वैश्वीकरण के दौर में देश और राष्ट्र जैसे शब्द पुराने पड़ते जा रहे हैं। अंग्रेजी का कंट्री शब्द गंवई क्षेत्र की ओर संकेत करता है। नेशन एक अमूर्त विचार है, जिसका स्वरूप उसके मानने वालों के अपने नजरिए पर ही निर्भर करता है। यह भी एक प्रचलित मत है कि नेशनलिज्म का कोई एक अर्थ नहीं होता, वह एक बहुलार्थी शब्द है जिसका उपयोग किसी भी ढंग से किया जा सकता है।
शस्यश्यामलाम् मलयजशीतलाम् मातरम् बंदेमातरम् कहकर देश को याद करना आज की अधुनातन सोच से मेल नहीं खाता है। देश को मां कहना और स्वयं को देश का पुत्र मानना अर्थात देश पहले है और हम बाद में, आज कुछ उल्टी-पुल्टी-सी बात लगने लगी है। हमारे बुद्धिशील और सयाने हो चुके मानस को यह बात गले नहीं उतरती है। आज भूमंडलीकरण की फिजा में बुद्धिजीवी वर्ग की दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक अंतरराष्ट्रीय होती शब्दावली के लिए तो देश जैसा शब्द और उससे जुड़ी भावनाएं और अभिव्यक्तियां बेमानी-सी पड़ती जा रही हैं। विश्व नागरिक होते हुए हमारी आगे बढ़ती हुई सोच के लिए देश जैसा शब्द छोटा पड़ता जा रहा है।
बचपन के समय बालमन में देश का एक सजीव अस्तित्व वाला रूप बैठ गया था। देश को लेकर किसी तरह का प्रश्न या संदेह नहीं था। तब का याद किया गीत विजयी विश्व तिरंगा प्यारा/झंडा ऊंचा रहे हमारा आज हमें एक सीमित मानसिकता वाला लगने लगा है और हमारे कई सम्मान्य मित्रों को इसमें फासिस्ट सोच की बू आने लगी है। हम बच्चे थे तो यह बड़ा प्यारा, जीवंत और आशाओं भरा लगता था। तब हम सब सत्य, अहिंसा, हरियाली, हवा, पानी, रिश्ते-नाते आदि के सौंदर्य पर मुग्ध-चकित रहते थे। यह सब अब धीरे-धीरे अपरिचित या अनपहचाना-सा होता गया है।
हम परिपक्व हो रहे हैं और नैसर्गिक स्वाभाविक के बदले कृत्रिम और अपनी बनावट के पीछे दीवाने हुए जा रहे हैं। देश की अवधारणा पर प्रश्नचिह्न लगाना भारतीय बुद्धिजीवियों का शगल हो रहा है। जब आज के भारतीय गणतंत्र की रचना हो रही थी और भारतीय संविधान का निर्माण चल रहा था, उस दौरान पूरे देश से आए सभा के प्रतिनिधियों की लंबी बहसों के बाद सहमति से बहुत से निश्चय किए गए थे और देश की अवधारणा और उसे चलाने के तौर-तरीकों को लेकर नियम कानून की व्यवस्था स्वीकार की गई थी।
हां, हमारे राजनीतिक नायकों ने संवैधानिक व्यवस्था में इसकी जगह जरूर छोड़ रखी कि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर प्रचलित व्यवस्था में आवश्यक सुधार करने की गुंजाइश बनी रहे, पर उन्हें भारत देश के अस्तित्व और परिभाषा के बारे में किसी तरह का संदेह नहीं था। भारत देश की महत्वाकांक्षाओं और उसकी ज्ञान तथा संस्कृति की परंपराओं को लेकर कोई संशय नहीं था। यह जरूर था कि इन प्रश्नों और इनसे जुड़े सरोकारों को लेकर भिन्न् दृष्टियों को सुनने-समझने की छूट थी। देश में व्याप्त विविधता देश की ताकत के रूप में ली गई थी, न कि कमजोरी के रूप में।
देश के नायकों में बड़े उत्साह से सबको साथ लेकर चलने की कोशिश की जाती रही, पर कहीं छोटे राजनीतिक लाभ भी नजर में बने रहे। किसी समस्या या प्रश्न पर सोचतेवक्त वोट बैंक की चिंता और उसके लिए तुष्टीकरण करते रहने की नीति अपनाने का सीधा-सरल नुस्खा अपनाया जाता रहा। आज किस्म-किस्म के बढ़ते आरक्षण की गुहार इस बात का प्रबल प्रमाण है। मूलत: आरक्षण सकारात्मक कदम था, जो वंचित समुदायों के सशक्तीकरण की मानवीय जरूरत को ध्यान में रखकर किया गया। इसका एक पुष्ट जातिगत आधार था, जो सदियों पुरानी भेदभाव की एक कड़वी सच्चाई थी। पर बदलती परिस्थितियों में भी बिना किसी तरह के आकलन या मूल्यांकन के इसे ज्यों का त्यों लागू करते जाना और शिक्षा में प्रवेश, नौकरी और अन्य सुविधाओं के वितरण में छह-सात दशकों में इसकी मात्रा बढ़ते जाना तर्क से परे है। ऐसा करते जाना सामाजिक भेदभाव, समरसता और सामाजिक उन्न्ति की दृष्टि से हमें कहां ले जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है।
देश और देशभक्ति जैसे विचार की चर्चा करना अब दकियानूसी सोच और नजरिए में एक तरह के पिछड़ेपन का द्योतक माना जाने लगा है। ये विकसित हो चुके या हो रहे तमाम लोगों के लिए आज अप्रासंगिक हैं या फिर प्रगति के मार्ग में रोड़ा बनकर खड़े विचार लगते हैं। कुछ विचारशील बुद्धिमान लोग इन अवधारणाओं को संशयग्रस्त और अधकचरा बताते हुए कनटेस्टेड की श्रेणी में रख देते हैं। मौलिकता के लिए जब विचार और तर्क-कुतर्क बनने लगता है तो संदेह का दायरा बढ़ता जाता है और अपना अस्तित्व ही पराया लगने लगता है। ऐसे में भारत और भारतीयता जैसे शब्द हमारे बीच चल रहे कुछ बौद्धिक विमर्शों में अभी भी अनसुलझे या अनिश्चित से ही माने जाते हैं और एक कठिन संभावना की तरह पेश किए जा रहे हैं। देशप्रेम या देश से लगाव उत्तर-स्वतंत्रता के समय में पुनर्परिभाषित करना जरूरी है, पर क्या इसके लिए देश के टुकड़े-टुकड़े कर के ही पुन: विचार शुरू किया जा सकता है। देश की परिधि के अंदर क्या हो और कैसे हो, यह देश की अवधारणा से भी जुड़ा सवाल है। छद्म बौद्धिकता के साथ जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आवरण भी लगा हो तो एक खास तरह के सरलीकृत यथार्थ की ही निर्मिति होती है। इसे संस्थागत रूप दे देने के बाद चारों ओर से इतनी परिपुष्टि होने लगती है कि हम अतिवादिता की अति को भुलाकर उसे ही यथार्थ मान बैठने की गलती करने लगते हैं। देश और समाज के प्रति प्रतिबद्धता और समता, समानता, बंधुत्व को लेकर ही हम गरीबी और भेदभाव की महामारी से लड़ सकेंगे।
-लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि के कुलपति हैं