आज जब देशभक्ति पर तर्कशील विमर्श असंभव होता जा रहा है और भावुकता दिमागों पर हावी है, ऐसे में राष्ट्र को एक मातृदेवी का रूप देने की तर्कसंगत व्याख्या सामयिक है। संविधान के तहत धर्मनिरपेक्ष घोषित देश में राष्ट्रभक्ति को भारतमाता की देवीस्वरूपा प्रतिमा की तरह जयकारे बुलवाने और प्रणाम करने की जिद पर गौर करना चाहिए, जो बहुलतामय भारत के राज-समाज में प्रभु के विभिन्न् स्वरूपों को मानने वालों और उनके बीच लगातार टकराव का बायस बन रहा है। क्या बहुसंख्य आबादी की मातृदेवियों की तरह भारतमाता की भौतिक प्रतिमा को सनातनी आचार-नियमों के तहत पूजना सच्ची राष्ट्रभक्ति का इकलौता प्रमाण मान लिया जाए?
19वीं सदी में अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ इस तरह का राष्ट्रवादी सोच मातृपूजक बंगाल में उभरा था। उस समय के बंगाली लेखकों ने उसकी स्तुति में गीत व नाटक रचना शुरू किया। तब भी एक स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य की उनकी अवधारणा लोकतांत्रिकता पर यूरोपीय सोच से ही निकली और आगे अन्य धड़ों के बीच पनपी। उस समय सबका दुश्मन अंग्रेज शासन था, इसलिए हिंदू, मुसलमान, सिख आदि अलग-अलग वर्गों के बीच के मतभेद आजादी पाने तक के लिए खुद-ब-खुद स्थगित कर दिए गए।
1936 में बंकिम के उपन्यास आनंद मठ ने साम्राज्यवाद के खिलाफ विद्रोह का परचम उठाने वाले संन्यासियों की राष्ट्रभक्ति को बंगाल में घर-घर होने वाली मां काली की पारंपरिक वंदना से एकाकार कर दिया। उसके माध्यम से युग-युग से सामंती शोषण के शिकार रहे अकाल-पीड़ित बंगाल का क्षेत्रीय तादात्म्य-बोध मानो सारे भारत के क्रोध की अभिव्यक्ति और मुक्ति कामना से जुड़ता चला गया। लेकिन चूंकि उस भारत देश का मूलाधार अंग्रेजों द्वारा एकीकृत भारत का भौगोलिक मानचित्र था, इसलिए भारतमाता की दैवी परिकल्पना भी भिन्न् बनी। भारत में पारंपरिक (दुर्गा, काली, सरस्वती या अन्य आत्मसंभवा और देवताओं तक का उद्धार करने में समर्थ) देवियों की तुलना में यह ऐसी पददलित भारतमाता दीन, दु:खी किंतु संतान वत्सला, पतिपरायणा माता-पत्नी थी, जिसका पीड़ादायक स्थिति से उद्धार करना उसकी संतान का कर्तव्य माना गया। यह भी बताया गया कि दुर्दम्य देवियों के विपरीत इस त्यागमयी, वत्सला मां का सम्मान बाहरी हमलावरों या देश में पैठे गद्दारों के हाथों निरंतर खतरे में है और सर्वसमर्थ दुर्गा या काली की तरह यह मातारानी हुंकार सहित खुद अपने आक्रांताओं से नहीं निपट सकती, लिहाजा उसकी रक्षा के लिए उसके बेटों की सशस्त्र और जुझारू सेनाएं यत्र-तत्र तैनात हों। इसी का वर्तमान रूप हैं भारतमाता के पूतों के वे गुट, जो हर संदिग्ध माता विरोधी से जबरन जय बुलवाकर माता की शान के खिलाफ गतिविधि के हर कथित अपराधी को पीटने निकल जाते हैं।
माता रूपमूलक राष्ट्र-राज्य की यह अजीब छवि आंतरिक विरोधों को दिखाती हुई कुछ सवाल पैदा करती है। क्या वात्सल्य से ओतप्रोत शरणागतप्रेमी माता की छवि एक उग्र शस्त्रधारी संतान की आक्रामक मां की छवि से सहज तदाकार हो सकती है? क्या एक पारंपरिक हिंदू सद्गृहस्थ महिला के परिधान और आभूषण धारण करने वाली भारतमाता की प्रतिमा उससे इतर धर्मों के नागरिकों, जो दैवत्व की अलग परिभाषा और फर्क वेशभूषा से जुड़े हुए हैं, को सर्वग्राह्य है? वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत बनाने या सूर्य नमस्कार को स्कूली कार्यक्रम का अनिवार्यभाग बनाने पर दिखा मनमुटाव कहता है : नहीं।
जब भारत आजाद हुआ, तो उसका संविधान बनाने वालों ने भारत में बसने वाले तमाम समूहों के भिन्न् स्वभावों को समझा और उनको सहजता से समेटने वाले, इस विविधरंगी ताने-बाने वाले देश को एकजुट रखने वाले ऐसे धर्म-लिंग-जाति निरपेक्ष राष्ट्र-राज्य का ढांचा गढ़ा, जो पश्चिमी राष्ट्र-राज्य की एकेश्वर पूजक समाज की परिकल्पना से फर्क था। दो विश्वयुद्धों और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े खुद अपने लंबे अनुभव और शोध से संविधान निर्माताओं ने भली तरह जान लिया था कि श्वेत चमड़ी को श्रेष्ठतर मानने वालों द्वारा गढ़ी पश्चिमी लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्य की तस्वीर जमीन पर उतरकर कई बार बाहर से लाए या बुलाए गए अश्वेत अल्पसंख्य समुदायों जातीय गुटों के प्रति असहिष्णु बन जाती है।
सैकड़ों साल बाद भी उसमें अन्य मूलों के लोगों को विजातीय मानने के फासीवादी बीज छुपे रहते हैं, जो आर्थिक या दूसरी तरह की घरेलू असुरक्षा के क्षणों में बाहर आकर सत्ता को अन्य जातीय गुटों के विरोध में लामबंद करने लगते हैं। भारत की आजादी से पहले नात्सी जर्मनी के यहूदियों और अमरीकी अश्वेतों ने यह भेदभाव काफी भोगा है।
हम लाख कहें कि हम भारतीय सर्वधर्मसमभावी और सहनशील हैं, पर 1940 के दशक में निराकार प्रार्थनाओं के शब्दों का संदर्भ भी हिंदू या मुसलमान होने से जोड़ा जाने लगा था। और जब पंजाब तथा बंगाल के स्कूलों में तब लब पे आई है दुआ बन के तमन्ना मेरी सरीखी स्कूली बच्चों से गवाई जाने वाली सामूहिक प्रार्थना (जिसमें स्कू ल परिसर के बाहर खड़े लोग भी सुर मिलाते थे), की जगह शिक्षा संस्थानों में हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए सरीखी वंदना गवाई जाने लगी तो मुस्लिम छात्रों के अभिभावकों को बुरा लगा था। हाल में वंदे मातरम् को बतौर प्रार्थना गवाने के प्रस्ताव पर वैसा ही मनमुटाव हुआ। भोजशाला, राममंदिर निर्माण, चर्चों में तोड़फोड़ और हर उत्सव में सांप्रदायिक टकराव का संदर्भ अल्पसंख्यकों को लगातार सशंक बना रहा था।
हरिद्वार में भारत माता मंदिर की स्थापना का प्रस्ताव रथयात्रा का सिलसिला शुरू होने के आसपास आया था। भारत माता का आठ मंजिला भव्य मंदिर बनाने के पहले कई विशाल एकात्मता यज्ञ-रथ गंगा जल और भारतमाता की प्रतिमा लेकर देश भर में घूमे, तो पुराने अनुभवों-सवालों के संदर्भ में एक राष्ट्रवाद की धार्मिक संकीर्णता से जोड़ी जाती व्याख्या पर बवाल-सवाल उठने लगा।
आज फिर संविधान की रक्षा को प्रतिबद्ध कई ऐसे लोगों द्वारा राष्ट्र की एक धर्म विशेष की प्रतीकात्मकता लिए हुए छवि को राष्ट्रवाद की पहचान बताए जाने पर माहौल गर्म हो रहा है। सालभर से अनेक लेखक, पत्रकार तथा विश्वविद्यालयीन परिसरों में छात्र-शिक्षक वैचारिकता विशेष के हमलावर तेवरों के विरोध में आवाज उठा रहे हैं। जवाब में बातचीत के बजाय धमकियों, निष्कासनों, निलंबनों का सिलसिला ही निकल रहा है। पुलिसिया जत्थों से परिसर पाटने, केंद्र की पसंद के कुलपति नियुक्त करने और शिक्षा परिसरों में सैकड़ों फीट ऊंचे झंडे फहरवाने के फरमानों से राष्ट्रभक्ति की कैसी छवि बन रही है? सालों की मेहनत से रचे गए उदारतामूलक और खुली वार्ता से लोकतांत्रिक मन वाले नागरिक तैयार करने वाले विश्वमान्य संस्थानों को कड़वाहट भरे गढ़ बनाने में किस का भलाहै?
(लेखिकावरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)