विजय माल्या पर 7,000 करोड़ की देनदारी है तो दूसरे बड़े उद्यमियों पर इससे लगभग नौ गुना यानी 60,000 करोड़ रुपए की देनदारी है। माल्या का कहना है कि इस रकम के खटाई में पड़ने में सरकारी बैंकों की भी भागीदारी है, क्योंकि उन्होंने यह जानते हुए लोन दिए थे कि कंपनी संकट में है। सच यह है कि सरकारी बैंकों के अधिकारियों के लिए घटिया लोन देना लाभ का सौदा है। ऐसे लोन देने में उन्हें बड़ी घूस मिल जाती है। लोन के खटाई में पड़ने तक उनका ट्रांसफर मात्र हो जाता है और उन पर जवाबदेही नहीं आती है। बैंक घाटे में चला जाए तो भी उनके वेतन, बोनस तथा पांच सितारा होटल में धूमधाम पूर्ववत चलते रहते हैं, बल्कि सरकार द्वारा इन बैंकों को और पूंजी उपलब्ध कराई जाती है, जिससे यह गोरखधंधा चलता रहे।
प्राइवेट बैंकों द्वारा भी कुछ घटिया लोन दिए जाते हैं। परंतु यहां मौलिक अंतर है। प्राइवेट बैंक के मालिक को स्वयं का घाटा लगता है, जबकी घटिया लोन देने पर सरकारी बैंक के चेयरमैन को घाटा नहीं लगता है, बल्कि उसका प्रमोशन भी हो सकता है। घटिया लोन देने को मिली घूस से वह वित्त सचिव को घूस देकर प्रमोशन प्राप्त कर सकता है। सरकारी बैंकों के ढांचे में अच्छे लोन देने एवं लाभ कमाने का स्थान कम ही है। प्राइवेट बैंक के मालिक के सामने ऐसा विकल्प नहीं होता है। इसलिए आज सरकारी बैंकों के बकाया लोन 50 प्रतिशत हैं, जबकि प्राइवेट बैंकों के 20 प्रतिशत।
इंदिरा गांधी ने प्राइवेट बैंकों का सरकारीकरण किया था, क्योंकि प्राइवेट बैंकों द्वारा केवल कारपोरेट घरानों को लोन दिए जाते हैं, ग्रामीणों, किसानों एवं छोटे उद्यमियों को नहीं। लेकिन परिणाम बिलकुल उलट हुआ है। पूर्व में प्राइवेट बैंकों द्वारा बड़े उद्यमियों को अच्छे लोन दिए जाते थे और आम आदमी को लोन नहीं दिए जाते थे। अब सरकारी बैंकों द्वारा उन्हीं बड़े उद्यमियों को घटिया लोन दिए जाते हैं और आम आदमी को फिर भी लोन नहीं दिए जा रहे हैं। ऊपर से सरकारी बैंकों को घाटा लग रहा है। इस घाटे की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा आम आदमी पर टैक्स लगाकर इन बैंकों को और पूंजी उपलब्ध कराई जा रही है। प्राइवेट बैंकों का सरकारीकरण करके हम कुएं से तो निकले, परंतु और गहरी खाई में जा पड़े।
सरकार को व्यापार नहीं करना चाहिए। सोवियत रूस की अर्थव्यवस्था के चौपट होने का प्रमुख कारण सरकारी नौकरशाही का भ्रष्ट और अकुशल होना था। मूल समस्या घर्षण के अभाव की है। प्राइवेट बैंकों की व्यवस्था में तीन खिलाड़ी होते हैं – बैंक, रिजर्व बैंक तथा उपभोक्ता। रिजर्व बैंक का कार्य होता है प्राइवेट बैंकों पर नियंत्रण। प्राइवेट बैंक द्वारा निर्धारित संख्या में ग्रामीण शाखाएं न खोली जाएं तो रिजर्व बैंक उन पर कार्रवाई कर सकता है, लाइसेंस निरस्त कर सकता है। छोटे उद्यमियों को प्राइवेट बैंक के अधिकारी लोन न दें तो उनका संगठन रिजर्व बैंक के सामने शिकायत कर सकता है। सरकारी बैंकों की व्यवस्था में केवल दो खिलाड़ी रह जाते है – रिजर्व बैंक तथा उपभोक्ता। सरकारी बैंक तथा रिजर्व बैंक, दोनों की नियुक्ति वित्त सचिवद्वारा की जाती है। वित्त सचिव दोनों के मालिक होते हैं। सरकारी बैंक तथा नियंत्रक के बीच घर्षण समाप्त हो जाता है। यह आश्चर्यजनक है कि जिसके इशारे पर भ्रष्टाचार हो रहा है, उसे ही भ्रष्टाचार को रोकने की जिम्मेदारी दे दी गई है। यही कारण है कि सरकारी बैंकों में भ्रष्टाचार व्याप्त है, वे बड़े उद्यमियों को घटिया लोन दे रहे है, बैंक घाटे में चल रहे है और उनके अधिकारी जश्न मना रहे हैं।
रिजर्व बैंक निष्प्रभावी है। यदि रिजर्व बैंक प्रभावी होता तो प्राइवेट बैंकों को आदेश दे सकता था कि ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलें। तब इंदिरा गांधी को इनका सरकारीकरण करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। रिजर्व बैंक का प्रमुख कार्य देश की मुद्रा व्यवस्था को संभालना है। इसलिए प्राइवेट बैंकों पर नियंत्रण करने में वह असफल रहा है। इसके अलावा जरूरी है कि बैंकों के मालिकों की ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोलने की रुचि हो। सरकारी व्यवस्था में न वित्त सचिव की ऐसी रुचि है, न बैंक के अधिकारियों की। वित्त सचिव और बैंक के अधिकारियों का मूल चरित्र समान है। दोनों के लिए लाभकारी है कि भ्रष्टाचार से व्यक्तिगत लाभ कमाकर बैंक को गड्ढे में धकेल दें। बैंक के अधिकारियों को सुशासन का रास्ता दिखाया तो जा सकता है, परंतु यह व्यर्थ है, क्योंकि उनकी उस दिशा में चलने की रुचि ही नहीं। सरकारी बैंकों के खस्ताहाल का एकमात्र उपाय है कि इनका निजीकरण कर दिया जाए। साथ-साथ इन पर नियंत्रण करने के लिए अलग नियंत्रक बनाया जाए। यह नियंत्रक सुनिश्चित करे कि ग्रामीण क्षेत्रों में शाखा खोली जाए तथा आम आदमी को बैंक द्वारा लोन दिया जाए।
सरकारी बैंकों के भ्रष्टाचार को ढंकने को सरकार द्वारा इन्हें और पूंजी मुहैया कराई जा रही है। इससे सरकार के बजट पर बोझ पड़ रहा है। इनका निजीकरण कर दिया जाए तो सरकार को राजस्व की भारी प्राप्ति होगी। इनमें व्याप्त कुशासन से भी देश को मुक्ति मिल जाएगी। सरकार की वित्तीय हालत में भी सुधार आएगा। सरकारी बैंकों के मुखियाओं की मांग रही है कि उन्हें राजनीतिक दखल से मुक्ति मिलनी चाहिए। उन्हें स्वायत्त बना देना चाहिए। उन्हें बैंकों का संचालन प्रोफेशनल तौर-तरीकों से करने की छूट मिलनी चाहिए। इतना सही है कि बैंकों की खस्ता स्थिति का एक कारण राजनीतिक दखल है, परंतु बैंकों को स्वायत्तता देने के बाद ये प्रोफेशनल भ्रष्टाचारी भी बन सकते हैं। अत: सरकारी बैंकों का शीघ्रातिशीघ्र निजीकरण कर देना चाहिए। तब अगर माल्या से वसूली न की जा सके तो वह घाटा बैंक मालिक को पड़ेगा, जनता को नहीं।
-लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं