनी पुस्तक ‘क्रिएटिंग ए लाइफ: प्रोफेशनल वुमन एंड द क्वेट फॉर चिल्ड्रन’ में पेश किया था। इस किताब में अमेरिका में कामकाजी महिलाओं के सामने ‘क्रूर दुविधा’ की परतें खोली थीं। मिसाल के तौर पर चालीस की उम्र के पड़ाव तक पहुंची पेशेवर अमेरिकी महिलाओं में से बयालीस प्रतिशत संतानहीन थीं, उनमें से चौदह प्रतिशत ने ही यह फैसला लिया था कि उन्हें संतान उत्पत्ति नहीं करनी।

गैर-लाभकारी संगठन ‘कम्प्युनिटी बिजनेस’ के लैंगिक विविधता पैमाने पर किए गए अध्ययन की मानें तो एशिया में भी ऐसी स्थिति बन रही है। जिन सभी शीर्ष महिला अधिकारियों का साक्षात्कार लिया गया, उनकी औसत आयु अड़तीस साल थी, जिनमें से उनतीस प्रतिशत विवाहित नहीं थीं और उनमें से 37.5 प्रतिशत के बच्चे नहीं थे। ये अध्ययन इशारा कर रहे हैं कि समाज में एक ऐसी प्रवृत्ति पनप रही है जहां कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व या कैरियर चुनने की चुनौती मुंह बाए खड़ी रहती है।

ग्लोबल एच.आर. कंसल्टेंसी फर्म मर्सर की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि निजी क्षेत्र के संगठनों के भीतर करियर का स्तर बढ़ने के साथ ही महिलाओं की हिस्सेदारी का अनुपात भी घट जाता है। ‘ग्लोबल लीडर आॅफ वेन वीमेन थ्राइव’ नाम से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं को आगे बढ़ाने के पारंपरिक प्रयास बहुत ज्यादा कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। ‘मर्सर’ की रिपोर्ट को शंका से देखना लाजिमी है क्योंकि अमूमन हम सभी यह मान कर चल रहे हैं, कि बीते दशकों में महिलाएं आत्मनिर्भर हुई हैं, पर ये शोध इस तथ्य को नकार रहे हैं। विश्व बैंक के एक अध्ययन में श्रम-शक्ति में महिलाओं की भागीदारी में तेज कमी दर्ज की गई। वर्ष 2004-05 से 2010-11 के बीच इसमें बारह से चौदह प्रतिशत तक की गिरावट दर्ज की गई, क्योंकि कृषि से इतर और अपने आवास के आसपास उनके लिए रोजगार के सुरक्षित अवसर नहीं थे। कोई भी इस गिरावट की स्पष्ट वजह नहीं बता पाया, पर यह तय है कि भारत में महिलाओं के प्रति कार्यस्थलों में संवेदनशीलता का अभाव है।

स्त्री की आत्मनिर्भरता सिर्फ अपने परिवार को आर्थिक सुदृढ़ीकरण देने की पहल मात्र नहीं थी, बल्कि यह उसके आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए बेहद अहम बिंदु है। भारतीय समाज में स्त्री-जीवन की किसी भी समस्या को संवेदनशीलता से नहीं लिया जाता; और जब बात कार्यस्थल पर उत्पीड़न की हो, तो उसे कार्य-व्यवस्था का एक हिस्सा मानने की मानसिकता जगजाहिर है। पर क्या यह किसी भी सभ्य समाज का रूप हो सकता है? दफ्तर में महिलाओं की सुरक्षा पर तीन प्रतिशत संस्थान ही ध्यान देते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि मुंबई में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को लेकर बने कानून के बारे में ज्यादातर कामकाजी महिलाओं को जानकारी ही नहीं। ‘कॉम्प्लाई करो’ नामक कंपनी द्वारा किए सर्वे में इसका खुलासा हुआ है। इस सर्वे में दक्षिण मुंबई के 449 ऐसे संस्थानों की महिलाओं से बात की गई जहां दस से अधिक लोग काम करते हैं। सर्वे में पता चला कि 386 यानी 86 प्रतिशत संस्थानों को केंद्र के यौनउत्पीड़न(रोकथाम, निषेध व निवारण) अधिनियम-2013 के बारे में पता ही नहीं है। उनचास यानी 10.9 प्रतिशत संस्थानों को इस कानून की जानकारी है लेकिन वे उस पर अमल नहीं करते हैं। गौरतलब है कि ऐसे ही एक मामले में प्राइवेट कंपनी पर सिंतबर 2014 में 1.68 करोड़ रुपए का जुर्माना मद्रास उच्च न्यायालय ने लगाया था। इसके बावजूद देश के ज्यादातर प्राइवेट संस्थान कानून के प्रावधानों को लागू नहीं करते हैं। सुरक्षा का ही प्रश्न भारतीय महिलाओं के लिए चुनौती नहीं है, उन्हें लगातार अपने दफ्तर में असमानता का सामना करना पड़ता है, चाहे प्रश्न वेतन का हो या पदोन्नति का।

उल्लेखनीय है कि 2015 के आरंभ में महिला मेकअप आर्टिस्टों को बॉलीवुड में जगह नहीं दिए जाने पर उच्चतम न्यायालय ने लताड़ लगाई थी, जिसके चलते मेकअप आर्टिस्टों के लिए दरवाजे तो खोल दिए लेकिन उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से रोके रखने के लिए सदस्यता शुल्क और शर्तें बढ़ा दी गर्इं। हालांकि इस संदर्भ में उच्चतम न्यायलय ने पुन: सिने कॉस्ट्यूम मेकअप आर्टिस्ट और हेयर ड्रेसर एसोसिएशन की निंदा करते हुए इसे सुधारने के आदेश दिए। पिछली सरकार ने नया कंपनी कानून जब पारित कराया, तो उसमें कंपनियों के निदेशक मंडल में महिलाओं की न्यूनतम संख्या तय की गई। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने देश की सभी सूचीबद्ध कंपनियों को अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला निदेशक की नियुक्ति करने के आदेश दिए थे, पर यहां भी विडंबना देखिए कि कंपनियों ने बीच का रास्ता निकाल लिया। जिन कंपनियों ने सेबी के दिशा-निर्देश को माना है उनमें से हर छह में से एक ने किसी रिश्तेदार महिला को ही बोर्ड में स्थान दिया है। कॉरपोरेट जगत में महिलाओं में उत्थान के लिए काम करने वाले न्यूयॉर्क स्थित गैर-लाभकारी समूह कैटेलिस्ट के अनुसार एसएंडपी पांच सौ कंपनियों में 19.2 प्रतिशत निदेशक पद महिलाओं के पास ै। यूरोप की छह सौ दस बड़ी कंपनियों के बोर्ड मेंबरों में अठारह प्रतिशत महिलाएं हैं। क्या कभी यह तस्वीर जो पूर्णत: सफल नहीं की जा सकती, फिर भी देश में दिखाई देगी? हर वह स्त्री जो अपनी योग्यता के बलबूते पर उच्च पदों पर पहुंचना चाहती है उसकी सफलता को उसके ‘स्त्री’ होने से जोड़ कर देखा जाता है। उसकी हर कामयाबी पर उसके साथी सहकर्मी उन सीढ़ियों के तथाकथित ‘कथानक’ गढ़ने लगते हैं जो उसके आत्मबल को तोड़ते हैं।

एक महिला को अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा कहीं अधिक श्रम करना पड़ता है क्योंकि वह जानती है कि उसकी ‘गलती’ को उसके ‘स्त्री’ होने से जोड़ कर देखा जाएगा। सर्वेक्षणों से सामने आया है कि अनेक कंपनियों में पे्रसिडेंट या वाइस प्रेसिडेंट के स्तर तक पहुंच सकने वाली वरिष्ठ महिलाकर्मी मौजूद ही नहीं है। घर के दायित्वों को पूरा करने व जीवन की आवश्यकताओं को घर के पुरुष सदस्यों के साथ बराबरी से बांटने के लिए महिलाएं घर से बाहर कदम रख चुकी हैं। पर ‘सुरक्षा का प्रश्न’, ‘नौकरी और मातृत्व के मध्य संघर्ष’ के साथ-साथ और भी कई दिक्कतें उनके समक्ष मुंह बाए खड़ी रहती हैं।

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