क्या गरीबी एक राजनीतिक पूंजी है? – विजय संघवी

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने हाल ही में कहा कि भारत में गरीबी कायम रखने में कांग्रेस का योगदान था, क्योंकि गरीबों को वे वोटबैंक की तरह मानते थे। शाह ने जो कहा, वह एक राजनीतिक आम धारणा भी है। लेकिन इस कथन की विस्तार से पड़ताल करने के लिए हमें इसके विभिन्न् परिप्रेक्ष्यों को ठीक से समझना होगा।

जॉन राल्स्टन सॉल ने तीन तरह के छवि-निर्माताओं की तस्दीक की है। पहले वे, जो झूठ के आधार पर छवि रचते हैं। दूसरे वे, जो वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए छवियां रचते हैं। और तीसरे वे, जो वास्तविकता से ही इनकार करने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस नेतृत्व इस तीसरी श्रेणी में आता है। पीवी नरसिंह राव की तुलना में कोई और ऐसा कांग्रेसी प्रधानमंत्री नहीं रहा है, जिसने देश में गरीबों-अमीरों के बीच पसरी हुई खाई को पाटने का इतना महत्वपूर्ण काम किया हो और मध्यवर्ग को बढ़ावा दिया हो। नरसिंह राव ने पांच साल में वह कर दिखाया, जिसे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी तीन दशक में भी नहीं कर पाए थे। लेकिन चूंकि नरसिंह राव प्रथम परिवार से नहीं थे, इसलिए कांग्रेस लगातार उन्हें उनके श्रेय से वंचित करती रहती है। और हां, इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि गरीब वर्ग हमेशा से कांग्रेस का बंधक वोटबैंक रहा है और उसका चुनावी भरोसा हमेशा से लोककल्याणकारी कार्यक्रमों में रहा है।

वर्ष 1948 की शुरुआत में ही महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने एक पीपुल्स प्लान की परिकल्पना कर ली थी। तब देश की 72 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर थी, लिहाजा इस क्षेत्र के विकास पर उनका सबसे ज्यादा जोर था। लेकिन नेहरू का दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न् था। वे औद्योगिकीकरण के मार्फत आर्थिक विकास चाहते थे और राज्य का नियंत्रण उनके लिए इसका सबसे अच्छा तरीका था, जो कि सोवियत मॉडल से प्रभावित विचार था। यही कारण है कि उनके राज में ना केवल सार्वजनिक क्षेत्र को सर्वाधिकार प्राप्त थे, बल्कि निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों को तो जैसे हतोत्साहित भी किया जाता था। आलम यह था कि पंचायतों को भी कोई काम शुरू करने से पहले राज्यसत्ता की अनुमति की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। लाइसेंस राज और इंस्पेक्टर राज का दौर था, जो कि भ्रष्टाचार का जनक था।

नेहरू की मृत्यु से एक वर्ष पूर्व 1963 में देश की संसद में गरीबों की रोजमर्रा की आमदनी के सवाल पर बहुत हंगामा मचा था। इससे यह संकेत मिला था कि प्रधानमंत्री को अंदाजा तक नहीं है कि देश में गरीबी के क्या हालात हैं। हो सकता है कई लोग इस विचार से सहमत ना हों, लेकिन तब इसका जवाब कैसे दिया जाए कि गरीबी रेखा के निर्धारण का निर्णय तीसरी पंचवर्षीय योजना में जाकर लिया गया था। और वह भी तब, जब डॉ. राममनोहर लोहिया ने इस मसले को उठाया और इस पर काफी हंगामा हुआ।

इंदिरा गांधी ने हरित क्रांति का सूत्रपात किया था और यह कृषि के क्षेत्र में उठाया गया एक अद्भुत कदम था। इससे सबसे बड़ी बात यह हुई कि खाद्यान्न् के लिए दूसरे देशों के सामने भिक्षापात्र लेकर जाने की हमारी मजबूरी खत्म होगई। किसानों को उनकी उपज का उचित मोल मिले, इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली भी इंदिरा की ही देन थी। लेकिन किसी ने भी इस बात की ओर उनका ध्यान आकृष्ट नहीं किया कि यह योजना उन 80 प्रतिशत छोटे किसानों के काम की नहीं है, जो इतनी अतिरिक्त उपज ही नहीं ले पाते हैं कि बाजार में उससे मुनाफा कमाएं। इसके बावजूद साल-दर-साल बढ़ती महंगाई का बोझ उन पर पड़ता था। दूसरी तरफ न्यूनतम समर्थन मूल्य का फायदा वे बड़े किसान उठा लेते थे, जिनका कि बाजार में बिकने आने वाले 70 प्रतिशत खाद्यान्न् पर एकाधिकार था। न्यूनतम वेतनमान के विचार को भी इंदिरा गांधी द्वारा 1971 में मिली बड़ी चुनावी कामयाबी के बाद ही अमली जामा पहनाया गया था।

वास्तव में नेहरू ने कभी वोट हासिल करने के लिए झूठी छवि का सहारा नहीं लिया था, लेकिन यही बात इंदिरा के बारे में नहीं कही जा सकती। उनकी राजनीति अधिक केंद्रीयकृत थी और वे दक्षिणपंथी ताकतों को सत्ता से खदेड़कर अपना एकाधिकार कायम करना चाहती थीं। उन्होंने गरीबों से यह वादा तो नहीं किया वे उन्हें दो जून की रोटी मुहैया करवाएंगी, लेकिन उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सचेत जरूर कर दिया। ‘गरीबी हटाओ" का उनका नारा बेहद प्रभावी साबित हुआ था। गरीबी को नहीं हटना था सो नहीं हटी। रही-सही कसर आपातकाल ने पूरी कर दी। नतीजा यह रहा कि 1977 के चुनावों में देश की जनता में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया।

न्यूनतम वेतनमान की इंदिरा की योजना केवल कानूनी किताबों की शोभा बनकर रह गई, क्योंकि उसे लागू करने के लिए न तो पर्याप्त संसाधन थे और न ही इसमें सामाजिक सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान थे। उल्टे इसने शोषक जमींदारों को अपने बंधक मजदूरों को उनकी परंपरागत सामाजिक सुरक्षा से भी वंचित करने में मदद की। गरीबी हटाओ कार्यक्रम बाकायदा कानूनी मान्यता के साथ प्रारंभ किया गया था, लेकिन यह महज कानून की किताबों तक ही सीमित रह गया। 1980 में जब इंदिरा गांधी ने सत्ता में नाटकीय वापसी की तो उन्होंने पाया कि उनकी नीतियों के वांछित परिणाम कतई हासिल नहीं किए जा सके हैं। उन्होंने ख्यात अमेरिकी अर्थशास्त्री काप्रा से कहा था कि वे एक नई शुरुआत करना चाहती हैं और अपने पिता की नीतियों पर नहीं चलना चाहतीं, लेकिन वे अंतत: ऐसा नहीं कर सकीं। नेहरू और इंदिरा ने जिस तरह का नीतिगत ढांचा बड़ी मेहनत से तैयार किया था, वह लोगों को गरीबी की गर्त से निकाल पाने में सक्षम साबित नहीं हुआ था। हां, विभिन्न् राज्यों में सांप्रदायिक और अलगाववादी आवाजें जरूर मुखर हो गई थीं। बाद के सालों में इंदिरा का ध्यान इन्हीं से निपटने पर केंद्रित रहा और वे अपनी नीतियों को नए सिरे से निर्धारित नहीं कर सकीं।

यही कारण था कि जब 1991 में नरसिंह राव ने आर्थिक सुधारों को लागू किया, तो यह उन्होंने किसी विकल्प के तहत नहीं किया। वास्तव में, हालात संगीन हो चुके थे और तब उनके सामने इसके सिवा कोई और विकल्प शेष ही नहीं रह गया था। हमने देखा कि बाजार-केंद्रित नीतियों ने किस तरह से अर्थव्यवस्था में एक नएउत्साहऔर प्रयोजन-भावना का संचार किया। पहले लोग घर बैठे इस बात का इंतजार करते रहते थे कि सरकार उनकी गरीबी दूर करेगी, लेकिन अब वे खुद संपदा-निर्माण की प्रक्रिया में अग्रणी थे। जबकि इससे पहले की सरकारें तो वास्तव में अमीरों और उद्यमियों को हतोत्साहित करने में लगी रही थीं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ध्यान उचित ही संपदा-निर्माण, उद्यम और कौशल पर केंद्रित है, लेकिन जैसा कि इतिहास गवाह है, इन विचारों को हरकत में लाने के लिए उन्हें उस वैचारिक जड़ता से जूझना होगा, जो कि हमारे तंत्र में गहरे पैठी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं

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