दलितों को मनुष्य न मानना!– तरुण विजय

तमिलनाडु में शंकर और कौशल्या ने अपने-अपने समाज के रूढ़िवादी इच्छा के विरुद्ध प्रेम-विवाह किया. दोनों हिंदू हैं एवं आस्तिक व श्रद्धालु हिंदुओं की तरह वे विवाह बंधन में बंधे. कौशल्या उस जाति से है, जिसे वनियार कहा जाता है, और वे बाकी तथाकथित सवर्ण जातियों की तरह स्वयं ऊंचा मानते हैं.

शंकर का परिवार अनुसूचित जाति से है, जिसे ये ऊंची जाति का अहंकार रखनेवाले छोटा और अस्पृश्य मानते हैं. यह कैसे संभव था कि वनियार समाज वाले अपनी बेटी शंकर के यहां ब्याहने देते. शंकर और कौशल्या जब विवाह के बाद घर आ गये, तो कौशल्या के परिवार वालों ने किसी बहाने से कौशल्या का अपहरण किया और अपने घर लाकर दबाव डाल कर शंकर के साथ न रहने की सलाह देने लगे.

कौशल्या ने खाना-पीना छोड़ दिया, छह दिन तक भूखी रही और अपने माता-पिता को मजबूर किया कि वे उसे उसके ससुराल शंकर के घर छोड़ दें. शंकर के घर लौट कर कौशल्या कुछ डर कर रहने लगी, उन दोनों को भय था कि कौशल्या के घर वाले कुछ गलत कर सकते हैं. ऐसा ही हुआ. घर के बाहर शंकर को बुला कर मार डाला गया.

हिंदू समाज की ही दो जातियों में विवाह को अमान्य करनेवाले वे स्वयं को बड़ी हिंदू जाति का कहते हैं, जो न केवल धिक्कार योग्य है, बल्कि उन्हें सबसे निचली जाति का घृणा योग्य हिंदू-विरोधी करार कर दिया जाना चाहिए. हिंदू समाज के शत्रु मुसलमान या ईसाई नहीं, बल्कि ये अहंकारी कथित बड़ी जाति वाले हिंदू हैं, जो समाज को तोड़ने और देश को बांटने की साजिश करते हैं. ये सभी लोग हिंदू देवी-देवताओं को मानते हैं, हवन, यज्ञ, व पूजा-पाठ करते हैं.

अपने जीने-मरने में संस्कृत जाननेवाले पंडितों को बुलाते हैं, लेकिन हिंदू धर्म की रक्षा करने या हिंदू समाज की एकजुटता बनाये रखने में इनका राई मात्र भी योगदान नहीं होता. ये लोग अपने लिए जीते हैं और अपने लिए ही मर जाते हैं. कभी-कभार ज्यादा जोश आया, तो राजनीतिक नेतागिरी के लिए हिंदुओं को मूर्ख बनाते हैं. कुछ राजनीतिक दुकानदारी भी कर लेते हैं. इनकी निगाह में इनकी जाति और बरसों से चली आ रही अंधी रूढ़ियां मात्र ही देश और धर्म से बड़ा होती हैं. अगर देशद्रोह का मुकदमा चलना चाहिए, तो ऐसे लोगों पर चलना चाहिए, जो जाति के आधार पर नफरत करते हुए समाज और देश को बांटने का काम करते हैं.

दुख इस बात का है कि शंकर और कौशल्या के घर हिंदुओं के कोई बड़े साधु-संत नहीं गये और न ही उन्होंने शंकर की हत्या की कड़े शब्दों में उस प्रकार निंदा की, जैसे वे धर्मांतरण के विरोध में आवाज उठाते हैं.

क्या केवल धर्मांतरण का विरोध करना ही हिंदू धर्म के रक्षकों का एकमात्र कर्तव्य रह गया है? जो अनुसूचित जाति के हैं, दलित हैं, इनके बीच में सिवाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा के काम करने के और कितने लोग हैं, जो समरसता की भावना फैला रहे हैं?
बड़े-बड़े साधु संतों को मठाधीशी पसंद है. यह तय है कि राजनेता तो खराब होते ही हैं, पर राजनेताओं को उपदेश देनेवाले ये बड़े-बड़ेप्रवचनकर्ता, भागवत् कथाकार और समाज को प्रबोधन देनेवाले बतायें कि कितने संत थे, जो गोहाना में हुए भयानक दलित अत्याचार के समय पहुंचे थे. हर दिन हर इलाके में दलितों के प्रति इस प्रकार की घटनाएं समाचारपत्रों में किसी न किसी कोने में छपती ही हैं. इस बारे में हिंदुओं की चुप्पी एक खतरनाक भविष्य की ओर संकेत करती है.

तमिलनाडु में हिंदू अनुसूचित जातियों के लिए शमशान घाट तक अलग है. विडंबना है कि वहां के तथाकथित बड़ी जाति वाले हिंदुओं ने यमराज को भी जातिवादी बना दिया है. यहां तक कि मृत्यु में भी जाति की घृणा और अहंकार को डाल दिया गया है.

यह स्तंभ मैं माता वैष्णो देवी की यात्रा करते हुए लिख रहा हूं. इस यात्रा में वास्तव में हिंदू समाज की समरसता का एहसास होता है. कौन छोटा है, कौन बड़ा है, कौन गरीब है, कौन धनी है, किसकी जाति क्या है, यह बात यहां कोई अर्थ ही नहीं रखती है. सामान्य साधारण दलित जनजातीय परिवार जय माता की बोलते-बोलते सब एक-साथ देवी के दर्शन करते हैं.

यह है धर्म का वास्तविक स्वरूप. जो जाति के भेद को मान कर समाज में विष घोलता है, वह धर्म नहीं अधर्म करता है. शंकर की मृत्यु से कौशल्या के जीवन में जो सूनापन आया है, वह हिंदू समाज पर कलंक है. इसका प्रायश्चित केवल जाति के भेद को तोड़ कर ही किया जा सकता है. यदि यह नहीं किया गया, तो तथाकथित सवर्णों की जाति का अहंकर एक ऐसा तूफान लायेगा, जिनमें इनकी तमाम अट्टालिकाएं धूल-धूसरित हो जायेंगी.

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