अरसे बाद लेफ्ट को एक नया आइकॉन मिला है। वह जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष है और उसका नाम है कन्हैया कुमार। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी पहले ही उत्साह में आकर घोषणा कर चुके हैं कि कन्हैया पश्चिम बंगाल में होने वाले चुनावों में उनका स्टार प्रचारक होगा। कन्हैया का नाम सुर्खियों में आया था आजादी को लेकर लगाए गए चंद नारों से। अब उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वास्तव में उन्हें देश से नहीं, बल्कि देश में आजादी चाहिए। और यह भी कि उन्हें पूंजीवाद, ब्राह्मणवाद, मनुवाद, भुखमरी, बेरोजगारी वगैरह-वगैरह से आजादी चाहिए। खयाल तो नेक है। आखिर इन चीजों से आजादी कौन नहीं चाहेगा? लेकिन सवाल है कि यह आजादी मिलेगी कैसे?
कन्हैया सीपीआई की स्टूडेंट यूनियन के नेता हैं, लिहाजा जाहिर है वे लेफ्ट का राग ही गाएंगे। यही कि प्राइवेट सेक्टर खराब है, पूंजीपति तो और बदतर हैं और राज्यसत्ता को बाजार पर कठोर नियंत्रण रखना चाहिए। चूंकि सीपीआई और बंगाल का गहरा नाता रहा है, लिहाजा पूछा जाना चाहिए कि बंगाल के परिप्रेक्ष्य में पूंजीवाद से आजादी का नारा बुलंद करने की क्या तुक है? पश्चिम बंगाल को तो बहुत पहले पूंजीवाद से आजादी मिल गई थी। वामदलों के तीन दशक के शासनकाल में अनेकानेक उद्योग-धंधे वहां से पलायन कर गए। लेकिन क्या इसके बाद भी वहां के लोगों को भुखमरी और बेरोजगारी से आजादी मिल गई? इसकी तुलना उन राज्यों से करें, जिन्होंने पूंजीवाद से आजादी का नारा बुलंद करने के बजाय उल्टे पूंजीवादियों का अपने यहां स्वागत किया, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात इत्यादि। इन तमाम राज्यों के पिछले तीस-चालीस सालों के गरीबी के आंकड़े देखिए। आप पाएंगे कि पश्चिम बंगाल इनमें सबसे गरीब है। 1973-74 में बंगाल की 63.4 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी, जबकि पूंजीवाद का स्वागत करने वाले अन्य राज्यों में यह आंकड़ा 28 से 55 प्रतिशत तक था। वाम सरकारों के इतने लंबे कार्यकाल के बावजूद आज भी बंगाल इन तमाम राज्यों से पिछड़ा हुआ है। अन्य राज्यों में गरीबों की संख्या में भी पश्चिम बंगाल की तुलना में अधिक तेजी से गिरावट आई है।
अब बेरोजगारी से आजादी की बात करें। वर्ष 2011-12 में नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन द्वारा कराए गए एक बेरोजगारी सर्वेक्षण में पाया गया था कि 15 से 59 वर्ष आयु वर्ग के लोगों के बीच बेरोजगारी का प्रतिशत पश्चिम बंगाल में 3.3 प्रतिशत है, जबकि उद्योग-केंद्रित अन्य राज्यों में यह 0.5 से 2.4 प्रतिशत तक है। केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के लेबर ब्यूरो द्वारा जारी की गई यूथ एंप्लायमेंट सिनैरियो 2012-13 की रिपोर्ट से भी यही तस्वीर उभरकर सामने आती है।
लेकिन कन्हैया की जो विश्व-दृष्टि है, उसमें उनको लगता है कि पूंजीवाद और मुक्त-बाजार अर्थव्यवस्था का सरोकार केवल बड़े बिजनेस घरानों से ही है। ऐसा नहीं है। छोटे उद्यमों और उपभोक्ताओं से भी इसका इतना ही सरोकार है। रेहड़ी-पटरी वालों से भी इसका गहरा ताल्लुक है। वास्तव में देश में समाजवादी शासन के 40 सालों तक कायम रहे लाइसेंस-परमिट राज के दौरान सबसे ज्यादा कष्ट छोटे उद्यमों ने ही झेला था। जाने कितने उद्यमी बाबुओं से जूझते-जूझते परिदृश्य से ओझलहो गए। कन्हैया का जोर पूंजीवाद से आजादी पर तो था, लेकिन छोटे उद्यमियों और कारोबारियों की आजादी के बारे में उन्होंने कोई चिंता नहीं जताई। इन्हें भी आजादी चाहिए, लाइसेंस-परमिट से, इंस्पेक्टर राज से, नेता-बाबू गठजोड़ से। क्या कन्हैया को पता नहीं कि वे जिस वामपंथी-समाजवाद के अनुयायी है, नौकरशाही का जाल और लाइसेंस-परमिट का चक्रव्यूह रचने का श्रेय उसी को सबसे ज्यादा है?
वामपंथियों के साथ दिक्कत यह है कि उन्हें लगता है गरीबों का भला करने का ठेका अकेले उनके पास है। लेकिन यह भ्रम बहुत पहले ही टूट चुका है और वास्तव में देशवासियों ने उनके खिलाफ लगातार जनादेश दिया है। उनकी तुलना में तो आजादी के लिए संघर्ष करने वाले लोग वे हैं, जो यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि संपत्ति का प्रसार हो, वह आबादी के एक छोटे-से हिस्से तक ही सीमित होकर न रह जाए।
मिसाल के तौर पर मधु किश्वर ने स्ट्रीट वेंडर्स के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाए जाने को लेकर खासा संघर्ष किया है। लेकिन वे तो वामपंथी नहीं हैं। उल्टे वे मुक्त बाजार प्रणाली की समर्थक हैं। वे यह आवाज उठाने वाले पहले लोगों में से थीं कि उदारीकरण के लाभ अब हॉकरों और स्ट्रीट वेंडर्स जैसे निचले तबके के लोगों तक भी पहुंचने चाहिए। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सिविल सोसायटी भी गरीबों का पक्षधर होने के साथ ही मुक्त बाजार प्रणाली का हिमायती है। एक अर्थ में आजादी की लड़ाई यह संस्थान भी लड़ रहा है। वह संघर्षरत है कि देश में किफायती शुल्क लेने वाले निजी स्कूलों की संख्या में इजाफा हो, ताकि निजी स्कूलों का खर्चा वहन न कर सकने वाले वे माता-पिता भी अपने बच्चों को वहां पढ़ा सकें, जो उन्हें सरकारी स्कूलों में नहीं भेजना चाहते। एक समाजवादी माई-बाप सरकार इस समस्या का समाधान इस तरह से करती है कि वह शिक्षा का अधिकार कानून बना देती है। इससे यह होता है कि निजी स्कूलों में पढ़ाई के रहे-सहे विकल्प भी खत्म हो जाते हैं और निम्न आय वर्ग के बच्चे पूरी तरह से सरकारी स्कूलों के ढर्रे पर आश्रित हो जाते हैं। समाजवादी सरकार इन सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारने की बातें तो करती हैं लेकिन ऐसा कभी हो नहीं पाता। देखा जाए, तो इस तरह के कानून न केवल किफायती निजी स्कूलों को संचालित होने की आजादी से महरूम कर देते हैं, बल्कि गरीब परिवारों से शिक्षा के विकल्प की आजादी भी छीन लेते हैं। लेकिन कन्हैया कुमार को इस तरह की आजादियों की परवाह कहां?
कन्हैया को जातिवाद से भी आजादी चाहिए, लेकिन बड़े मजे की बात है कि जातिगत आरक्षण से आजादी उन्हें नहीं चाहिए? भला ऐसा कैसे संभव है? हकीकत तो यही है कि आरक्षण नीति के कारण भारत में जाति की जड़ें और मजबूत हुई हैं। जाति-आधारित भेदभाव खत्म होना तो दूर, जातिगत विसंगतियों के नए स्वरूप उभरकर सामने आ गए हैं। जाति आरक्षण को कायम रखते हुए जातिवाद से मुक्ति की बात करना ऐसे में एक खोखले नारे से बढ़कर कुछ नहीं है।
वास्तव में आजादी की मांग करना बहुत सरल है। लेकिन आजादी क्या है, यह तय करना और उसेहासिलकरना बहुत ही दुष्कर है। आजादी की मांग करते हुए जोरदार नारेबाजी करना तुरंत लोकप्रिय जरूर बना सकता है, लेकिन अगर कन्हैया कुमार लंबी रेस का घोड़ा बनना चाहते हैं तो इस संबंध में थोड़ा चिंतन-मनन कर लेना चाहिए। वास्तव में देश को पूर्ण आर्थिक आजादी की दरकार है, लेकिन इस विचारधारा का समर्थन तो वे कभी करने से रहे!
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)