जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से संबंधित विवाद को करीब डेढ़ महीने हो गए हैं और अब यह शुरू में जिन मुद्दों से संबंधित था, उससे व्यापक मुद्दों से जुड़ गया है। इस विवाद ने राष्ट्रीय आयाम हासिल कर लिया है और इसके शांत होने के लक्षण नहीं दिख रहे। सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने राजनीतिक हमलों को व्यापक बनाने के लिए इस अवसर का उपयोग किया और छद्म धर्मनिरपेक्षता पर बात करने के बजाय वे राष्ट्रविरोधी ताकतों से बढ़ते खतरे की बात कर रहे हैं। इस विवाद से यह संदेश गया है कि भाजपा अकेली राष्ट्रवादी और देशभक्त पार्टी है, जबकि अन्य दल राष्ट्र विरोधी या देशहित के खिलाफ काम करने वाले हैं।
इस घटना ने संघ परिवार के आलोचकों को भी एकजुट किया है। यह एकता बुद्धिजीवियों, कलाकारों, स्वतंत्र राजनीतिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक दलों में दिखाई दे रही है। लेकिन अपने पक्ष को मजबूत करने के क्रम में दोनों कुछ गलतियां कर रहे हैं। एक तरफ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष पर शारीरिक हमले और उन्हें जान से मारने संबंधी पोस्टर पर चुप है। इस तरह के हमले खुद भाजपा के लिए नुकसानदेह हैं और उसे ऐसे तत्वों को खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, जो मनमानी करते हैं। भाजपा ने भारतीय जनता युवा मोर्चा के उस नेता को निष्कासित कर सही किया है, जिसने कन्हैया कुमार की जीभ काटने पर इनाम घोषित किया था।
संघ परिवार इसका अधिकतम लाभ ले सके, यह सुनिश्चित करने के लिए ऐसे अतिवादी तत्वों पर अंकुश लगाना चाहिए। अतीत में वह ऐसे तत्वों पर अंकुश लगाने में विफल रहा है, जिसकी कीमत उसे चुकानी पड़ी है। यहां तक कि बाबरी मस्जिद/रामजन्म भूमि ढांचे का विध्वंस नियोजित नहीं था, उसे उत्साही कारसेवकों ने अंजाम दिया था। लालकृष्ण आडवाणी ने भी स्वीकार किया कि उससे हिंदुत्ववादी आंदोलन को झटका लगा।
दूसरी तरफ, कन्हैया के समर्थक उसके पहले के असमर्थनीय कार्यों का भी समर्थन कर रहे हैं, जब वह ऐसी चर्चित हस्ती नहीं था। जेएनयू की एक पूर्व छात्रा के दुर्व्यवहार के आरोप पर, जो अभी दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं, जेएनयू प्रशासन ने उस पर जुर्माना लगाया था, पर कन्हैया के समर्थक इसे साजिश बताते हुए सवाल उठा रहे हैं कि वह महिला इस मुद्दे को अभी क्यों उठा रही है। इसमें संदेह नहीं कि करीब डेढ़ महीने पहले शुरू हुई कहानी अब पूरी तरह बदल गई है, पर यह कहना जल्दबाजी है कि इस विवाद से कौन लाभान्वित हुआ-संघ परिवार या उसके विरोधी? बेशक मोदी सरकार के आलोचक इस घटना की तुलना भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के दौर में यूपीए की लोकप्रियता में आई गिरावट से करना चाहेंगे, लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि यूपीए ने अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले उस आंदोलन का पलटवार नहीं किया था, जबकि संघ परिवार एकजुट होकर आक्रामक लड़ाई लड़ रहा है।
दोनों तरफ संतुलन बराबर है। मोदी सरकार के विरोधियों के लिए सबसे बड़ी फायदे की बात है कि उन्होंने विपक्ष की सार्वजनिक एकजुटता प्रदर्शित की है। चाहे जेएनयू में हो या दिल्ली की सड़कों पर या अन्य विश्वविद्यालयों में सरकार के खिलाफ हुई सभाएं और विरोध मार्च-इन सबने सरकार कीकार्रवाई की निंदा करते हुए दिखाया है कि इस बार आक्रोश ज्यादा है। इन विरोध प्रदर्शनों का व्यापक जनाधार है और यह लंबा चलने वाला है। पुरस्कार वापसी की तुलना में इस बार संघ परिवार की कठिन परीक्षा है। इसके अलावा, जेएनयू प्रकरण के साथ रोहित वेमुला प्रकरण के मिश्रण ने राष्ट्रवादी बनाम राष्ट्रविरोधी बहस में जाति को भी शामिल होने का अवसर प्रदान किया है। पर विश्वविद्यालयों से बाहर वैचारिक रूप से भिन्न समूहों और दलों के बीच इस एकजुटता को स्वीकार करने में मुश्किलें हैं। सीताराम येचुरी ने घोषणा की कि आगामी विधानसभा चुनावों में कन्हैया वाम मोर्चे के लिए प्रचार करेंगे। पर जब इस तरह की बातें होने लगी कि कन्हैया एक व्यापक राजनीति का प्रतिनिधित्व करने के लिए आए हैं और उन्हें किसी एक पार्टी या मोर्चे का प्रचार नहीं करना चाहिए, तो चुपचाप इस प्रस्ताव को खत्म कर दिया गया।
इससे पता चलता है कि संघ परिवार विरोधी एकता एक समय सापेक्ष मुद्दा है, जिसका चुनावी संघर्ष से, जो वास्तविक लड़ाई है, से कोई लेना-देना नहीं होगा। मोदी सरकार के विरोधी समूह इस समस्या से कैसे निपटते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
इसके विपरीत संघ परिवार ने अपने खेमे को एकजुट किया है और अपनी उस कमजोरी को खत्म किया है, जिसने पिछले डेढ़ वर्षों में उसके जनाधार में पैठ बनाई, क्योंकि कई लोगों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई हैं और कुछ वायदे अभी पूरे होने शेष हैं। तथाकथित राष्ट्रविरोधी ताकतों के खिलाफ प्रचार का काम मजबूती से हुआ है और इसमें संघ परिवार के संबद्ध संगठन और नए समर्थक सहित सभी लोग शामिल हैं, जो अन्य मौकों से अलग है। राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद पहली बार संघ परिवार ने अपने मानदंडों के भीतर वैचारिक बहस छेड़ी है। समय बताएगा कि वह इसमें सफल रहता है या विफल, पर फिलहाल उसके नेता मजबूती से अड़े हुए हैं।
पारंपरिक रूप से हिंदुत्व की गाड़ी चार पहियों पर चलती है-मंदिरों की सुरक्षा, भारतीय संस्कृति की रक्षा, गोरक्षा और हिंदू महिलाओं के अपमान को रोकना (लव जेहाद)। इसके अलावा हिंदुत्व के रथ का अलग से कोई पहिया नहीं रहा है, पर अब राष्ट्रवाद के रूप में पांचवां पहिया है। यह जरूरी नहीं कि संघ परिवार को इससे कोई तात्कालिक फायदा होगा और इस वर्ष असम एवं बंगाल में तथा अगले वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं गुजरात में उसे सफलता मिलेगी। लेकिन संघ परिवार ने राष्ट्रवाद के अपने नजरिये पर आम सहमति बनाने के लिए एक कदम आगे जरूर बढ़ा दिया है। भावी इतिहासकार ही फैसला करेंगे कि यह फैसला सफल था या विफल।
-वरिष्ठ पत्रकार और नरेंद्र मोदी-द मैन, द टाइम्स के लेखक