स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए सरकार द्वारा कई स्तर पर सुधार करने और वित्तीय सहयोग देने की जरूरत है। इस क्षेत्र की आवश्यकताओं के बारे में बता रहे हैं चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. के के तलवार
कित्सा के क्षेत्र में भारत के पास काफी जहीन डॉक्टर हैं। आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं से लैस अनेक अस्पतालों ने भारत को मेडिकल टूरिज्म का एक आकर्षक केंद्र बनाया है, क्योंकि यहां दुनिया भर के रोगियों के लिए सस्ती दवाएं और वैक्सीन बन रही हैं। बावजूद इसके देश के ज्यादातर लोगों की पहुंच से इलाज की सुविधा बाहर है। चंूकि तेजी से बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने में देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा असमर्थ है और निजी अस्पतालों में इलाज की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं, ऐसे में बुनियादी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को पर्याप्त मदद की जरूरत है, ताकि न सिर्फ उसके दायरे में विस्तार हो, बल्कि वह असरदार भी साबित हो सके। केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसे कदम उठाने चाहिए, ताकि तात्कालिक व दीर्घकालिक स्वास्थ्य सेवाओं का भार लोग वहन कर सकें।
अनिवार्य दवाओं का मुफ्त वितरण
दिल्ली समेत कई राज्य अनिवार्य दवाएं मुहैया करा रहे हैं। ये दवाएं जन-औषधि केंद्रों में बहुत सस्ती दर पर उपलब्ध हैं। आवश्यकता इस बात की है कि राज्य सरकारें दवाओं की उपलब्धता की बारीकी से निगरानी करें और सुनिश्चित करें कि उनकी आपूर्ति की निरंतरता बनी रहे। सरकारी अस्पतालों में जहां कहीं भी यह कार्यक्रम सफलतापूर्वक संचालित हो रहा है, वहां इसकी लोकप्रियता देखी जा सकती है। जरूरत यह है कि इसे दवाओं के मूल्य नियंत्रण की नीति से जोड़ा जाए, ताकि जो दवाएं इस सूची में शामिल नहीं हैं, उनकी कीमत कम हो सके।
सस्ती जांच सुविधाएं
खून की जांच, एक्स-रे या दूसरे अनिवार्य परीक्षणों का खर्च लोग वहन कर सकें, इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है। क्लिनिकल डायग्नॉस्टिक से जुड़ी महंगी जांचों, जैसे अल्ट्रा साउंड, सीटी/एमआरआई स्कैन की सुविधाएं अकसर सरकारी अस्पतालों में नहीं मिलतीं। इनकी ऊंची कीमत लाखों मरीजों की पहुंच के दायरे से इन्हें बाहर कर देती है, जिससे इलाज में देर हो जाती है। महंगी जांच की ये सुविधाएं कम से कम जिला अस्पताल में उपलब्ध हों, यह सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकारों को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप नीति को अपनाने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
अस्पतालों और क्लिनिक्स को मदद
मेडिकल कॉलेजों, जिला अस्पतालों, कम्युनिटी हेल्थ सेंटर्स (सीएचसीएस) और प्राइमरी हेल्थ सेंटर्स (पीएचसीएस) को राज्यों द्वारा वित्तीय तौर पर समर्थन मिलना चाहिए। उपलब्ध संसाधनों में से ही नए तरीके अपना कर सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर किया जाना चाहिए।
नियंत्रण एवं निगरानी
सरकार से मान्यता प्राप्त अस्पताल देखभाल के समान मानकों को लागू करें। साथ ही सेवाओं और अन्य कार्यक्रमों पर नजर रखी जाए, जिससे मानक देखभाल और मरीजों का इलाज अच्छी तरह से हो सके।
टेलिमेडिसिन
अस्पताल मेडिकल कॉलेज से जुड़े हों और पीएचसीएस और सीएचसीएस में देखभाल की गुणवत्ता में सुधार हो। इससे जिला अस्पतालों को रेफर होने वाले मामलों में कमी आएगी।
जिला अस्पतालों में पोस्ट रेसिडेंट डॉक्टर्स
चूंकि स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में कार्यबल में इजाफा होने की उम्मीद है (2013 में 35.9 लाख, वहीं 2022में 74 लाख), ऐसे में मास्टर डिग्री करने वाले रेसिडेंट डॉक्टर्स को दो से तीन माह के लिए जिला अस्पताल में काम देना चाहिए। इससे उन्हें आवश्यक क्लिनिकल अनुभव तो मिलेगा ही, खाली पद भी भरे रहेंगे। स्किल इंडिया मिशन के तहत मेडिकल प्रोफेशनल जैसे नर्स, पेरामेडिकल स्टाफ आदि को इन डॉक्टर्स के साथ काम करने की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए।
मरीज की देखभाल के लिए फंड
सरकारी अस्पतालों के लिए फंड जुटाने की खातिर आउट पेशेंट डिपार्टमेंट (ओपीडी) और अन्य तरह की जांच के लिए मामूली फीस रखनी चाहिए। इसमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि सभी वर्ग के लोग इसका लाभ उठा सकें और उन्हें सभी सेवाएं एक ही छत के नीचे उपलब्ध हो सकें। हालांकि इस तरह की योजनाओं की आलोचना होती है और इसे ‘सरकारी अस्पतालों का निजीकरण’ तक कहा जाता है, लेकिन यह सीमित संसाधनों में बेहतर सुविधाएं देने का कारगर तरीका साबित हो सकता है। कई बड़े अस्पताल जैसे ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स), नई दिल्ली और दि पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई), चंडीगढ़ इस नीति को अपना चुके हैं और उन्हें संतोषजनक परिणाम मिले हैं। इसलिए इसे अपनाना फायदेमंद हो सकता है।
जिला अस्पताल के लिए प्राइवेट फंडिंग
एक जिला वेल्फेयर कमेटी उपायुक्त की अध्यक्षता के अंतर्गत इस काम के लिए सहयोग कर रही है। इसे मौजूदा ढांचे में जोड़ना चाहिए और अधिक सेवाओं में मदद देने की पेशकश करनी चाहिए।
स्पेशलाइज्ड इलाज को बढ़ावा मिले
अगर कुछ बड़े सरकारी अस्पतालों को छोड़ दें तो सार्वजनिक क्षेत्र के ज्यादातर अस्पतालों में विशेष प्रकार की सर्जरी के लिए न तो इन्फ्रास्ट्रक्चर है और न ही विशेषज्ञ सर्जन। ऐसे में मरीज या तो तकलीफ भोगने को विवश हैं या फिर उचित इलाज के लिए महानगरों की ओर भागते हैं। इसलिए सरकारी अस्पतालों को अब इस स्थिति में लाया जाना चाहिए कि वे दूसरे स्तर में पहुंच चुकी बीमारियों का इलाज कर सकें और निम्न व मध्यम आय वर्ग के लोगों की सेवा कर सकें।
तमाम राज्यों को केंद्रीय कल्याणकारी योजनाओं के अतिरिक्त अपनी तरफ से भी कल्याणकारी योजनाएं लागू करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, पंजाब में कैंसर मरीजों को डेढ़ लाख रुपये की वित्तीय मदद दी जाती है और राज्य के करीब 214 सरकारी व 216 पैनल में शामिल निजी अस्पतालों में नीले राशनकार्ड धारकों को भगत पूरण सिंह स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 30,000 रुपये तक मुफ्त इलाज की सुविधा मिलती है। इन योजनाओं को अगर एक-दूसरे से जोड़ दिया जाए तो न सिर्फ दोहराव से बचा जा सकेगा, बल्कि राज्य में मरीजों को लंबा इलाज भी मिल सकेगा।
इमरजेंसी सेवाएं बेहतर होनी चाहिए
मेडिकल इमरजेंसी किसी भी मरीज और उसके परिजनों के लिए बेहद भयावह व तनावपूर्ण स्थिति होती है। फिर भी ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में ट्रॉमा, सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु संबंधी आपातकालीन सुविधाएं जरूरी मानक से कमतर हैं।
ज्यादातर सरकारी चिकित्सा केंद्रों में प्रशिक्षित विशेषज्ञों, तकनीशियनों और जांच संबंधी सुविधाओं का अभाव है। इसके अलावा बेड की कमी भी मरीजों को निजी अस्पतालों में महंगे इलाज की तरफ धकेलती है। दिल्ली में फैली डेंगूकीबीमारी ने सरकारी व निजी अस्पतालों में पर्याप्त व वहन करने लायक आपातकालीन सेवाओं की जरूरत को उजागर किया था।
विशेषज्ञ कहते हैं कि आपातकालीन मेडिकल स्टाफ के अलावा मेडिसिन व सर्जरी विभाग के विशेषज्ञ डॉक्टरों की मौजूदगी भी अस्पताल में 24 घंटे सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसी तरह निजी क्षेत्र के साथ समन्वय बिठाते हुए एंबुलेन्स सेवाओं को बेहतर बनाए जाने की भी जरूरत है।