कितने बदल रहे हैं हमारे गांव– आर विक्रम सिंह

समस्याएं चिह्नित करना एक बात है, समाधान के रास्ते खोजना दूसरी बात। हमारे गांवों में अशिक्षा है, बेरोजगारी है, बीमारियां हैं, जमीनों के विवाद, मुकदमे हैं। जात-पांत की सामाजिक समस्याएं बरकरार हैं। हां, शोषण का वह रंग अब नहीं है, जो प्रेमचंद के उपन्यासों में मुखर होता है। कथित उच्च वर्ग में श्रम से अरुचि, दलित वर्ग में शिक्षा से अरुचि भी वहीं की वहीं है। नगरों की ओर पलायन रुका नहीं। बेरोजगारी है, पर रोजगार संबंधी शिक्षा नहीं है। पर समाधान भी कोई रॉकेट साइंस नहीं है। अगर गांव के इंटर पास लड़के को कृषि संबंधी व्यावहारिक जानकारी हो जाए, तो वह अपने परिवार की भूमि पर वैज्ञानिक तरीके से खेती- बागवानी कर सके। अगर हमारे परिवार में एक से पांच एकड़ भूमि है, तो हमें कोई बताए कि उस पर किस प्रकार आदर्श कृषि, पशुपालन, बागवानी आदि की जा सकती है।

 

पर ऐसी न तो कोई शिक्षा है, न ऐसी शिक्षा सोची गई है। इस कारण कृषि संभावनाहीन कार्य मान लिया गया है। गांवों-कस्बों में आईटीआई जैसा कोई संस्थान भी नहीं, जो कृषि कार्य की शिक्षा दे सके। फिर कृषि आधारित रोजगार जैसे बीज, खाद, कृषि उपकरण, पशु आहार आदि का व्यवसाय भी तो है। हर गांव में अनाज आढ़त के कारोबार की गुंजाइशें है। पर खेती का माल बाजार के बनिये के पास ही जाएगा। उपज के सही दाम के लिए इस व्यवसाय का एकाधिकार समाप्त होना भी जरूरी है। बैंक सहयोग दें, तो ग्रामीण युवक भी आढ़त का काम करें, पर ऐसा नहीं होता। सहकारी बैंक निष्क्रिय हैं।
गांवों में राजनीतिक, जातिगत जागरूकता की बहुतायत है। अभी पंचायत चुनाव हुए हैं। हमारा प्रधान सारे गांव का प्रधान नहीं हो पाता। वह अपने समर्थकों का ही प्रधान बना रहता है। अशिक्षा,बेरोजगारी से उसका कोई वास्ता ही नहीं है। लगभग हर विभाग में ग्राम स्तरीय संविदा कर्मचारी भी बहुत हो गए हैं। चूंकि स्कूली सर्टिफिकेट फर्जी मिल जाते हैं, इसलिए साक्षर होने की जरूरत नहीं। अंगूठा छाप महिलाएं भी आशा बहू, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बनी हुई हैं। नतीजतन स्वास्थ्य पोषण की आवश्यक व्यवस्थाएं नेपथ्य में चली जाती हैं और पंजीरी बाजार में बिकती मिलती है। हमारे विभिन्न ग्रामीण विभागीय कर्मियों में प्रशिक्षण के साथ जिम्मेदारी का भी अभाव है। जब आधारभूत योग्यता ही नहीं, तो फिर प्रशिक्षण कैसा? ऐसे संस्थान भी नहीं हैं, जो ग्रामीण सेवाओं से जुड़े कार्यों में प्रशिक्षण देते हों।

 

प्रश्न यह है कि ग्रामीण रोजगार व सेवाओं के प्रति हमारी प्रशासनिक मशीनरी व पंचायती व्यवस्था की प्रतिबद्धता है या नहीं। अभी एक गांव में भ्रमण के दौरान देखा गया कि एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अशिक्षित हैं। पर वह प्रधान की माता जी थीं। त्यागपत्र के लिए कहे जाने पर बात उठी कि विरोधी गुट की एक आंगनबाड़ी कार्यकत्री भी अंगूठा छाप है, उनसे भी इस्तीफा लिया जाए, तब वह इस्तीफा देंगी। ऐसे में, लोकतांत्रिक अथवा पंचायती शक्तियों का उपयोग विकास के लिए कैसे किया जाए? हमारे जनपद श्रावस्ती में तीन में से दो महिलाएं निरक्षर हैं। पुरुषों में यह दर 50 प्रतिशत है, पर इतनी भीषण निरक्षरता को लेकर कोई पंचायतीनेता चिंतित-परेशान नहीं होता। अशिक्षा, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, सफाई, टीकाकरण जैसी सेवाओं में गुणवत्ता का अभाव चिंता का कारण नहीं बन सका। हां, यदि किसी अकर्मण्य आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, एएनएम अथवा आशा बहू को हटाया जाएगा, तो उनकी पैरोकारी में लोग खडे़ हो जाएंगे।

अशिक्षा है, तो स्वच्छता के प्रति जागरूकता का अभाव भी है। इक्कीसवीं सदी में एक हाथ में मोबाइल और दूसरे में लोटा लिए लोग खेतों में शौच को जा रहे हैं। ग्रामीण समाज को शौचालय के उपयोग के लिए प्रेरित करने में आज जितना प्रयास करना पड़ रहा है, उतने में तो देश में सांस्कृतिक क्रांति हो जाती। टीकाकरण में हमारा जिला प्रदेश में क्या, शायद देश में भी सबसे पीछे हो। इस बात से हमारे पीएचसी प्रभारी डॉक्टरों को कोई शर्मिंदगी नहीं होती।

आजादी के पहले से ही विकास के सबसे महत्वपूर्ण माध्यमों में सहकारिता अथवा को ऑपरेटिव इकाइयों की गणना होती रही है। महाराष्ट्र, गुजरात आदि में विकास का इंजन बन चुकी सहकारिता हमारे यहां प्रारंभ में ही दम तोड़ गई। बैंक छोटे कर्ज नहीं देते, जबकि धन की जरूरत पड़ने पर गांव का आदमी साहूकार से दस रुपये प्रति सैकड़ा मासिक पर कर्ज लेने को मजबूर होता है और अंततः अपनी जमीन दे बैठता है। गांवों में माइक्रो फाइनेंस इकाइयां जरूरी हैं।श्रावस्ती जिले में बैंकों की जमा धनराशि से कर्ज का अनुपात मात्र 30 प्रतिशत है। 70 प्रतिशत पूंजी, जाहिर है, बैंक बाहर निवेश कर रहे हैं। अगर सहकारिता की बात करें, तो यह अनुपात सौ प्रतिशत पूंजी तक हो सकता है। पर सहकारिता का माहौल बनाकर यहां तक पहुंचने का रास्ता बहुत लंबा है। चर्चित अर्थशास्त्री डॉ. यूनुस सलीम ने ग्रामीण सहकारिता और माइक्रो लोन के जरिये बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था का चेहरा बदल दिया।

हमारी समस्याओं के समाधान अल्पकालीन नहीं हैं। यह गांवों के माहौल को आमूलचूल बदलने वाली बात है। साक्षरता की तड़प कैसे पैदा हो? सहकारिता ग्रामीण सशक्तिकरण का माध्यम कैसे बने? संसाधनों की कमी नहीं है। कमी इच्छाशक्ति व हमारी सोच में है। हर गांव में प्राइमरी स्कूल है, शिक्षक प्रतिदिन एक घंटा अतिरिक्त समय देकर निरक्षरों को साक्षर बना सकते हैं। इंटर कॉलेजों और प्राविधिक संस्थानों में अतिरिक्त संसाधनों से कृषि व संबंधित व्यवस्था की व्यावहारिक शिक्षाएं दी जा सकती हैं। ग्राम सभाओं की नियमित खुली बैठकें सहकार के रास्ते खोल सकती है। पर यह तब होगा, जब हम इस दिशा में सोचेंगे। वरना पिछले बहुत से वर्षों में स्थानीय विकास प्रशासन एवं पंचायती प्रतिनिधियों का जो गठजोड़ विकसित हुआ है, वह ग्रामीण परिवर्तन की संभावनाएं जगाता तो नहीं दिख रहा।

लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं

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